हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 334 ⇒ चलो सजना, जहां तक घटा चले… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चलो सजना, जहां तक घटा चले।)

?अभी अभी # 334 ⇒ चलो सजना, जहां तक घटा चले? श्री प्रदीप शर्मा  ?

अगर आप किसी के, सजन, साजन, प्रेमी अथवा साथी हैं, तो घटा, सावन, बहार और मौसम से सावधान रहें, क्योंकि क्या भरोसा कब, आपकी सजनी से आपको बुलावा आ जाए।

कोई समय, मुहूर्त, अथवा दिन रात नहीं, बस उठो और, “चलो सजना, जहां तक घटा चले “। अब यह आग्रह है अथवा आदेश, पैदल चलना है अथवा गाड़ी से। एक और स्पष्ट हिदायत है, लगाकर गले।

प्रेम में सब चलता है। गौर कीजिए ! ओ साथी चल, मुझे लेकर साथ चल तू, यूं ही दिन रात चल तू। अजीब परेशानी है अगर मौसम सुहाना है, उधर उसको आपकी बांहों में आना है। यानी पहले गला, फिर बांह।।

आपको दफ्तर जाना है, अथवा कोई जरूरी काम करना है, उससे उसे क्या। सुनो सजना … इस तरीके से बोलेगी कि पूरी दुनिया सुन ले। सुनो सजना, पपीहे ने कहा सबसे पुकार के। अब ये पपीहा कोई दूध वाला अथवा सब्जी वाला है क्या, जो सुबह सुबह आवाज लगा रहा है। मानो कोई मॉर्निंग अलार्म हो। संभल जाओ, चमन वालों, कि आए दिन बहार के। डरा तो ऐसा रहा है, मानो आपातकाल लग रहा हो।

वाह रे पपीहे और वाह रे बहार।

यही हाल सावन की घटा और बरखा बहार का है। सावन तो जब भी आता है, झूम कर ही आता है।

जब भी काली घटा छा ती है तो प्रेम ऋतु ही आती है, और हां, साथ में तेरी याद जरूर आती है। ओ सजना, बरखा बहार आई, रस की फुहार लाई, अंखियों में प्यार लाई।

यानी अब अपना पेट बस फुहार और प्यार से ही भरना है। थोड़ा मुफ्त राशन भी ले आती, तो घर का चूल्हा तो जलता।।

यहां तो ऐसी हालत हो रही है कि पूछो ही मत ;

नैनों में बदरा छाए,

बिजली सी चमके हाए

ऐसे में बलम मोहे, गरवा लगा ले ….

अब आप साजन नहीं बलम हो गए हैं, बीमारी बढ़ती जा रही है। बदरा, बिजली और चमक अब शरीर में उतर आई है,

और वेद तो आप सांवरिया ही हो। आ गले लग जा।।

जिनको आटे दाल का भाव नहीं पता, उनके लिए होगा लाखों का सावन, और साजन की नौकरी दो टंकियां की, लेकिन उधर, प्यार, बहार, सावन और बरखा से दूर एक सरस्वतीचंद्र भी है, जिसका यह मानना है कि ;

छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए

ये मुनासिब नहीं आदमी के लिए।

प्यार से जरूरी कई काम हैं

प्यार सब कुछ नहीं

आदमी के लिए।।

हमें तो इन सबकी काट शैलेंद्र में ही नजर आती है। सजनवा बैरी हो गए हमार और ;

सजन रे झूठ मत बोलो

खुदा के पास जाना है।

ना हाथी है, ना घोड़ा है

वहां पैदल ही जाना है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 273 ☆ आलेख – लंदन से 9 – डे लाइट सेविंग – मतलब बिना जिए ही गुजर गया जिंदगी का एक घंटा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख डे लाइट सेविंग – मतलब बिना जिए ही गुजर गया जिंदगी का एक घंटा। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 273 ☆

? आलेख – डे लाइट सेविंगमतलब बिना जिए ही गुजर गया जिंदगी का एक घंटा ?

यूके में प्रति वर्ष मार्च महीने के आखिरी रविवार को 1 बजे घड़ियाँ 1 घंटा आगे बढा दी जाती हैं, इस तरह जीवन का एक घंटा बिना जिए ही आगे बढ़ जाता है।

यह वापस प्रति वर्ष अक्टूबर के आखिरी रविवार को 2 बजे 1 घंटा पीछे कर दी जाती हैं। ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि अप्रैल से यहां समर सीजन शुरू हो जाता है जब सूर्योदय जल्दी होने लगता है।

वह अवधि जब घड़ियाँ 1 घंटा आगे होती हैं उसे ब्रिटिश ग्रीष्मकालीन समय (BST) कहा जाता है। शाम को अधिक और सुबह में कम दिन का प्रकाश होता है (जिसे डेलाइट सेविंग टाइम भी कहा जाता है)। इस वर्ष 31 मार्च को आखिरी रविवार था, इसलिए जब मैं सुबह लंदन में सोकर उठा तो इंटरनेट से जुड़े होने के कारण मोबाइल में तो समय अपडेट हो चुका था, पर टेबल पर रखी घड़ी एक घंटे पीछे का टाइम ही बतला रही थी। रात 1 बजे समय को एक घंटा फारवर्ड कर दिया गया था। अब अक्तूबर के आखिरी रविवार अर्थात इस वर्ष 27 अक्तूबर को घड़ी वापस एक घंटा पीछे की जाएंगी। मतलब भारत के समय से जो साढ़े चार घंटे का अंतर यूके के समय का है, वह पुनः साढ़े पांच घंटो का कर दिया जायेगा।

दुनियां के कई देशों में इस तरह की प्रक्रिया अपनाई जाती है।

भारत में डेलाइट सेविंग टाइम का उपयोग नहीं किया जाता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि भूमध्य रेखा के पास स्थित देशों में मौसमों के बीच दिन के घंटों में अधिक अंतर का अनुभव नहीं होता।

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

इन दिनों, क्रिसेंट, रिक्समेनवर्थ, लंदन

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 333 ⇒ कॉमेडी ट्रेजेडी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “कॉमेडी ट्रेजेडी।)

