हिन्दी साहित्य ☆ कथा-कहानी ☆ लघुकथा – नशा ☆ सुश्री ऋतु गुप्ता

सुश्री ऋतु गुप्ता

 

(प्रस्तुत है सुश्री ऋतु गुप्ता जी की एक ऐसे  लघुकथा जिसमें एक सामाजिक बुराई का अंत दर्शित करने का सफल प्रयास किया गया है। नशे की लत विशेष कर हमारे समाज के  निम्न – मध्यम वर्ग के परिवार को खोखला करते जा रही है। हालांकि मध्यम  एवं उच्च वर्ग के कुछ परिवार व बच्चे भी इसके अपवाद नहीं हैं । वीक एन्ड पार्टियां, बैचलर पार्टियां और न जाने क्या क्या।? एक  विचारणीय लघुकथा।)

☆ लघुकथा – नशा ☆

हर रोज की तरह वह आज भी दारू पी कर आया था। लेकिन आज झगड़ा नहीं कर रहा था। वरन् शांत था। आज जब घरवाली ने खाना दिया तो न चिल्लाया न मीन मेख ही निकाली। उसने पूछा, “क्या बात है, आज कम मिली है?” वह व्यंग्यात्मक लहजे में बोले जा रही थी पर आज रमेश कुछ भी उत्तर नहीं दे रहा था। आज बच्चे माँ-बाप सब अचम्भे में थे। आज कोई डरा हुआ नहीं था। बच्चे सहम कर चिपके हुए नहीं थे।

..चुपचाप खाना खा वहीं बरामदे में पड़ी चारपाई पर लेट गया व थोड़ी देर बाद ही नींद आ गई। कड़ाके की ठंड थी। सबने खूब जगाया ताकि अंदर सुला सके। नशे की वजह से वह गहरी नींद में था नहीं उठा वहीं उसके ऊपर रजाई ढांप दी। सब अपने बिस्तरों में जाकर सो गये। सुबह 5 बजे जब माँ उठी तो देखा वह बिना ओढे जमीन पर सोया पड़ा है। खूब उठाया मगर टस से मस नहीं हुआ। तब सब घबरा गये। क्योंकि इतनी देर बाद तो नशा भी उतर जाता है।

..डॉक्टर को बुलाया पूरे चेकअप के बाद जो उसने उत्तर दिया सब बिलख-बिलख रोने लगे। उसने बताया, “ठंड में ज्यादा देर जमीन पर लेटे रहने से खून जम गया है व हार्ट ने काम करना बंद कर दिया है। इसे मरे तकरीबन एक घंटा हो चुका है। “सब रो-रो कर अफसोस जाहिर कर रहे थे कि हम में से किसी को पास सोना चाहिए था, इतना समझाते थे कि हमारी तरफ तो देख हमारा क्या होगा तू इतनी मत पिया कर। अगर सुन लेता तो आज हमें….।

© ऋतु गुप्ता, दिल्ली

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 20 ☆ लघुकथा – पागल नहीं हैं हम ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक लघुकथा  “पागल नहीं हैं हम”।  यह लघुकथा  हमें स्त्री जीवन की संवेदनाओं से रूबरू कराती हैं ।  जब किसीआतंरिक पीड़ा की अति हो या सहनसीमा के पार हो जावे तो  मानवीय संवेदनाएं और जुबान दोनों सीमायें लांघ जाती हैं।  डॉ ऋचा जी की रचनाएँ अक्सर  सामाजिक जीवन के कटु सत्य को उजागर करने की अहम्  भूमिकाएं निभाती हैं । डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 20 ☆

☆ लघुकथा – पागल नहीं हैं हम 

पुणे से वाराणसी जानेवाली ट्रेन का स्लीपर कोच। एक औरत सीधे पल्ले की साड़ी पहने, घूँघट काढ़े, गोद में नवजात शिशु को लिए ऊपरवाली बर्थ पर बैठी थी। नीचे की बर्थ पर शायद उसका पति, ३-४ साल की एक बेटी और सास बैठी थी। ट्रेन प्लेटफार्म से चल चुकी थी। यात्री अपना-अपना सामान बर्थ के नीचे लगा रहे थे। गर्मी का समय था, ट्रेन चली तो सबको थोड़ी राहत महसूस हुई। यात्री ट्रेन में चढ़ने की आपाधापी से निश्चिंत हुए ही थे कि तभी किसी को मारने की आवाज आई। साथ में विरोध का दबा सा स्वर- “काहे मारत हो हमका ? का बिगारे हैं तुम्हारा ?”

“ससुरी जबान चलावत है”, यह कह उसके एक थप्पड और जड दिया। औरत झुंझलाती हुई मुँह मोड़कर बैठ गई। यात्री कुछ समझते इससे पहले ही वह आदमी सीट पर बैठ अपनी माँ से बात करने लगा जैसे कुछ हुआ ही ना हो। माँ को पिटते देख बेटी सहम कर खिड़की से बाहर देखने लगी।

वह औरत इतना लंबा घूँघट काढ़े थी कि उसका चेहरा दीख ही नहीं रहा था। थोड़ी देर बाद वह बैठे-बैठे ही सोने लगी। नींद में उसका सिर इधर-उधर लुढ़क रहा था। बीच-बीच में वह बच्चे को थपकती जाती। उसका एक हाथ बच्चे को निरंतर संभाले हुए था। इतने में वह आदमी उठा और उसने अपनी पत्नी का सिर पकड़कर झिंझोड़ दिया- “हरामजादी सोवत है ? बच्चा गिर जाई तो। पागल औरत बा ई। अम्मा ! हमार किस्मत फूट गई।” अम्मा भी लड़के के साथ सुर में सुर मिलाकर बहू को कोसने लगी।

परिवार का आपसी मामला समझ लोग चुप थे लेकिन वातावरण बोझिल हो गया था।

रात के लगभग नौ बजे थे। लोग सोने की तैयारी कर रहे थे। कुछ ने तो सोने के लिए बत्तियाँ भी बुझा दी थीं। इतने में छीना-झपटी और मारपीट जैसी आवाजें सुनाई देने लगी। बंद बत्तियाँ फिर जल उठीं। लोगों ने देखा वह आदमी अपनी पत्नी की गोद से बच्चे को छीन रहा था। औरत घबराई हुई बच्चे को छाती से कसकर चिपकाए थी। छीना-झपटी में बच्चा भी घबराकर रोने लगा। इस जोर जबरदस्ती में औरत का घूँघट हट गया। उसका चेहरा  मारपीट की दास्तान बयान कर रहा था। आसपास के लोगों को जगा देख उस औरत में भी हिम्मत आ गई। वह चिल्लाने लगी – “ना देब बच्ची का। टरेन से फेंक देबो तो ? कहत हैं मेहरारू पागल है। अरे ! हम पागल नहीं हैं। तू पागल, तोहरी अम्मा पागल। दूसरी लड़की पैदा भई, तो का करी, फेंक देइ कचरे में ? तुम्हारे हाथ में दे देई गला घोंटे के बरे…………..”

स्लीपर कोच की बत्तियां जली रह गईं।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 35 – वज़ूद ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक व्यावहारिक लघुकथा   “वज़ूद  । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  #35☆

☆ लघुकथा – वजूद ☆

सविता ने पति के जीते जी कभी घर से बाहर  कदम नहीं रखा था पर अब क्या कर सकती थी ? घर में खाने को दाना नहीं था और भूखे मरने की नौबत आ गई थी .