?अभी अभी # 333 ⇒ कॉमेडी ट्रेजेडी? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हमारे जीवन में जो सुख दुख है, साहित्य की भाषा में उसे कॉमेडी ट्रेजेडी ही कहा गया है। हमारा भारतीय दर्शन सुख और आनंद पर आधारित है, उसमें दुख के लिए कोई स्थान नहीं है, इसीलिए हमारी अधिकांश संस्कृत रचनाएं सुखांत ही हैं। ग्रीक ट्रेजेडी के अलावा शेक्सपियर ने सुखांत और दुखांत दोनों नाटकों की रचना की। अनुवाद की मजबूरी देखिए कॉमेडी को अगर हास्य कहा गया है तो ट्रेजेडी को त्रासदी।

हमने सुख और दुख, हास्य और विसंगति को मिलाकर व्यंग्य का सृजन कर दिया। हास्य और करुण दोनों को हमारे आचार्यों ने रस माना है, लेकिन व्यंग्य का नवरस में कोई स्थान नहीं है। आप व्यंग्य को ना तो पूरा हास्य ही कह सकते हैं और ना ही सिर्फ विनोद। लेकिन फिर भी हास्य और विनोद के बिना व्यंग्य अधूरा है।।

व्यंग्य को तो आप कॉमेडी भी नहीं कह सकते, और ट्रेजेडी तो यह है ही नहीं। ले देकर एक शब्द satire है, जो व्यंग्य का करीबी लगता है। साहित्य की विधा होते हुए भी व्यंग्य अपनी अलग पहचान बनाए रखता है। व्यंग्य को हास्य की चाशनी पसंद नहीं, बस, थोड़ा मीठा हो जाए। नशे के साथ चखने की तरह अगर रचना में कुछ पंच हों तो व्यंग्य थोड़ा नमकीन भी हो जाता है।

हास्य कवियों की तरह यहां ठहाके नहीं लगते, पाठक बस या तो मंद मंद मुस्कुराता है, अथवा कभी कभी उसकी हंसी भी छूट जाती है। एक हास्य कविता की तुलना में रवींद्रनाथ त्यागी के व्यंग्य पाठ में श्रोता को अधिक आनंद आता है। जिन पाठकों ने P.G. Wodehouse अथवा मराठी लेखक, पु.ल. देशपांडे को पढ़ा है, वे अच्छी तरह जानते हैं, मृदु हास्य की फुलझड़ी किसे कहते हैं।।

हास्य और विनोद व्यंग्य के आभूषण हैं, उनके बिना व्यंग्य केवल कड़वा नीम है। व्यंग्य करेले के समान कड़वा होते हुए भी, जब मसालों के साथ बनाया जाता है, तो बड़ा स्वादिष्ट लगता है। हमारे देश की राजनीति जितनी मीठी है उतनी ही कसैली भी। रिश्वत, भ्रष्टाचार, अफसरशाही, दलबदल, कुर्सी रेस और कसमों वादों का वायदा बाजार थोक में विसंगति पैदा कर देता है। एक अच्छा व्यंग्यकार जब चाहे, इसकी जुगाली कर सकता है।

थोड़े गम हैं, थोड़ी खुशियां। घर गृहस्थी का झंझट, नौकरी धंधे की परेशानी, तनाव और दुख बीमारी के वातावरण में हम हंसना और ठहाके लगाना ही भूल गए हैं।

अब हमें बच्चों की तरह गुदगुदी नहीं चलती। जीवन में कुछ तो ऐसा हो, जिससे हमारे चेहरे पर हंसी लौट आए, कोई ऐसी व्यंग्य रचना जो हमें कभी गुदगुदाए तो कभी हंसकर ठहाके लगाने पर बाध्य करे। कभी सुभाष चन्दर की अक्कड़ बक्कड़ हो जाए तो कभी समीक्षा तेलंग का व्यंग्य का एपिसेंटर। काश कोई हमारे घर लिफाफे में कविता ही डाल जाए। हंसी खुशी ही तो हमारे जीवन की कॉमेडी है, ग्रीक ट्रेजेडी अलविदा, मैकबेथ, ओथेलो, हेमलेट अलविदा।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 235 – परिवर्तन का संवत्सर ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 235 परिवर्तन का संवत्सर ?

नूतन और पुरातन का अद्भुत संगम है प्रकृति। वह अगाध सम्मान देती है परिपक्वता को तो असीम प्रसन्नता से नवागत को आमंत्रित भी करती है। जो कुछ नया है स्वागत योग्य है। ओस की नयी बूँद हो, बच्चे का जन्म हो या हो नववर्ष, हर तरफ होता है उल्लास,  हर तरफ होता है हर्ष।

भारतीय संदर्भ में चर्चा करें तो हिन्दू नववर्ष देश के अलग-अलग राज्यों में स्थानीय संस्कृति एवं लोकचार के अनुसार मनाया जाता है। महाराष्ट्र तथा अनेक राज्यों में यह पर्व गुढी पाडवा के नाम से प्रचलित है। पाडवा याने प्रतिपदा और गुढी अर्थात ध्वज या ध्वजा। मान्यता है कि इसी दिन ब्रह्मा जी ने सृष्टि का निर्माण किया था। सतयुग का आरंभ भी यही दिन माना गया है।

स्वाभाविक है कि संवत्सर आरंभ करने के लिए इसी दिन को महत्व मिला। गुढीपाडवा के दिन महाराष्ट्र में ब्रह्मध्वज या गुढी सजाने की प्रथा है। लंबे बांस के एक छोर पर हरा या पीला ज़रीदार वस्त्र बांधा जाता है। इस पर नीम की पत्तियाँ, आम की डाली, चाशनी से बनी आकृतियाँ और लाल पुष्प बांधे जाते हैं। इस पर तांबे या चांदी का कलश रखा जाता है। सूर्योदय की बेला में इस ब्रह्मध्वज को घर के आगे विधिवत पूजन कर स्थापित किया जाता है।

माना जाता है कि इस शुभ दिन वातावरण में विद्यमान प्रजापति तरंगें गुढी के माध्यम से घर में प्रवेश करती हैं। ये तरंगें घर के वातावरण को पवित्र एवं सकारात्मक बनाती हैं। आधुनिक समय में अलग-अलग सिग्नल प्राप्त करने के लिए एंटीना का इस्तेमाल करने वाला समाज इस संकल्पना को बेहतर समझ सकता है। सकारात्मक व नकारात्मक ऊर्जा तरंगों की सिद्ध वैज्ञानिकता इस परंपरा को सहज तार्किक स्वीकृति देती है। प्रार्थना की जाती है,” हे सृष्टि के रचयिता, हे सृष्टा आपको नमन। आपकी ध्वजा के माध्यम से वातावरण में प्रवाहित होती सृजनात्मक, सकारात्मक एवं सात्विक तरंगें हम सब तक पहुँचें। इनका शुभ परिणाम पूरी मानवता पर दिखे।” सूर्योदय के समय प्रतिष्ठित की गई ध्वजा सूर्यास्त होते- होते उतार ली जाती है।

प्राकृतिक कालगणना के अनुसार चलने के कारण ही भारतीय संस्कृति कालजयी हुई। इसी अमरता ने इसे सनातन संस्कृति का नाम दिया। ब्रह्मध्वज सजाने की प्रथा का भी सीधा संबंध प्रकृति से ही आता है। बांस में काँटे होते हैं, अतः इसे मेरुदंड या रीढ़ की हड्डी के प्रतीक के रूप में स्वीकार किया गया है। ज़री के हरे-पीले वस्त्र याने साड़ी-चोली, नीम व आम की माला, चाशनी के पदार्थों के गहने, कलश याने मस्तक। निराकार अनंत प्रकृति का साकार स्वरूप में पूजन है गुढी पाडवा।

कर्नाटक एवं आंध्र प्रदेश में भी नववर्ष चैत्र प्रतिपदा को ही मनाया जाता है। इसे ‘उगादि’ कहा जाता है। केरल में नववर्ष ‘विशु उत्सव’ के रूप में मनाया जाता है। असम में भारतीय नववर्ष ‘बिहाग बिहू’ के रूप में मनाया जाता है।  बंगाल में भारतीय नववर्ष वैशाख की प्रतिपदा को मनाया जाता है। इससे ‘पोहिला बैसाख’  यानी प्रथम वैशाख के नाम से जाना जाता है।

तमिलनाडु का ‘पुथांडू’ हो या नानकशाही पंचांग का ‘होला-मोहल्ला’ परोक्ष में भारतीय नववर्ष के उत्सव के समान ही मनाये जाते हैं। पंजाब की बैसाखी यानी नववर्ष के उत्साह का सोंधी माटी या खेतों में लहलहाती हरी फसल-सा अपार आनंद। सिंधी समाज में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ‘चेटीचंड’ के रूप में मनाने की प्रथा है। कश्मीर में भारतीय नववर्ष ‘नवरेह’ के रूप में मनाया जाता है। सिक्किम में भारतीय नववर्ष तिब्बती पंचांग के दसवें महीने के 18वें दिन मनाने की परंपरा है।

सृष्टि साक्षी है कि जब कभी, जो कुछ नया आया, पहले से अधिक विकसित एवं कालानुरूप आया। हम बनाये रखें परंपरा नवागत की, नववर्ष की, उत्सव के हर्ष की। साथ ही संकल्प लें अपने को बदलने का, खुद में बेहतर बदलाव का। इन पंक्तियों के लेखक की कविता है-

न राग बदला, न लोभ, न मत्सर,

बदला तो बदला केवल संवत्सर।

परिवर्तन का संवत्सर केवल काग़ज़ों तक सीमित न रहे। हम जीवन में केवल वर्ष ना जोड़ते रहें बल्कि वर्षों में जीवन फूँकना सीखें। मानव मात्र के प्रति प्रेम अभिव्यक्त हो, मानव स्वगत से समष्टिगत हो।

दो दिन बाद गुढी पाडवा है। सभी पाठकों को शुभ गुढी पाडवा।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ महाशिवरात्रि साधना पूरा करने हेतु आप सबका अभिनंदन। अगली साधना की जानकारी से शीघ्र ही आपको अवगत कराया जाएगा। 🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 332 ⇒ अनुत्तरित प्रश्न… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अनुत्तरित प्रश्न।)

?अभी अभी # 332 ⇒ अनुत्तरित प्रश्न? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जीवन में कुछ समस्याएं ऐसी होती हैं, जिनका हमारे पास कोई हल नहीं होता, कुछ ऐसे प्रश्न होते हैं, जिनका कोई जवाब नहीं होता। आप एक बार अपनी समस्या का तो फिर भी कुछ हल निकाल सकते हैं, लेकिन हर व्यक्ति की परिस्थिति ऐसी नहीं होती। वह तो बस, सवालों में उलझा रहता है।

अब गणित का सवाल ही लीजिए। कल ही एक परिचित की समस्या से रूबरू हुआ। हमारा देश बहुत बड़ा है, जो जहां है, वह अपनी अपनी परिस्थिति से जूझ रहा है। बड़े शहरों में पैसा है, शिक्षा की अच्छी सुविधा है, अच्छे स्कूल, कॉलेज, शिक्षक और कोचिंग इंस्टीट्यूट हैं। लेकिन छोटी जगहों की स्थिति इतनी अच्छी नहीं।

और शायद यही कारण है कि अच्छी शिक्षा और अच्छे भविष्य के लिए हर व्यक्ति बड़े शहरों की ओर चला आ रहा है।।

प्रतिभाएं तो गांव में भी हैं, हर व्यक्ति उठकर शहर चला आए, यह भी समस्या का हल नहीं, तो फिर समस्या क्या है। सवाल आर्थिक स्तर और बौद्धिक स्तर का भी है, उचित मार्गदर्शन का भी है।

जिस परिचित ने मुझे चिंतित कर दिया, वे इंदौर के नहीं, इंदौर के ही पास के राजगढ़ ब्यावरा के हैं, बड़ी बच्ची ने इस साल ग्यारहवीं की परीक्षा दी है।

फोन पर जब हालचाल के साथ बच्ची के रिजल्ट के बारे में पूछा, तो वे अचानक असहज हो गए। बोले इस साल रिपीट करवा रहे हैं। यानी परीक्षाफल अच्छा नहीं निकला। छोटी जगह वैसे भी कौन लड़कियों को ज्यादा पढ़ाता है।।