तभी बाहर से किसी ने आवाज दी, “सविता भाभी ! आप बुरा न माने तो एक बात कहू ?” डरते-डरते मनरेगा के सचिव ने पूछा – “कहो भैया !” शंका-कुशंका से घिरी सविता बोली तो सचिव ने कहा, “भाभी! मनरेगा के तहत वृक्षारोपण हो रहा है यदि आप चाहे तो इस के अंतर्गत पौधे लगा कर कुछ मजदूरी कर सकती है.”

अंधे को क्या चाहिए, दो आँख. सविता की मंशा पूर्ण हो रही थी. वह झट से बोली “क्यों नहीं भैया, मजदूरी करने में किस बात की शर्म है” यह कहते हुए सविता काम पर चल दी.

वह आज मनरेगा की वजह से अपना वजूद बचा पाई थी. अन्यथा वह अपने पड़ोसी के जाल में फंस जाती जो उस की अस्मिता के बदले मजदूरी देने को तैयार था.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 6 ☆ कथा-कहानी ☆ नेत्रार्पण ☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा। अब आप प्रत्येक मंगलवार को मेरी रचनाएँ पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है एक कहानी “नेत्रार्पण” जो वास्तविक घटना पर आधारित है।)

मेरा परिचय आप निम्न दो लिंक्स पर क्लिक कर प्राप्त कर सकते हैं।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 6

☆ कथा कहानी  – नेत्रार्पण ☆

समय बीतते समय ही नहीं लगता। आज अर्पणा दीदी की पहली बरसी है। पंडित जी ने हवन कुंड की अग्नि जैसे ही प्रज्ज्वलित की अंजलि अपनी आँखों को अपनी हथेलियों से छिपाकर ज़ोर से बोली – “बुआ जी। हवन की आग से मेरी आँखें जल रही हैं। और वह दौड़ कर मुझसे लिपट गई।

सबकी आँखें बरबस ही भर आईं।  माँजी तो दीदी को ज़ोर से पुकार कर रो पड़ीं। अंजलि ने मेरी ओर सहम कर देखा। उसकी करुणामयी याचना पूर्ण दृष्टि मुझे गहराई तक स्पर्श कर गई।  उसके नेत्रों की गहराई में छिपी वेदना ने मेरी आँखों में उमड़ते आंसुओं को रोक दिया। ऐसा लगा कि- यदि मेरी आँखों के आँसू न रुके तो अंजलि अपने आप को और अधिक असहाय समझने लगेगी। और उसकी इस असहज स्थिति की कल्पना मात्र से मुझे असह्य मानसिक वेदना होने लगी।

अंजलि की आँखें पोंछते हुए उसे अपने कमरे में ले जाती हूँ। कमरे में आते ही वह मुझसे लिपट कर रो पड़ती है। मैं भी अपनी आँखों में आए आंसुओं के सैलाब को नहीं रोक सकी।

जब अंजलि कुछ शांत हुई तो उसे पलंग पर बैठा कर दरवाजे के बाहर झाँककर देखा। माँजी, भैया, भाभी और निकट संबंधी पूजा-अर्चन में लगे हुए थे। भैया की दृष्टि जैसे ही मुझपर पड़ी तो उन्होने संकेत से समझाया कि मैं अंजलि का ध्यान रखूँ। मैं चुपचाप दरवाजा बंद कर अंजलि की ओर बढ़ जाती हूँ।

अंजलि की आँखें अधिक रोने के कारण लाल हो गईं थी। उसकी आँखें पोंछकर स्नेहवश उसके कपोलों को अपनी हथेलियों के बीच लेकर कहती हूँ- “अंजलि! देखो, मैं हूँ ना तुम्हारे पास। अब बिलकुल भी मत रोना।“

“बुआ जी, मेरा सिर दुख रहा है।“

“अच्छा तुम लेट जाओ, मैं सिर दबा देती हूँ।“

अंजलि अपनी पलकें बंद कर लेटने की चेष्टा करने लगी। मैंने देखा कि उसका माथा गर्म हो चला था। धीरे-धीरे उसका सिर दबाने लगती हूँ ताकि उसे नींद आ जाए। सिर दबाते-दबाते मेरी दृष्टि अर्पणा दीदी के चित्र की ओर जाती है।

वह आज का ही मनहूस दिन था, जब दीदी को दहेज की आग ने जला कर राख़ कर दिया था। विवाह हुए बमुश्किल छह माह ही तो बीते थे। आज ही के दिन खबर मिली कि अर्पणा दीदी स्टोव से जल गईं हैं और अस्पताल में भर्ती हैं। माँजी तो यह सुनते ही बेहोश हो गईं थी।

उस दिन जब मृत्यु शैया पर दीदी को देखा तो सहसा विश्वास ही नहीं हुआ कि ये मेरी  अर्पणा दीदी हैं। हंसमुख, सुंदर और प्यारी सी मेरी दीदी। दहेज की आग ने कितनी निरीहता से दीदी के स्वप्नों की दुनियाँ को जलाकर राख़ कर दिया था। सब कुछ झुलस चुका था। उस दिन मैंने जाना कि जीवन का दूसरा पक्ष कितना कुरूप और भयावह हो सकता है।

अचानक खिड़की के रास्ते से आए तेज हवा के झोंके से मेरी तंद्रा टूटी। मैंने देखा अंजलि सो गई है। किन्तु, पलकों के भीतर उसकी आँखों की पुतलियाँ हिल रही हैं। ठीक ऐसे ही आँखों की पुतलियों की हलचल उस दिन मैंने दीदी की पलकों के भीतर महसूस की थीं। डॉक्टर ने उन्हें नींद का इंजेक्शन दे कर सुला दिया था। किन्तु, उनकी पलकों के भीतर पुतलियों की हलचल ऐसे ही बरकरार थीं। चिकित्सा विज्ञान में इस दौर को रिपीट आई मूवमेंट कहा जाता है। अनुसंधानकर्ताओं का मत है कि- मनुष्य इसी दौर में स्वप्न देखता है। वे निश्चित ही कोई स्वप्न देख रहीं थीं। कोई दिवा स्वप्न? न जाने कौन सा स्वप्न देखा होगा उन्होने?

मैं उठकर मेज के पास रखी दीदी की कुर्सी पर बैठ जाती हूँ। डायरी और पेन उठाकर मेज पर रखी दीदी की तस्वीर में उनकी आँखों की गहराई की थाह पाने की अथक चेष्टा करती हूँ। दीदी ने अपने जीवन का अंतिम एवं अभूतपूर्व निर्णय लेने के पूर्व जो मानसिक यंत्रणा झेली होगी, उस यंत्रणा की पुनरावृत्ति की कल्पना अपने मस्तिष्क में करने की चेष्टा करती हूँ तो अनायास ही और संभवतः दीदी की ओर से ही सही ये पंक्तियाँ मेरे हृदय की गहराई से डायरी के पन्नों पर उतरने लगती हैं।

 

सुनो!

ये नेत्र

मात्र नेत्र नहीं

अपितु,

जीवन-यज्ञ-वेदी में

तपे हुये कुन्दन हैं।

 

मैंने देखा है,

नहीं-नहीं

मेरे इन नेत्रों ने देखा है

एक आग का दरिया

माँ के आंचल की शीतलता

और

यौवन का दाह।

 

विवाह-मण्डप

यज्ञ-वेदी

और सात फेरे।

नर्म सेज के गर्म फूल

और ……. और

अग्नि के विभिन्न स्वरुप।

 

कंचन काया

जिस पर कभी गर्व था

मुझे

आज झुलस चुकी है

दहेज की आग में।

 

कहां हैं ’वे’?