मैने कुरेदकर पूछा क्या बात है, क्या उसे गणित दिलवा दिया था ? वे बोले, हां यही बात है। वह ठीक से पढ़ नहीं पाई, बारहवीं में फिर परेशानी होगी, इसलिए इस साल रिपीट कर लेगी तो ठीक रहेगा। मैने शहरी ज्ञान बांटने की कोशिश की। उसे ट्यूशन करवाओ, कोचिंग करवाओ, आजकल मां बाप कहां बच्चों को पढ़ा पाते हैं। उसने आर्थिक मजबूरी नहीं, कोचिंग और ट्यूशन के अभाव की मजबूरी का जब जिक्र किया तो मुझे आश्चर्य भी हुआ, और दुख भी।

राजगढ़ ब्यावरा जिला भी है, और वहां शिक्षा का स्तर इतना गिरा हुआ तो नहीं हो सकता, कि पालक अपने बच्चों को ढंग से पढ़ा भी ना सके। आजकल सब कुछ तो ऑनलाइन चल रहा है। लेकिन अगर वास्तविकता में यह सब इतना आसान होता तो पालक अपने बच्चों का भविष्य बनाने उन्हें बड़े शहरों में और कोटा के संस्थान में पढ़ने को क्यों भेजते।।

हर मां बाप की इच्छा होती है, उसकी औलाद अच्छी शिक्षा प्राप्त करे। गणित विज्ञान अगर मजबूत हुआ, तो बच्चों की ना केवल बुनियाद मजबूत होती है, आगे कई रास्ते खुल जाते हैं। मैं यहां दूर बैठकर तो यही सोच सकता हूं, कहां बच्ची को गणित में फंसा दिया। साधारण विषय लेते, तो आसानी से पास तो हो जाती।

और मुझे अपने दिन याद आ गए। गणित से मेरा प्रेम तो आठवीं के बाद ही खत्म हो गया था, साइंस बायोलॉजी भी मुझे बी.एससी. पास नहीं करवा पाया और मैं लौटकर बुद्धू आर्ट्स में चला आया।।

जो खुद डॉक्टर, इंजीनियर नहीं बन पाया, वह क्या किसी का गणित बिठाएगा। यह गणित की समस्या अभी भी वहीं की वहीं है। बच्चों और माता पिता की इस समस्या से किसी को क्या लेना देना क्योंकि इसका हल केवल उनके पास ही है, मुझ जैसे सलाहकार, अथवा किसी स्थानीय नेता के पास नहीं।

जिसकी पढ़ने में रुचि है, उसे कोई पढ़ाने वाला नहीं। शायद यही हमारी आज की शिक्षा की कड़वी सच्चाई है। यही है गांव गांव में, और राजगढ ब्यावरा जैसे जिले में आज पढ़ाई का स्तर। ऐसे कई प्रश्न होंगे, जिनका उत्तर किसी के पास नहीं। बहुत दिनों से वह नारा भी नहीं सुना। लाड़ली बहना और बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 331 ⇒ हृदय परिवर्तन… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हृदय परिवर्तन।)

?अभी अभी # 331 ⇒ हृदय परिवर्तन? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हृदय हमारे शरीर का वह अंग है, जो हमेशा धड़कता ही रहता है। बड़ा नाजुक अंग है यह, हमेशा घड़ी की टिक टिक की तरह, धक धक किया करता है, एक मिनिट में 60 से लगाकर 90 बार तक।

इसमें घड़ी की तरह कांटे नहीं होते, फूल की तरह कोमल होता है यह हृदय, क्योंकि यहां प्रेम का वास है। कहते हैं, आत्मा और परमात्मा दोनों का गुप्त रूप से वास यहीं है।

यह अगर थोड़ा भी छलका, तो प्रेम प्रकट हो जाता है।।

कहां हम और कहां राम भक्त हनुमान, फिर भी हमारे प्रिय भाई मुकेश गलत नहीं कह गए ;

जिनके हृदय श्री राम बसे,

उन, और का नाम लियो न लियो।

हमारे हृदय में कौन विराजमान है, क्या यह जानना इतना आसान है। बोलचाल की भाषा में, यही तो वह दिल है, जो कभी बेचारा, कभी पागल, तो कभी दीवाना है। यही वह जिया है, जो कभी कभी पिया के लिए बेकरार रहता है। कभी सुख चैन, तो कभी बैचेन, यही इस दिल की दास्तान, दिन रैन।।

कहने को छोटा सा दिल, लेकिन कहीं यह विशाल हृदय तो कहीं संग दिल, कोई दिल वाला, तो कोई दिल का मरीज। कितने हृदय रोग विशेषज्ञ तो कितने हृदय सम्राट।

सबके अपने अपने ठाठ।

आज विज्ञान भले ही इस हृदय की एंजियोग्राफी, एंजियोप्लास्ट और बायपास कर ले, कितनी भी चीर फाड़ कर ले, हृदय का प्रत्यारोपण भी कर ले, लेकिन इसकी भावना को छूना किसी चिकित्सक के बस का नहीं।।

सभी का हृदय एक समान धड़कता है, फिर भी सारे इंसान एक जैसे क्यों नहीं होते। यह चित्त क्या बला है, इंसान भला और बुरा क्यों होता है, यह तो सब ज्ञानी ध्यानी जानते हैं, लेकिन क्या किसी बुरे इंसान का हृदय परिवर्तन इतना आसान है।

सुना है, नर सत्संग से, क्या से क्या जो जाए ! अगर ऐसा होता तो शायद महा ज्ञानी शिव भक्त रावण, विभीषण की तरह, प्रभु श्रीराम की शरण में चल जाता। वाल्मीकि पहले डाकू थे, और अंगुलिमाल की तो पूछिए ही मत। कहीं निर्मल मन की बात होती है तो कहीं कुत्ते की पूंछ की।।

काश कोई ऐसी जादू की छड़ी होती कि इधर फिराई और उधर हृदय परिवर्तन, जैसा आजकल राजनीति में देखने में आता है। कल कमलनाथ और आज शिवराज। यथा महाराजा, तथा प्रजा।

सबका साथ, सबका विकास के साथ साथ, कितना अच्छा हो, सबका हृदय परिवर्तन भी हो जाए तो ना ही रहेगा बांस, और ना ही बजेगी अलग अलग सुरों में बांसुरी। बस सिर्फ एक, चैन की बांसुरी ! लेकिन यह क्या, राधिके तूने बंसुरी चुराई ..!!??

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #226 ☆ कामयाबी और सब्र… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख कामयाबी और सब्र। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 226 ☆

☆ कामयाबी और सब्र… ☆

‘कामयाबी हमेशा वक्त मांगती है और वक्त हमेशा सब्र / और यूँ ही चलता रहता है ज़िंदगी का सफ़र।’ सिलसिले ज़िंदगी के चलते रहते हैं और मौसम व दिन-रात यथासमय दस्तक देते रहते हैं। यह समाँ भी रुकने वाला नहीं है। ऐ मानव! तू हादसों से मत डर और अपनी मंज़िल की ओर निरंतर बढ़ता चल। प्रकृति पल-पल रंग बदलती है; समय नदी की भांति निरंतर बहता रहता है। ज़िंदगी में तूफ़ान आते-जाते रहते हैं। परंतु तू बीच डगर मत ठहर और न ही बीच राह से लौट। स

मरण रहे, ‘ज़िंदगी इम्तिहान लेती है/ यह दिलोजान लेती है।’  इसलिए मानव को सफलता पाने के लिए निरंतर कर्मशील रहना चाहिए। सफलता ख़ैरात नहीं; उसे पाने के लिए मानव को स्वयं को निरंतर श्रम की भट्ठी में झोंकना पड़ता है, क्योंकि परिश्रम का कोई विकल्प नहीं होता। जो व्यक्ति केवल अपनी मंज़िल पर लक्ष्य साध कर जीता है, उसकी राहों में कोई आपदा व बाधा उपस्थित नहीं हो सकती।

सफलता कोई सौगा़त नहीं, जो दो दिन में आपकी झोली में आकर गिर जाए। उसे पाने के लिए परिश्रम करना पड़ता है, झुकना पड़ता है और  सुख-सुविधाओं का त्याग करना पड़ता है। जो व्यक्ति इन रेतीली, कंटीली, पथरीली राहों पर चलना स्वीकार लेता है तथा असफलता को अनुभव के रूप में अपना लेता है; वह एडीसन की भांति सफलता के झंडे गाड़ देता है। बल्ब का आविष्कार करते हुए उसे अनेक बार असफलता का सामना करना पड़ा। दोस्तों ने उसे उस राह को त्यागने का मशविरा दिया, परंतु उसने आत्मविश्वास-

पूर्वक यह दलील दी कि उसे अब इन प्रयोगों में पुनः अपना समय नष्ट नहीं करना पड़ेगा। सो! वह मैदान-ए-जंग में डटा रहा और बल्ब का आविष्कार कर उसने नाम कमाया।

कामयाबी प्राप्त करने के लिए जहाँ वक्त की आवश्यकता होती है, वहीं वक्त को सब्र की अपेक्षा रहती है। जिस व्यक्ति में संतोष का भाव है, उतावलापन नहीं है; जो हर बात पर तुरंत प्रतिक्रिया नहीं देता और धैर्यपूर्वक अपने कार्य को अंजाम देता है; गीता के निष्काम कर्म को धारण करता है; अतीत में नहीं झाँकता– सदैव उज्ज्वल भविष्य की ओर अग्रसर रहता है।

अतीत कभी लौटता नहीं और भविष्य कभी आता नहीं। इसलिए वर्तमान में जीना श्रेयस्कर है, क्योंकि भविष्य भी सदैव वर्तमान के रूप में दस्तक देता है। ‘आगे भी जाने ना तू/ पीछे भी जाने ना तू/ जो भी बस यही एक पल है/ तू पूरी कर ले आरज़ू।’ इंसान को हर लम्हे की कद्र करनी चाहिए। गुज़रा वक्त लौटता नहीं और अगली साँस लेने के लिए हमें पहली साँस का त्याग करना पड़ता है– यह प्रकृति का नियम है, जो त्याग के महत्व को दर्शाता है। ‘जो बोओगे, सो काटोगे और कर भला, हो भला’ भी हमें यह सीख देते हैं कि मानव को सदैव सत्कर्म करने चाहिए, क्योंकि ये मुक्ति की राह दर्शाते हैं।

सब्र वह अनमोल हथियार है, जो मानव को फ़र्श से अर्श पर पहुंचाने की सामर्थ्य रखता है। आत्मविश्वास व आत्मसंतोष सफलता के सोपान हैं; जो उसे जीवन में कभी मात नहीं खाने देते। बचपन से मैंने आत्मविश्वास व आत्मसंतोष को धरोहर के रूप में संजोकर रखा और जो मिला उसे प्रभु की  सौग़ात समझा। यह शाश्वत् सत्य है कि समय से पहले और भाग्य से अधिक व्यक्ति को कुछ भी प्राप्त नहीं होता। सो! अधिक की कामना व कल की चिन्ता करना व्यर्थ है। सृष्टि का चक्र नियमित रूप से निरंतर चलता रहता है और समय से पूर्व कोई कार्य सम्पन्न नहीं होता। यह सोच हमें आत्माववलोकन व दूसरों में दोष देखने की घातक प्रवृत्ति से बचने का का संदेश देती है। कबीरदास के ‘बुरा जो देखन मैं चला, मोसे बुरा ना कोय’ के माध्यम से मानव को अंतर्मन में झाँकने की सीख दी गयी हैं। मानव ग़लतियों का पुतला है। बुद्धिमान लोग दूसरों के अनुभव सीखते हैं और मूर्ख लोग अक्सर अपने अनुभव से भी नहीं सीखते। वेमात्र दूसरों की आलोचना कर सुक़ून पपाते हैं।