कहां हैं?

जिन्होंने अग्नि को साक्षी मान

हाथ थामा था

फिर

दहेज की अग्नि दी

और …. अब

अन्तिम संस्कार की अग्नि देंगे।

 

बस,

एक गम है।

सांस आस से कम है।

जा रही हूँ

अजन्में बच्चे के साथ।

पता नहीं

जन्मता तो कैसा होता?

हँसता ….. खेलता

खिलखिलाता या रोता?

 

किन्तु,  मां!

तुम क्यों रोती हो?

और भैया तुम भी?

दहेज जुटाते

कर्ज में डूब गये हो,

कितने टूट गये हो?

काश!

…. आज पिताजी होते

तो तुम्हारी जगह

तुम्हारे साथ रोते!

 

मेरी विदा के आंसू तो

अब तक थमे नहीं

और

डोली फिर सज रही है।

 

नहीं …. नहीं।

माँ !

बस अब और नहीं।

 

अब

ये नेत्र किसी को दे दो।

दानस्वरुप नहीं।

दान तो वह करता है,

जिसके पास कुछ होता है।

 

अतः

यह नेत्रदान नहीं

नेत्रार्पण हैं

सफर जारी रखने के लिये।

 

और अंत में वह तारीख 2 दिसम्बर 1987 भी डायरी में लिख देती हूँ ताकि सनद रहे और वक्त बेवक्त हमें और आने वाली पीढ़ी को वह घड़ी याद दिलाती रहे।

और फिर सफर जारी रखने के लिए दीदी कि अंतिम इच्छानुसार एक अनाथ एवं अंधी बच्ची को नेत्रार्पित कर दिये गए। वह प्रतिभाशाली अनाथ बच्ची और कोई नहीं अंजलि ही है जिसे भैया-भाभी ने गोद ले लिया।

किन्तु, जो नेत्र जीवन-यज्ञ-वेदी में तपकर कुन्दन हो गए हैं, वे आज धार्मिक अनुष्ठान की अग्नि से क्योंकर पिघलने लगे?  नहीं ….. नहीं। संभवतः यह मेरा भ्रम ही है।

निश्चित ही दीदी की आत्मा हमें अपनी उपस्थिति का एहसास दिला रही होंगी। दीदी के नेत्र और नेत्रार्पण की परिकल्पना अतुलनीय एवं अकल्पनीय है। किन्तु, दीदी की परिकल्पना कितनी अनुकरणीय है इसके लिए आप कभी अकेले में गंभीरता से अपने हृदय की गहराई में अंजलि की खुशियों को तलाशने का प्रयत्न करिए।  आज अंजलि, दीदी के नेत्रों से उन उँगलियों को भी देख सकती है जिससे वह कभी ब्रेल लिपि पढ़ कर सृष्टि की कल्पना किया करती थी। आप उन उँगलियों की भाषा नहीं पढ़ सकते, तो कोई बात नहीं। किन्तु, क्या आप अर्पित नेत्रों का मर्म और उसकी भाषा भी नहीं पढ़ सकते?

 

© हेमन्त बावनकर

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 36☆ व्यंग्य – बात-वापसी समारोह ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  के व्यंग्य  ‘बात-वापसी समारोह ’ में  हास्य का पुट लिए लोकतंत्र  में जुबान के फिसलने से लेकर जुबान को वापिस उसी जगह लाने की  प्रक्रिया पर तीक्ष्ण प्रहार है। आप भी आनंद लीजिये ।  ऐसे विनोदपूर्ण  व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 36 ☆

☆ व्यंग्य – बात-वापसी समारोह  ☆

 

नेताजी एक दिन जोश में विपक्षी पार्टियों को ‘जानवरों का कुनबा’ बोल गये। वैसे नेताजी अक्सर जोश में रहते थे और अपने ऊटपटांग वक्तव्यों से पार्टी को संकट में डालते रहते थे।

नेताजी के बयान पर हंगामा शुरू हो गया और विपक्षियों ने नेताजी से माफी की मांग शुरू कर दी। तिस पर नेताजी ने अपनी शानदार मूँछों पर ताव देकर फरमाया कि उनकी बात जो है वह कमान से निकला तीर होती है और उसे वापस लेने का सवाल ही नहीं उठता। उन्होंने यह भी कहा कि वे बात वापस लेने के बजाय मर जाना पसन्द करेंगे। उनकी इस बात पर चमचों ने ज़ोर से तालियाँ बजायीं और ‘नेताजी जिन्दाबाद’ के नारे लगाये।

हंगामा बढ़ा तो नेताजी को उनकी पार्टी की हाई कमांड ने तलब कर लिया। उन्हें हिदायत दी गयी कि वे तत्काल अपनी बात वापस लें अन्यथा उनके खिलाफ सख्त अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी।

नेताजी पार्टी दफ्तर से बाहर निकले तो उनकी शानदार मूँछें, जो हमेशा ग्यारह बज कर पाँच मिनट पर रहती थीं, सात-पच्चीस बजा रही थीं।बाहर निकलकर पत्रकारों से बोले, ‘हाई कमांड ने वही बात कही जो कल रात से मेरे दिमाग में घुमड़ रही थी। मुझे भी लग रहा था कि मैं कुछ ज्यादा बोल गया।वैसे मैं जानवरों को बहुत ज्यादा प्यार करता हूँ और उनका बहुत सम्मान करता हूँ। अब मैं अपने पंडिज्जी से पूछकर बात वापस लेने की सुदिन-साइत तय करूँगा।’

बात-वापसी की तैयारियाँ जोर-शोर से शुरू हो गयीं।एक लब्धप्रतिष्ठ वैज्ञानिक से अनुरोध किया गया कि वे अपने उपकरणों के ज़रिए पता लगायें कि बात जो है वह कहाँ तक पहुँची है। यह तो निश्चित था कि बात निकली है तो दूर तलक जाएगी, लेकिन कितनी दूर तलक जाएगी यह जानना जरूरी था। चुनांचे लब्धप्रतिष्ठ वैज्ञानिक ने डेढ़ दो घंटे की मगजमारी के बाद बताया कि बात जो थी वह धरती के छः चक्कर लगाकर भूमध्यसागर में ग़र्क हो गयी थी। वहाँ एक मछली ने उसे कोई भोज्य-पदार्थ समझकर गटक लिया था। बात को गटकने के बाद मछली की भूख-प्यास जाती रही थी और वह, निढाल, पानी की सतह पर उतरा रही थी।

यह जानकारी मिलते ही तत्काल वायुसेना का एक हवाई-जहाज़ गोताखोरों के दल के साथ भूमध्यसागर में संबंधित स्थान को रवाना किया गया। गोताखोरों ने आसानी से मछली को गिरफ्तार कर लिया और खुशी खुशी वापस लौट आये।पायलट ने मछली अधिकारियों के समक्ष प्रस्तुत कर सैल्यूट मारा और अधिकारियों ने खुश होकर वादा किया कि वे पायलट की सिफारिश विशिष्ट सेवा मेडल के लिए करेंगे।

पंडिज्जी की बतायी हुई साइत पर बात-वापसी की तैयारी हुई। स्थानीय समाचारपत्रों में आधे पेज का इश्तहार छपा कि नेताजी आत्मा की आवाज़ और हाई कमांड के निर्देश का पालन करते हुए अपनी अमुक तिथि को कही गयी बात को वापस लेंगे। इश्तहार में पार्टी के बड़े नेताओं का फोटो छपा, बीच में हाथ जोड़े नेताजी। समारोह स्थल पर विशिष्ट दर्शकों के लिए एक शामियाना लगाया गया और वहाँ बात-वापसी यंत्र लाया गया। बात वापसी देखने के उत्सुक लोगों की बड़ी भीड़ जमा हो गयी। नेताजी एम्बुलेंस में लेटे थे।