सब्र और  सुक़ून का गहन संबंध है और चोली दामन का साथ है। यह दोनों अन्योन्याश्रित हैं और एक के बिना दूसरा अस्तित्वहीन है। जहाँ सब्र है, अधिक की इच्छा नहीं; वहाँ सुक़ून है। सुकून वह मानसिक स्थिति है, जहाँ आनंद ही आनंद है। सब ग़िले-शिकवे समाप्त हो जाते हैं; राग-द्वेष का शमन हो जाता है और इंसान पंच विकारों से ऊपर उठ जाता है। वहाँ अनहद नाद के स्वर सुनाई पड़ते हैं। यह अलौकिक आनंद की स्थिति है, जहाँ मानव संबंध-सरोकारों से ऊपर उठ जाता है, क्योंकि उसके हृदय में दैवीय वृत्तियों का वास हो जाता है।

इंसान कितना भी अमीर हो जाए, वह तकलीफ़ बेच नहीं सकता और सुक़ून खरीद नहीं सकता। इसलिए संसार में सबसे खुश वे लोग रहते हैं, जो यह जान चुके हैं कि दूसरों से किसी भी तरह की उम्मीद रखना व्यर्थ है, बेमानी है। यह मानव को अंधकूप में ले जाकर पटक देती है। यह निराशा की कारक है। सो! मानव को अपनी ग़लती मानने में संकोच नहीं होना चाहिए, क्योंकि सामने वाला सदैव ग़लत नहीं होता। जो लोग स्वयं को सदैव ठीक स्वीकारते हैं; उन्नति के मार्ग पर अग्रसर नहीं हो सकते, क्योंकि वे अहंवादी हो जाते हैं और अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। सो! मानव में यदि अहं का भाव घर कर जाता है कि ‘अहंकार किस बात का करूँ मैं/ जो आज तक हुआ है/ सब उसकी मर्ज़ी से हुआ है।’

ज़रूरत से ज़्यादा सोचना भी इंसान की खुशियाँ छीन लेता है और समय बीत जाने के बाद यदि उसकी कद्र की जाए, तो वह कद्र नहीं, अफ़सोस कहलाता है। कबीरदास जी ने भी ‘अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत’ के माध्यम से मानव को सचेत रहने का संदेश दिया है। कोई भी आदत इतनी बड़ी नहीं होती, जिसे आप छोड़ नहीं सकते। बस अंदर से एक मज़बूत फैसले की ज़रूरत होती है। इसलिए मन पर नियंत्रण रखें, क्योंकि दुनिया की कोई ताकत आपको झुका नहीं सकती। ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत’–जी हाँ! इंसान स्वयं अपने मन का स्वामी है। जब तक मानव अपनी सुरसा की भांति बढ़ती आकांक्षाओं पर अंकुश नहीं लगा पाता; वह अधर में लटका रहता है तथा कभी भी अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिए इंसान को अपनी नज़रें आकाश की ओर तथा कदम धरती पर टिके रहने चाहिए। यही जीवन की पूंजी है; इसे संजोकर रखें ताकि जीवन में सब्र व सुक़ून क़ायम रह सके और हम दूसरों के जीवन को आलोकित व ऊर्जस्वित कर सकें।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

23 फरवरी 2024**

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 330 ⇒ मन अव चे तन… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मन अव चे तन।)

?अभी अभी # 330 ⇒ मन अव चे तन? श्री प्रदीप शर्मा  ?

तन और मन जहां है, वहां चेतन है। कोरा शरीर तो जड़ मात्र ही है, मन प्राण ही तो चेतन है। Animate चेतन है, unanimate जड़ है। प्राण तो पौधों वनस्पति में भी होते हैं, क्या उनमें भी मन होता है। चेतन तत्व तो कीट पतंग, पशु पक्षी सभी में होता है, वहां तन भी है और प्राण भी, लेकिन मन रूपी उपहार अथवा वरदान ईश्वर ने शायद सिर्फ मनुष्य को ही प्रदान किया है।

चेतना को संज्ञा भी कहते हैं। संज्ञा से ही संज्ञान शब्द बना है। ज्ञान ही बोध है, बोध ही बुद्धि है। मान न मान, इस दुनिया में केवल मनुष्य ही बुद्धिमान है।।

जब तक आप जागते हैं, आपको इस जगत का भान रहता है, लेकिन जैसे ही आप नींद के आगोश में चले जाते हैं, आपके लिए यह जगत, उस समय के लिए विलीन हो जाता है। गहरी नींद में तन और मन दोनों विश्राम करते हैं। लेकिन श्वास प्रश्वास का क्रम निरंतर चलता रहता है। ईश्वर द्वारा शरीर में लगाई गई यह टाइम मशीन है प्राण, जो हर पल छिन, टिक टिक नहीं, लगातार धक धक करती रहती है।

मुख्य रूप से चेतन मन की तीन अवस्थाएं होती हैं, चेतन, अवचेतन एवं अचेतन। conscious, semi conscious & unconscious जिसे आप जागृत, सुषुप्ति और अचेतावस्था भी कह सकते हैं। हम यहां सिर्फ अवचेतन मन की चर्चा कर रहे हैं। वैसे

आध्यात्मिक जगत में चेतना के कई सूक्ष्म स्तर होते हैं।।

हमारा चेतन मन जागृत अवस्था में संकल्प विकल्प करता है, जब कि स्वप्न में हमारी चेतना शून्य हो जाती है, और अवचेतन मन ड्यूटी पर उपस्थित हो जाता है। अवचेतन मन में अतीत की स्मृति, दबी हुई इच्छा, वासनाएं, महत्वाकांक्षाएं, हर्ष, विषादऔर भय की अवस्था एक ऐसे स्वप्न संसार की रचना करती है, जिसे हम सच मान बैठते हैं। वहां हमारी बुद्धि घास चरने जाती है, हमारा अपने मन पर और होने वाली घटनाओं पर कोई वश नहीं रहता। बस फिल्म देखते रहें, और जब नींद खुली, सपना समाप्त, खेल खतम, पैसा हजम।

जब स्वप्न रुचिकर होते हैं तो हमें अच्छे लगते हैं लेकिन जब अरुचिकर और डरावने होते हैं तो जागने के बाद हम असहज महसूस करते हैं। चित्त की अवस्था के अनुसार ही तो स्वप्न भी आएंगे। निर्मल मन और चित्त शुद्ध हो तो आपको ईश्वर और सद्गुरु दर्शन भी हो सकते हैं। कभी कभी स्वप्न में शुभ संकेत भी मिलते रहते हैं।।

मन के बारे में सूरदास जी का कहना है ;

मेरो मन अनत कहां सुख पावै।

जैसे उड़ि जहाज कौ पंछी पुनि जहाज पै आवै॥

लेकिन स्वप्न वाले अवचेतन मन को सुधि लोग मिथ्या ही घोषित करते नजर आते हैं। सपने देखना अच्छी बात नहीं लेकिन कल स्वप्न में अगर मेरी स्व.लता जी से बात हो गई, तो मेरा तो जीवन सफल हो गया। लोग सपने में भी जो सोच नहीं सकते, हमने वह स्वप्न आखिर देख ही लिया।

हम जानते हैं आपको तो हमारा सपना भी सच नजर नहीं आएगा, लेकिन सपने में हम कहां अपने आपे में रहते हैं। हमें भी भरोसा नहीं हुआ, यह सच है अथवा सपना। लेकिन जब जागे तब पता चला, यह एक दुर्लभ सुखद सपना ही था।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #208 ☆ आलेख – पेपर लीक.? नकल ठीक..? ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख पेपर लीक.? नकल ठीक..?आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 208 ☆

☆ आलेख – पेपर लीक.? नकल ठीक..? ☆ श्री संतोष नेमा ☆

भारत में पेपर लीक होना और नकल करना आम होता जा रहा है आये दिन चाहे शालेय परीक्षाएं हों या प्रतियोगी परीक्षाएं हर तरफ से, नकल, एवं पेपर लीक की खबरें सुनाई एवं दिखाई दे रही हैँ.! ऐसा लगता है मानो प्रशासन को इन विद्यार्थियों एवं परीक्षार्थियों की कितनी चिंता है तभी तो नकल करने की सारी सुविधाएं उपलब्ध नजर आती है.! कैसे जिम्मेदार अधिकारी परीक्षा के पूर्व पेपर लीक कर देते हैं.? अब इससे बड़ा समर्थन/ सहयोग क्या हो सकता है.? वैसे भी तमाम मेधावी छात्र आरक्षण के दंस से पीड़ित हैँ.!

नकल कराने के दृश्य देख कर तो आप भी दांतो तले अंगुली दबा लेंगे.? ना जाने नकल करने वालों से कहीं ज्यादा नकल कराने वालों को इतना पराक्रम और युक्ति कहां से आ जाती है.? जो दो-तीन मंजिला मंजिला भवनों की, दीवारों पर आसानी से खड़े होकर खिड़की के माध्यम से लाभार्थी को नकल पहुंचा देते हैं.! हम तो उनके इस पराक्रम को प्रणाम करते हैं.! नीचे सुरक्षा अधिकारी पुलिस और दीवारों पर नकल कराने वाले.! मजाल है कोई अपनी जगह से हिले.! वाह री व्यबस्था.! अब इन मीडिया वालों को कौन समझाए.? इनके पेट में बहुत जल्दी दर्द होने लगता है.! अब जब दर्द हो ही गया है तो कुछ तो इलाज करना ही पड़ेगा ना .! मीडिया जब भी ऐसे प्रकरण सामने लाता है तब तब प्रशासन ऐसा मेहसूस, कराता है कि मानो ऐसे प्रकरण पहली बार उनकी जानकारी में आए हों.! ऐसा नहीं है कि इन प्रकरणों की जानकारी नेताओं को नहीं होती.! वह तो जागते हुए भी सो जाते हैं.! और जब उन्हें जगाने का काम किया जाता है तब तक तमाम प्रतियोगी छात्रों का भविष्य खतरे की भेंट चढ़ जाता है.! हर राज्यों में भरतियों के पेपर लीक होना आम सा हो गया है.! जिससे युवाओं के सपने चकनाचूर हो जाते हैं, परीक्षाएं निरस्त हो जाती है, उम्मीदें टूट जाती हैँ, पर जिम्मेदारों को इससे क्या लेना देना  वह तो बस अपने सपने पूरे करने में लगे रहते हैं.? लगे भी क्यों ना रहें सबको अपने सपने पूरा करने का अधिकार जो है..!

अभी जबलपुर विश्वविद्यालय का हाल ही देख लो जो नियत तिथि को परीक्षा कराना ही भूल गया.? अब परीक्षार्थी दूर दराज से परीक्षा देने पहुँचे तो वहां के हाल देखकर भोचक्के रह गए.?

एक सवाल जहन में यह भी उठता है कि आखिर छात्र या प्रतिभागी नकल पर ही आश्रित क्यों हो रहे हैं.? क्या यह किताबी बोझ है  .? या कहीं ना कहीं हमारी परीक्षा प्रणाली का दोष है..!, जो कुछ भी हो सरकार से कुछ भी छिपा तो नहीं है  .?, क्या हमारी शिक्षा  सिर्फ नौकरी तक ही सीमित रह गई है.! हर छात्र का अंतिम उद्देश्य आज तो यही नजर आता है कि एन केन प्रकारेण उसे नौकरी हासिल हो जाए.! वह इसे ही अपनी कामयाबी मानकर चलता है.! जबकि मूलतः शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ नौकरी तक ही सीमित नहीं है.! इस एकांगी शिक्षा पर आखिर कौन विचार करेगा.?