पंडिज्जी के बताये शुभ समय पर कार्रवाई शुरू हुई। मशीन का एक पाइप मछली के मुँह में डाला गया और दूसरे पाइप का सिरा नेताजी के मुँह में। मशीन चालू हुई और मछली चैतन्य होकर उछलने कूदने लगी। उधर नेताजी एक झटका खाकर बेहोश हो गये। बात जो थी वह मछली के पेट से निकलकर नेताजी के उदर में पहुँच गयी।

एक मिनट बाद नेताजी ने आँखें खोलीं। मुस्कराते हुए टीवी के संवाददाताओं से बोले, ‘मैं हाई कमांड को बताना चाहता हूँ कि मैं पार्टी का अनुशासित सिपाही हूँ। मैंने पूरी निष्ठा से हाई कमांड के आदेश का पालन किया है। मुझे यकीन है कि अब मैं उनका कोपभाजन न रहकर स्नेहभाजन बन जाऊँगा। मुझे भरोसा है कि आप के माध्यम से मेरी बात हाई कमांड तक पहुँच जाएगी।’

इसके बाद नेताजी डाक्टरों की देखरेख में एम्बुलेंस में घर को रवाना हो गये। पीछे पीछे कारों में ‘नेताजी की जय’ के नारे लगाते चमचे भी गये।

नेताजी के जाने के बाद मछली की ढूँढ़-खोज शुरू हुई। काफी खोज-बीन के बाद पता चला कि एक दूरदर्शी अधिकारी ने गुपचुप मछली अपने घर भिजवा दी थी और, जैसा कि समझा जा सकता है, वहाँ मित्रों के साथ मत्स्य-भोज की तैयारी चल रही थी।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 10 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेम चंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  भाग 10 – आतंकवाद का कहर  ☆

(अब  तक आपने पढ़ा  —- पगली विवाहित हो  ससुराल आई। बडा़ मान सम्मान मिला ससुराल से, संपन्नता थी ससुराल में, लेकिन सुहागरात के दिन की घटना अनकही कहानी बन कर रह गई।  पगली के जीवन में दिन बीतता गया, एक पुत्र की प्राप्ति, हुई नशे के चलते, संपन्नता दरिद्रता में बदल गई। फाकाकशी करने पर पगली मजबूर हो गई । नशे के शौक ने पगली से उसका पति छीन लिया, फिर भी पगली का हौसला टूटा नहीं। उसने गौतम को पढा़या लेकिन आतंकवाद ने ऐसा कहर ढाया कि पगली टूट कर बिखर गई। अब आगे पढ़े——)

गौतम की पढ़ाई ठीक ठाक चल रही थी। वह दीपावली की छुट्टियों में घर आया था।  छुट्टियां बीत चली थी।  आज उसे शहर वापस जाना था।

पगली ने बड़े प्यार से रास्ते में नाश्ते के लिए पूड़ी सब्जी, तथा गौतम के पसंद की कद्दू की खीर  बनाकर   गौतम के बैग में रख दिया था। गौतम स्कूल जाते समय गांव के बड़े बुजुर्गों के पांव छूकर आशीर्वाद लेना नहीं भूलता  था। यही विनम्रता का गुण उसे सारे  समाज में लोकप्रिय बनाता था।  उस दिन घर से बिदा लेते समय महिलाओं बड़े बुजुर्गों ने मिल कर सफल एवम् दीर्घजीवी होने का आशीर्वाद दिया था। लेकिन तब कौन जानता था कि विधि के विधान में क्या लिखा है? होनिहार क्या देखना और क्या दिखाना चाहती है?

उस दिन गौतम की मित्र मंडली उसे रेल्वे स्टेशन तक छोड़ने गई थी।  पगली सूनी सूनी आंखों से  उसी रास्ते को निहार रही थी, जिस रास्ते उसका गौतम गया था। मित्र गौतम को रेलगाड़ी में बैठा वापसी कर चुके थे।
आज ना जाने क्यों पगली का दिल उदास था उसे अपने लाडले की बहुत याद आ रही थी।  उसका दिल रह रह कर किसी अनहोनी की आशंका से धड़क उठता।  ऐसे में उसे कहीं चैन नही मिल रहा था वह बेचैन हो इधर उधर टहल रही थी।  उसकी बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी।

इधर रेलगाड़ी अपनी तेज चाल से अपने गंतव्य की तरफ बढ़ी जा रही थी। रेल के डिब्बों में बैठे कुछ लोग ऊंघ रहे थे।  कुछ लोग समय बिताने के लिए ताशों की गड्डियां फेट रहे थे। कुछ लोग देश और समाज की चिंता में वाद विवाद करते दुबले हुए जा रहे थे।  कोई सरकार बना रहा था, कोई सरकार गिरा रहा था, जितने मुंह उतनी बातें इन सब की बातों से बेखबर गौतम अपनी मेडिकल की किताबों में खोया उलझा हुआ था। उसे देश दुनियाँ की कोई खबर नही थी। वह किताब खोले अध्ययन में तल्लीन था। कि सहसा रेल के डिब्बे में धुम्म-धड़ाम की कर्णभेदी आवाज के साथ विस्फोट हुआ और गाड़ी के कई डिब्बों के परखच्चे  एक साथ ही उड़ गये, सारी फिजां में एकाएक बारूदी गंध फैल गई।  बड़ा ही हृदय बिदारक दृश्य था।  जगह जगह रक्त सनी अधजली लाशें, अर्ध जले मांस के टुकड़े बिखरे पड़े थे।

उनमें कई लाशें ऐसी थी जिनके चेहरे नकाब से ढ़के थे, लेकिन मरते समय मौत का खौफ उनकी आंखों में साफ झलक रहा था, कपड़े जगह जगह से जले हुये थे। उन सबके बीच बाकी बचे लोगों में चीख पुकार आपाधापी मची हुई थी, सबके दिलों में मौत का खौफ पसरा हुआ था।  ऐसे में लोग अपनों को ढूंढ़ रहे थे।

लोगों का रो रो कर बुरा हाल था, उन्ही लोगों के बीच उस अभागे गौतम की क्षतविक्षत लाश पडी़ थी।  उसके हाथ में पकडी़ पुस्तक के अधजले पन्ने अब भी हवा के तीव्र झोंकों से उड़ उड़ कर उसकी आंखों में मचलते सपनों की कहानी बयां कर रहे थे।  वही पास पडा़ खाने का डिब्बा और उसमें पडा़ भोजन एक मां के प्यार की दास्ताँ सुना रहा था।  गौतम के परिचय पत्र से ही उसके टुकड़ों में बटे शव की पहचान हो पाई थी।

जिस समय गौतम का शव लेकर पुलिस गाँव पहुंची, उस समय सारा गाँव पगली के दरवाजे पर जुट गया था।

पगली का विलाप सुन उसके दुख और पीड़ा की अनुभूति से सबका दिल हा हा कार कर उठा था।  सबकी आँखे सजल थी,  उस दिन गांव में किसी घर में चूल्हा नही जला था पगली को तो मानो काठ मार गया था।  वहजैसे पत्थर का बुत बन गई थी उसकी आंखों से आंसू सूख गये थे।  उसका दिमाग असंतुलित हो गया था।

अपने सपनों का टूटना एक माँ भला कैसे बर्दाश्त कर पाती।  पगली अपनी ना उम्मीदी भरी जिंदगी पर ठहाके लगा हाहाहाहा कर हंस पडी़ थी, अपनी पीड़ा और बेबसी पर।

उस समय सिर्फ़ पगली के सपने ही नहीं टूटे थे, उसकी ही पूंजी नही लुटी थी, बल्कि कई माँओं की कोख एक साथ उजड़ी थी।  कई पिताओं के बुढ़ापे की लाठियां एक साथ टूटी थी, कई दुल्हनें एक साथ बेवा हुई थी कई बहनों की राखियाँ सूनी हो गई थी।

पगली ने उन सबके सपनों को आतंकी ज्वाला में जलते देखा था। वह गौतम के अर्थी की आखिरी बिदाई करने की स्थिति में भी नही थी। उस दिन, उस गाँव के क्या हिंदु क्या मुस्लिम क्या सिक्ख, सारे लोग अपनी नम आँखों से अपने लाडले को आखिरी बिदाई देने श्मशान घाट पहुंचे थे। उस दिन सारे समाज ने पहली बार आतंकी विचारधारा के दंश की पीड़ा महसूस की।

इन्ही सबके बीच कुछ भटके हुए आतंकवादी अपने जिहादी मिशन की कामयाबी का जश्न मना रहे थे  इंसानियत रो रही थी और हैवानियत जमाने को अपना नंगा नाच दिखा रही थी।  गौतम की चिता जले महीनों बीत चले थे, सारा गाँव इस दुखद हादसे को भुलाने का  जतन कर रहा था।

– अगले अंक में7पढ़ें  – पगली माई – दमयंती  – भाग – 11 –  धत पगली 

© सूबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – ☆ कथा-कहानी ☆ झांनवाद्दन ☆ – सुश्री निर्देश निधि

सुश्री निर्देश निधि

(आज प्रस्तुत है हिंदी साहित्य की सशक्त युवा हस्ताक्षर सुश्री निर्देश निधि  जी की एक और कालजयी रचना  “झांनवाद्दन ”।  मैं निःशब्द हूँ और स्तब्ध भी हूँ। इस रचना को तो सामयिक भी नहीं कह सकता। एक स्त्री ही दूसरी स्त्री के अंतर्मन को पढ़ सकती है और इतनी गंभीरता से  लिपिबद्ध कर सकती है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि – यदि आपने इस रचना को एक बार पढ़ना प्रारम्भ कर दिया तो समाप्त किये बिना रुक न सकेंगे। अनायास ही मुंशी प्रेमचंद के कथानकों के पात्र  वर्तमान कालखंड में नेत्रों के समक्ष सजीव होने लगते हैं।  सुश्री निर्देश निधि जी की रचनाओं के सन्दर्भ में कुछ लिखना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। उनके एक-एक शब्द इतना कुछ कह जाते हैं कि मेरी लेखनी थम जाती है। आदरणीया की लेखनी को सादर नमन।

ऐसी कालजयी रचना को हमारे विश्वभर के पाठकों  तक पहुंचाने के लिए हम आदरणीय  कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी के सहयोग के लिए ह्रदय से आभारी हैं। कैप्टन प्रवीण रघुवंशी न केवल हिंदी और अंग्रेज़ी में प्रवीण हैं, बल्कि उर्दू और संस्कृत में भी अच्छा-खासा दखल रखते हैं। उन्होंने समय समय पर हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए सुश्री निर्देश निधि जी की कालजयी रचनाओं का अंग्रेजी अनुवाद उपलब्ध कराया है जिसे  हमने विगत अंकों में प्रकाशित भी किया है और अपेक्षा करते हैं कि भविष्य में हमारे पाठक उनसे ऐसी उत्कृष्ट रचनाओं के अंग्रेजी अनुवाद आत्मसात कर सकेंगे।)

आप सुश्री निर्देश निधि जी की अन्य  कालजयी रचनाएँ निम्न लिंक पर पढ़ सकते हैं :

  1. सुनो स्त्रियों
  2. महानगर की काया पर चाँद
  3. शेष विहार 
  4. नदी नीलकंठ नहीं होती 

☆ कथा-कहानी :  “झांनवाद्दन”

हम सब उसी दिन ‘चार वाली’ से अपने गांव आये थे, चार वाली मतलब, सुबह के चार बजे हल्दौर स्टेशन पर पहुंचने वाली ट्रेन। वैसे तो यह सुबह लगभग पौने छह बजे पहुंची थी, अब तो कभी-कभी सात बजे भी पहुंचती है पर उसके नाम में अभी तक कोई परिवर्तन नहीं हुआ। बड़ी बुआ बताती थीं कि फिरंगियों के समय में मजाल है जो घड़ी भर भी लेट होती हो। ठीक चार बजे स्टेशन पर आ कर खड़ी होती। खैर महाशय चाचा तो बैलगाड़ी लेकर हमें लेने चार बजे ही आ गये थे। उन्होंने बैलों के आगे बोरी में हरी कुट्टी रख रखी थी, ट्रेन को आते देख बोरी समेटी और बैलगाड़ी के नीचे वाले हिस्से में बंधे टाट के झूले जैसी जगह रख दी। जब तक ट्रेन रुकी चाचा ने बैलों को गाड़ी में जोत लिया। शुरू-शुरू में जब हम बैलगाड़ी में बैठते तो हम सारे बहन-भाई आगे भर जाते या सारे के सारे पीछे पैर लटका कर बैठना चाहते। आगे सारे बैठते तो बैलों पर जुए का जोर ज्यादा पड़ता चाचा हमें पीछे होकर बैठने को कहते। अगर हम सारे पीछे बैठ जाते तो चाचा बड़े प्यार से कहते, “बेट्टे जरा से आग्गे कू होज्जाओ नई तो गाड्डी उडल जागी।“ उडलना मतलब गाड़ी का आगे वाला हिस्सा हवा में, पीछे वाला जमीन पर सारे सवार भी जमीन पर। अब हम सारे परफैक्ट थे पूरा बैलेंस बनाकर बैठते।

स्टेशन से घर तक लगभग एक घंटे का समय लगा। घर आ चुका था, हमारा प्यारा घर। ताला खोलकर पहले मैं और पहले मैं करके घर के अन्दर आये । साल भर से झड़ी हमारे नीम की पत्तियाँ, आंधियों में टूट गई टहनियां, अंधड़ों में उड़ कर आई धूल, कूड़े – करकट, फटे कागज और कटी हुई पतंगों से आंगन पटा पड़ा था। आपसी सहयोग का समय था, सबने हाथ बटाया तो शाम तक घर का चेहरा ऐसा चमक उठा जैसे दादा – दादी के देहावसान के बाद वो ही हमारा बुजुर्ग हो और हमारे घर आने पर अपने पौढ़ चेहरे पर गम्भीरता भरी मुस्कान बिखेर रहा हो। हमारा घर दरअसल हमारे बुज़ुर्गों की बड़ी सी हवेली थी। पिता जी ने जिसका आधुनिकीकरण  करवा लिया था। अपने गाँव और अपने इस घर से पिता जी का अटूट रिश्ता था। कोई छुट्टियां मनाने कहीं जाता, कोई कहीं और पिता जी अपने सारे परिवार के साथ चले आते अपने गाँव। वो पुलिस में अफसर थे, पूरी तरह अनुशासित उसूल के पक्के यानी साल में साढ़े दस महीने बिना नागा पुलिस की नौकरी और पूरे डेढ़ महीने गाँव में पिकनिक या कहें उत्सव।