आज आलम यह है कि तमाम राज्य सरकारों द्वारा प्रायोजित प्रतियोगी परीक्षाओं में पेपर लीक होना या खुलेआम नकल करने की प्रवृत्ति में वृद्धि होना जैसे आम सा हो गया है जिसकी परिणति पेपर का निरस्तीकरण है.! जिसका खामियाना प्रतियोगी छात्रों को भुगतना पड़ता है जिनमे उत्तर प्रदेश, बिहार झारखंड, तेलंगाना, राजस्थान जैसे राज्यों में अक्सर ऐसे प्रकरण सुनाई देते हैं.! जब ऐसे प्रकरण सामने आते हैं तब सरकारों द्वारा यह कहना कि हम कठोर नियम बनाएंगे.! मतलब जब आग लगेगी तब हम कुआं खोदेंगे.? नियम तो नकल विरोधी या पेपर लीक होने के, पूर्व से ही हैँ, सिर्फ जरूरत है उन पर शक्ति से अमल करने की और उसके लिए जरूरत है इच्छा शक्ति की जो सरकारों में कम ही नजर आती है.! एक बड़े नेता ने कहा कि, पेपर लीक एवं नकल जैसे प्रकरण छात्रों के लिए अभिशाप है हम भरती प्रक्रिया में पारदर्शिता लाएंगे एवं व्यवस्था में सुधार करेंगे.! स्वागत योग्य एवं अच्छी बात है.! पर पिछले अनेक वर्षों से देश में उनकी ही सरकारें थीं जिन राज्यों में ऐसे प्रकरण सामने आए उनमें भी उनकी ही सरकारें रहीं पर जो कुछ भी घटित हुआ वह हमारे सामने है.!  यहां सवाल यह नहीं की किसकी सरकारें थीं सवाल यह है कि जो भी सरकारें रहीं या हैँ  वह इस दिशा में  क्या ठोस कर पा रही है.?

नकल पर लगाम न लगा सकने के कारण अब परीक्षा प्रणाली में सुधार कर, किताब के साथ परीक्षा देने की (विथ दी ऐड ऑफ बुक) तैयारी में सरकारें लगी हुई है.! मतलब साफ है कि नकल रोकना भी अब मुश्किल होता जा रहा है.!

छात्रों को पाठ्यक्रम के साथ समुचित नैतिक शिक्षा देना भी आज के दौर में अत्यंत आवश्यक हो गया है.! ताकि नकल जैसी प्रवृत्तियों पर रोक लग सके.! गौरतलब है कि परीक्षा पेपर प्रिंटिंग  एवं परिवहन का काम निजी एजेंसियों के हाथ में होने से भी पेपर लीक जैसी घटनायें सामने आती हैँ.! देर से ही सही केंद्र सरकार पेपर लीक पर लगाम लगाने के लिए एक नया विधेयक अनुचित साधनों की रोकथाम) 2024 है. को लाने की तैयारी में है.!  अन्धेरा है बड़ा घनेरा.! जब जागो तभी सबेरा.!! वरना हालातों को देख कर तो यही लगता है ” पेपर लीक.! नकल ठीक..!!

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 7000361983, 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 189 ☆ दीवट पर जलते घी के दीये… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “दीवट पर जलते घी के दीये…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 189 ☆ दीवट पर जलते घी के दीये

शब्दों का प्रयोग ही व्यवहार को  निर्धारित करता है । जब कोई हमारे लिए अनुपयोगी हो जाता है तो उसे संकेतों द्वारा समझाया जाता, फिर कटु शब्दों का प्रयोग, फिर उपेक्षात्मक व्यवहार किया जाता है , इतने पर  भी यदि सामने वाला आपकी बात नहीं समझता तो सीधे शब्दों में उसे  निर्रथक बता कर  अलग कर दिया जाता है । इस सबसे बचने का केवल एक उपाय है निरंतर स्वयं को अपडेट करते रहें, उपयोगी बनें अपनी सामर्थ्य के अनुसार ।

अपने भविष्य को सुधारने की  चाहत में हम आज को जीना छोड़ देते हैं जिससे एक- एक कर  उम्मीद के दरवाजे बंद होने लगते हैं और हम एक मोहरा बन कर जीने को मजबूर हो जाते हैं, इसलिए कोई न कोई हॉबी होना चाहिए जिससे  जीवन में उत्साह बना रहेगा व लक्ष्य निर्धारण में सुगमता होगी ।

सब्र का फल मीठा होता है  किन्तु  ये फल उनको ही मिलता है जो कर्मयोगी होते हैं ।  बिना कार्य किये  आलसी की तरह जीवन बिताने से कैसे बदलाव होगा, ध्यान रखें परिश्रम कभी व्यर्थ नहीं जाता है।सीखने – सिखाने की प्रक्रिया के सहभागी  बनें तथा  प्रेरक बन कर दूसरों का मार्गदर्शन करने के गुणों का विकास करते रहें ।

कार्य करना बहुत आसान होता है किन्तु उसे नियमित करना बहुत मुश्किल क्योंकि मनुष्य का स्वभाव महत्वाकांक्षी होता है, उसे जल्दी ही सब कुछ पा जाने की चाहत होती है । मुफ्त में कुछ मिलेगा तो वो स्थायी  नहीं  रह पायेगा । आपको अपनी योग्यता के  आधार पर  वस्तुओं का उपयोग करना चाहिए ।

क्रोध के मूल में लालच का वास  होता है जिससे व्यक्ति चिड़चिड़ा हो जाता है , उसकी प्रवृत्ति अधीर,  हिंसक, कपटी होने लगती है और जल्दी ही वो अपनों से दूर हो काल्पनिक दुनिया में जीने लगता है ।

इस सब से बचने हेतु  मात्र एक ही उपाय है किसी परम शक्ति के प्रति पूर्ण निष्ठा का भाव, श्रद्धा जब हृदय में  होगी तब अनजाने में भी व्यक्ति कोई गलती नहीं करेगा क्योंकि उसकी मूल प्रवृत्ति अहिंसक   होगी ।

सबकी समस्याओं को निपटाना व उनके कार्यों का निरीक्षण करना बहुत सरल कार्य है पर नेतृत्व करते हुए  सबको जोड़कर अनुशासित रखना उतना ही कठिन । लोगों की महत्वाकांक्षा  उन्हें विचलित करती रहती है , बिना कुछ किये सब कुछ पाने की इच्छा उनकी प्रगति में सबसे बड़ा रोड़ा होती है ।

एक विशाल भवन स्तंभों पर खड़ा होता है यदि हर पिलर टूट कर गिरने लगेगा तो कब तक उसे  अस्थायी खम्भों के सहारे बचाया जा सकता है । भवन की मजबूती के लिए मजबूत स्थायी स्तम्भों का होना बहुत जरूरी होता है ।

नींव की महत्ता को जब तक पहचाना नहीं जायेगा तब तक प्राकृतिक आपदाओं से भवन की सुरक्षा  संभव नहीं ।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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