सारा दिन साफ़ – सफ़ाई और सामान लगाने में किसी तेज़ रफ्तार पंछी – सा छू हो गया। गर्मियों के लंबे दिन की सांझ आंगन को पार करती हुई घर की छत से उतर कर विदा ले रही थी। बात पैंतीस से चालीस वर्ष पुरानी होगी, उन दिनों गाँव में बिजली की व्यवस्था की सुध किसी राजनीतिक पार्टी को आई नहीं थी अतः पिछले बरस साफ करके रखी गई लालटैन और लैम्प्स  झाड़े जा रहे थे। जिससे कि अंधेरा  होने से पहले ही उजाला फैल सके। चाची रात का खाना बनाकर ले आई थी। खाना खाने की तैयारी अभी चल ही रही थी कि अचानक वातावरण में किसी की आवाज, आवाज क्या किसी का जोर-जोर से चिल्लाना तैर गया। शान्त-सुन्दर सांझ आज ही से शुरू हो रहा था हमारा ग्रामीण उत्सव। पिताजी जितनी तो नहीं, पर उनसे थोड़ी ही कम उत्सुकता के साथ हम सब भी इस उत्सव की प्रतीक्षा साल भर करते। हम सब भले ही थक गये थे पर थे उत्साह से भरे हुए। ऐसे में ये कराहते, चीखते शब्द जो कह रहे थे,

“छोड़ दे रे अजीजा, छोड़ दे रे अजीजा।“

एक बार, दो बार, दस बार, पचास बार, सौ बार यानी अनगिनत बार। ये ही शब्द अनवरत दोहराए जा रहे थे। मन बड़ा खराब हो गया । खाना भी बड़ी मुश्किल से खाया गया। आवाज हमारे घर के पिछवाड़े से आ रही थी। मेरा बालमन तुरन्त खोजने पर आमादा हो गया, कौन है ये क्यों चिल्ला रही हैं? यह अजीजा कौन है? इसे कब छोड़ेगा? वगैरह – वगैरह, और भी न जाने कितने प्रश्न एक के बाद एक, शायद एक ही साथ मन में कौंधने  लगे। अम्मा ने चाची से पूछा, “कौन है ये और क्यों चिल्ला रही है ?” “यो……यो झांनवाद्दन है, इसका दिमाग चल था इसलियों इसै बांध  रक्खा है इसके जेठ नै।“ चाची ने बड़ा संक्षिप्त उत्तर दिया, तब के लिए जैसे इतना काफी था।

हमारा घर हिन्दुओं का आखिरी घर था। उसके बाद सारे मुसलमान रहते थे, कुछ शेख, कुछ जुलाहे लेकिन जुलाहों के साथ ही खड्डी चलाकर कपड़ा बनाने का काम शेख भी करते थे। मुझे गाँव की पूरी स्थिति की खबर होती क्योंकि मैं छोटी थी, बच्चों के साथ खेलते-खेलते सारे गाँव का चक्कर लगाकर आती ग्रामीण जीवन मुझे भी बड़ा लुभाता। और कौतूहलवश मैं सारी बातें अपने ग्रामीण मित्रों से पूछती। सारे बाल मित्र  तत्परता से मुझे सही-सही जानकारी देते। मसलन पथवारे में चमनों चाची की जगह कौन सी है? इतने सारे उपले कहां रखे जाते हैं? बिटौड़ा कैसे बनाता है? उसे बरसात में भीगने से बचाने के लिए बूंगा, यानी फूंस का कवर कैसे बनता है? छान कैसे छाई जाती है? डंगरो की क्या देखभाल होती है, दुधारू गाय-भैंस को बिनौले की खल ही खिलाना क्यों अच्छा होता है। ताजिये कहां बनते हैं? किस सामान से बनते हैं, कौन सबसे अच्छा कारीगर है या हमारे घर के पीछे रह रहे मुसलमान जुलाहे खड्डी कैसे चलाते हैं, चैक का कपड़ा कैसे बुना जाता है और सादा कैसे, कौन सबसे अच्छा सूत कातती है? वगैरह-वगैरह ।  जब मैं अपने गाँव से लौटती तो मुझे गाँव का अच्छा खासा ज्ञान हो जाता। मेरे इस ज्ञान पर पिताजी बहुत खुश होते, और मुझे ढेर सा लाड़ करते।

मैं गाँव में कितना भी घूमती पर किसी के घर बैठती नहीं थी। बस एक रेशमा का व्यक्तित्व और उसका साफ-सुथरा घर मुझे वहाँ बैठ जाने का आमन्त्रण देता और मैं अक्सर उसकी चारपाई पर बैठ जाती। रेशमा गोरी-चिट्टी, लम्बी-तगड़ी शेखनी, तीन छोटे-छोटे बेटों की माँ, पर चेहरे से किशोरी सी दिखती , कहते थे कि उसकी माँ पर किसी अंग्रेज का दिल आ गया था वो जिसका परिणाम थी। उसकी हल्की नीली आँखेँ, गोरा-गुलाबी रंग, सुनहरे बाल, उसके नैन-नक्श और उसका आश्चर्यजनक रूप से समय का पाबन्द और अनुशासित होना मुखरता से इस अफवाह की पुष्टि करते। उसमें गजब का आकर्षण था। इतना कि छोटी सी मैं साल भर बाद आकर भी उससे मिलना नहीं भूलती। चाची की बेटी सोम्मी और दूसरे बच्चों के साथ मैं  सबसे पहले उसी के घर जाती। मेरे जाने पर वो भी खुश होती। उसने मुझे नाम से कभी नहीं पुकारा, वो मुझे अफसर की बेट्टी कहकर पुकारती। बड़े से घर में  उसके सास – ससुर, जेठ – जिठानी, उनके सात – आठ अविवाहित बड़े – छोटे लड़के – लड़कियां, एक विवाहित बेटा और उसका परिवार रहता । उसी घर के आँगन के एक कोने में रसोई और एक कोठरी उसके हिस्से में आई थी, रसोई के पास ही उसका चरखा और ढेर सारी रूई रहती जिसे वो महीन-महीन कातकर ढेर सारी पूनियां बना लेती। आजादी के बाद तब तक बहुत लम्बा समय नहीं गुज़रा था, हथकरघा उद्योग जीवित था और लोग उसका  कपड़ा पहनते भी थे।

रेशमा का पति अपने दस बहन – भाइयों में आठवें नम्बर पर था। अजीजुद्दीन सबसे बड़ा था, उसकी पत्नी उसके बड़े मामा की बेटी थी और रेशमा उसके छोटे मामा की जिसे अजीजुद्दीन की पत्नी अपने देवर रईसुद्दीन के साथ ब्याह कर ले आई थी। रेशमा जैसी अनिंद्य सुन्दरी को पाकर वो सीधा – सादा  नौजवान धन्य  हो गया। नई-नई पत्नी, अनिंद्य सुंदरी  रेशमा की उपस्थिति उसे हर वक्त घर आने का आमन्त्रण देती। कभी सूत के बहाने, कभी रूई के बहाने, कभी खाना-पीना तो कभी कपड़े। जब कोई भी बहाना ना मिलता तो बस  यही पूछने चला आता कि शाम का खाना बनाने की लिये पर्याप्त लकड़ियाँ हैं या नहीं? उसके आते ही रेशमा झट से कोठरी की तरफ दौड़ती। नया-नया प्रेम, मन से तन तक प्रयोग कर लेने की पूरी छूट। पति ही सबसे अच्छा प्रेमी साबित हो सकता है, रेशमा का मन पूरी तरह इस विश्वास से भर गया था। ना कुछ अनैतिक, ना कुछ अनर्थ और ना ही सामाजिक खींचतान। जब कोई अविवाहिता किसी लड़के से प्रेम कर बैठती है तो उसे कितना तनाव होता है, घर का, समाज का, यहां तक कि अपनी नैतिकता का। प्रेमी की आँख से निकलती आनन्द की क्षणिक रश्मियां तन-मन पर अपना चटख रंग फेंकती तो जरूर है पर अगले ही क्षण सारी ऊर्जा उस चटखपन को छिपाने में खर्च हो जाती है और ना छिपा पाने की स्थिति तो उसे अन्दर तक निस्तेज  कर जाती है, यह जानती थी वह। जैसे प्रेम ना हुआ किसी के खून का संगीन अपराध हो। इसलिये उसका रईसुद्दीन ही उसका सबसे बेहतर प्रेमी था। दोनों  एक दूसरे की, पूरी तरह पसन्द। उनकी छोटी सी कोठरी उनके तन-मन की ही तरह प्यार से लबालब भरी थी।

पर इस प्रेम की बड़ी हानि उठानी पड़ी रेशमा को। वो सोचती, शायद प्रेम किसी से बर्दाश्त होता ही नहीं है भले वो पति-पत्नी का ही क्यों ना हो। रईसुद्दीन की उस पर दीवानगी देखकर, जिसकी वो सौ प्रतिशत अधिकारिणी थी, घर की सभी औरतों के सीनों में ईर्ष्या घर कर गई थी। स्वयं उसकी तहेरी बहन जो उसे अपने देवर के लिए ब्याह कर लाई थी, उसकी शत्रु बन बैठी थी। वैसे तो उसका अप्रतिम सौन्दर्य ही बहुत था घर की औरतों में ईर्ष्या पैदा करने के लिए, उस पर चाँदी पहनने वाली औरतों के बीच रेशमा का सोने की मुरकियां और बुलाक पहनने और रईसुद्दीन के प्यार-मोहब्बत ने आग में घी का काम किया। सास को तो उसके नाम से भी नफरत होने लगी थी। जब भी रेशमा सूत कातने बैठती वह उसे किसी ना किसी बहाने उठाती रहती जिससे कम सूत कातने पर रईसुद्दीन उस पर गुस्सा करे। परन्तु उस स्फूर्ति के भण्डार को खाविंद की वाहवाही लूटने से कौन रोक सकता था? खाविंद भी कब पीछे रहता था, जब भी कपड़ा बेचने बाजार जाता, उसके लिये, चूढ़ियां, पायल, चुटीला, रिबन, लाली, पाउडर, चप्पल वगैरह – वगैरह कुछ ना कुछ लेकर ही लौटता। वो इन चीजों को लेकर ही इतनी खुश हो जाती जैसे दुनिया की सारी सम्पत्ति उसे मिल गई हो। अपने आप को पूर्णतः सन्तुष्ट समझती, और ज्यादा की हवस बिल्कुल ना करती। उसका ये सन्तोष भी दूसरों को भड़काने का छोटा कारण नहीं था। ठीक ही कहते हैं  कि नज़र और हाय तो पत्थर को भी चटका देती है। सचमुच उसके सुख का ये पक्का पत्थर चटकने ही जा रहा था।

गाँव के किसी शेख के यहां उसका कोई रिश्तेदार आया। जो अरब जाकर बड़ा अमीर हो गया था, अब भी अरब में ही रह रहा था। रईसुद्दीन की मेहनत और लगन देखकर उसे अपने साथ ले जाने की बात कही, उसे अरब जाकर अपनी फकीरी से रईसी तक का सफर कह सुनाया, अथाह धन  का भी लालच दिया। यूं तो रईसुद्दीन यहां गांव में भी अच्छा ही कमा लेता दिन-रात मेहनत करता, खड्डी चलाता। परंतु शायद रेशमा को रानी बनाकर रखने का लालच मन में समाया या जो भी कारण रहा, उसने अरब के शेख का निमन्त्रण स्वीकार कर लिया। रेशमा लाख रोई गिड़गिड़ाई, छोटे-छोटे बच्चों का हवाला दिया, अपने प्यार की कसमें दीं पर उसकी एक नहीं चली। रेशमा जानती थी, आखिर मर्द बच्चा अपने निर्णय खुद लेता है, उसको अदनी सी औरत कैसे बदल सकती है? वही हुआ जो वह चाहता था। वो शेख जैसा अमीर बनने का सपना आँखों में लेकर उसके साथ चला गया।

रेशमा का अनन्य प्रेमी जा चुका था, रो-रोकर उसने अपना बुरा हाल कर लिया था। रेशमी गुड़िया अब मुरझा गयी थी। कैसा पत्थर दिल खाविंद था जिसे अपनी घरवाली के आंसू और बेतहाशा खूबसूरती भी न रोक पाई। ना उसके अकेलेपन से ही उसने कोई खौफ खाया। वैसे भी खूबसूरत पत्नियों पर तो मर्द का विश्वास थोड़ा कम ही होता है। न जाने उसने इतना विश्वास रेशमा पर कैसे कर लिया कि उसे अकेली छोड़ कर चल दिया । क्या वो नहीं जानता था कि अकेली औरत अधिकांश  पुरुषों की नजर में सिर्फ एक देह होती है। अकेलेपन में उसे सहारा देने के लिये सैकडों हाथ बढ़ते तो जरूर हैं, पर क्या उनमें से एक भी उसका दैहिक परिचय लिये बगैर उसका साथ देने को राजी होता है? होने को तो ऐसा भी जरूर होता होगा पर क्या हर औरत का भाग्य इतना अच्छा होता है कि उसे कोई ऐसा मिल पाए? क्या वो नहीं जानता होगा, कि परदे ही परदे में क्या-क्या दुस्साहस नहीं हो जाते? क्या वो नहीं जानता होगा कि दुर्भाग्यवश स्त्री  जात को सबसे बड़े खतरों का सामना अपने ही घर में करना पड़ता है? घर में सहजता से उपलब्ध जो होती है फिर लोक-लाज उसका मुंह बन्द किये रखती है। वो औरत थी, वो ये सब जानती थी। वो अपने आपको सुरक्षित रखना चाहती थी अपने प्रेमी पति के लिये। पर सीधा – सादा रईसुद्दीन ये तो वास्तव में नहीं जानता होगा कि वो अपने ही घर में अपनी औरत के लिये आदमखोरों की खेप छोड़कर जा रहा था। जाते वक्त रेशमा को समझाकर गया था, “तू अकेल्ली कां है? आद्धा खानदान तो इसी हवेल्ली मैं रै रया और आद्धा पड़ौस मैं, फेर तू अकेल्ली  कां है? जो और किसी की तू ना बी मान्नै तो अम्मी-अब्बू तो रैंगे तेरे साथ। जी कू भारी मतना करै। खुसी-खुसी रइये, बालको कू देखिये। पैस्से लाऊंगा शेख जी साब की तरो, जब तू कैगी हाँ तुमने ठीक करा जो गए।’’

क्या रेशमा के प्रति उसके पति का आकर्षण भी सिर्फ दैहिक था? जो सन्तानों के हो जाने के बाद कुछ फीका पड़ गया था। ऐसा ही होगा वरना कोई ऐसा कैसे हो सकता है कि प्रेम के अमृत से भरी गहरी, साफ-सुन्दर झील को छोड़कर चन्द सिक्कों के पीछे तपते रेगिस्तान में दौड़ता फिरे। शायद उसने रेशमा से प्रागैतिहासिक युग के उस गुरिल्ले जैसा ही प्रेम किया था जो मादा की गंध मात्र के पीछे पागल होकर सन्तति निर्माण हेतु एक निश्चित समय के लिये ही  जोड़ा बनाता होगा। इन्सानी विकास के अनगिनत वर्षों बाद भी गंध  से रूप तक का ही सफर तय कर पाया था ये रईसुद्दीन नाम का गुरिल्ला। जो भी हो रेशमा का घर बिखर चुका था।

इस बार जब मैं रेशमा से मिलने गई, मुझे देखकर वो हर बार की तरह खुश हो गई थी, खुशी थोड़ी बेस्वाद ही सही पर वो झट से भागकर कोठरी में से अरबी खजूर ले आई थी और बोली,  “अफसर की बेट्टी ये खजूर खाओ  अरब सै भेज्जे हैं बालको के अब्बू नै, भौत मीट्ठे है।“ मीठे खजूर भेजकर बड़ा खुश था कमबख्त, शायद जानता नहीं था कि उसने रेशमा के जीवन को कितनी कड़वाहट से भर दिया था। अकेली जान पर वो कितनी जिम्मेदारी थोप  गया था। जब गया था तो तीसरा बच्चा पेट में था अब वो  भी चलने-फिरने लायक हो गया था, तीनों बच्चों की जिम्मेदारी, सास – ससुर का काम, सूत कातना, खड्डी चलाना, और सबसे बड़ी जिम्मेदारी थी उसे खुद अपने आपको सुरक्षित रखना। बरसों ना तो रईसुद्दीन आया और ना कुछ खास पैसा ही भेज पाया था। बल्कि जिस शेख के साथ रईसुद्दीन गया था उसका पत्र आया था जिसमें उसने बताया था कि रईसुद्दीन ने कोई अपराध  कर दिया है, वैसे तो यहां का कानून बड़ा सख्त है पर फिर भी मैं उसे जेल से छुड़वाने की पूरी कोशिश करूंगा। अरबी शेख के गांव वाले रिश्तेदार के घर से ही दबी-दबी सी खबर निकली थी कि रईसुद्दीन किसी हादसे में मारा गया। जिस पर विश्वास नहीं किया था रेशमा ने। पर इस खत ने तो उसके सिर से आसमान और पैरों से जमीन ही छीन ली। एक तरफ अकेलेपन का दंश रेशमा को आहत किये दे रहा था । दूसरी तरफ घर की ईर्ष्यालु औरतें खुश थीं और मर्द सहानुभूति रखने लगे थे। पर उसने किसी की तरफ ध्यान नहीं दिया। दिन – रात खड्डी चलाकर अपने बच्चों का पेट अकेली ही पालने लगी। अब खाविंद से अलग रहने की झुंझलाहट धीरे – धीरे उसका खूबसूरत चेहरा ढकने लगी थी। जिस खानदान के सहारे वो उसे छोड़कर गया था वो साथ रहने का दिखावा मात्रा निकला, और वही निकला उसके लिये सबसे बड़ा खतरा भी । । जबसे रईसुद्दीन के लौटने की आशा धूमिल पड़ी थी तबसे उसके बड़े भाई अजीजुद्दीन के दूसरे नम्बर के लड़के की नज़र रेशमा पर कुछ ज्यादा ही ठहरने लगी थी। कई बार उसकी हरकतों के विषय में रेशमा ने अपने सास-ससुर से कहा भी था। परन्तु उन्होंने बात आई – गई कर दी थी।

पूस की काली स्याह, ठिठुरती रात, उस पर बेवक्त मूसलाधार बारिश, जलते अलाव और रजाई ओढ़ने के बावजूद शरीर जमे जा रहे थे। रेशमा एक ही चारपाई पर अपने तीनों बच्चों को समेटे पड़ी थी जैसे कोई चिड़िया अपने अण्डे निषेचित करती है कि उसके दरवाजे पर खट-खट की आवाज़ हुई। रेशमा ने पूछा,

“कौन है?” बाहर से कोई धीमी और महीन आवाज आई। उसने फिर पूछा, फिर वही महीन आवाज आई,

“खोल तो मैं हूँ।“ जैसे घर की कोई औरत बोल रही थी, रेशमा ने आधा सुना, आधा न सुना और दरवाजा खोल दिया। तेज़ बारिश के साथ ही घुप्प अंधेरा  था, आने वाले की परछाई तक दिखाई नहीं दी। रेशमा टॉर्च उठाने के लिये टटोलती हुई पीछे हटी, आने वाले ने सांकल लगा ली रेशमा ने जैसे ही टॉर्च जलाई उसे एक लम्बा तगड़ा आदमी दिखाई दिया जिसने अपने चेहरे पर ढाटा बांध  रखा था। परन्तु उसकी कद-काठी देखकर रेशमा को समझते देर नहीं लगी कि वो कौन था। आगन्तुक ने हाथ से टॉर्च छीन कर दूर फेंक दी टॉर्च की रोशनी देर तक इधर से उधर लुढ़क कर बंद हो गई ।  आगंतुक  उसका हाथ पकड़कर बेरहमी से  खींचते हुए कोठरी के एक कोने में ले गया। रेशमा ने पुरजोर विरोध  किया, चीखी-चिल्लाई पर किसी को कोई आवाज़ नहीं गई या किसी ने जान बूझकर नहीं सुना। शारीरिक बल से हांका हुआ पुरुष का वासना भरा अहंकार एक स्त्री  के साथ जो सबसे बुरा कर सकता था, वो उसने किया। वो हट्टी-कट्टी शेखनी सचमुच अबला बन रह गई थी। उसकी चीत्कार से उसके तीनों बच्चे जाग गए थे। सोचकर बुरी तरह  सहम गए कि उनकी मां को कोई जान से मारने आया है। अपनी मां को जीवित देखकर उन्होंने राहत की सांस ली। परन्तु उन्हें क्या पता कि उनकी मां मर ही चुकी थी अब जीवित थी तो केवल उसकी देह ।

रेशमा बारिश में गिरती-पड़ती, भीगती- भागती, बदहवास सी अपनी सास के पास जाकर रोते हुए  चीख-चीख कर अजीजुद्दीन के दूसरे नम्बर के बेटे की करतूत बता रही थी, पर सास कुछ नहीं बोली। शायद सबकी मौन स्वीकृति थी। अब तक रईसुद्दीन की मौत की खबर लगभग पक्की हो गई थी। और उसकी सारी ‘सम्पत्ति’ पर दूसरे घरवालों का कानूनन हक था। अतः वो हार कर अपनी कोठरी में लौट आई। आबरू ही नहीं आत्माभिमान, सम्मान सब कुछ तार-तार हो गया था। अब क्या? क्या करेगी जीकर?

रात में कितने ही बुरे-बुरे कारनामे क्यों ना हो जाएँ, सुबह होती जरूर है। उस रात के बाद भी एक सुबह हुई थी बारिश बन्द हो गई थी पर हवा की तेजी ने सर्दी को और बढ़ा दिया था। अभी तक रेशमा अपने सुसर के सामने कभी नहीं निकली थी पर अब उसके लिये किसी से पर्दे का कोई अर्थ नहीं था। अतः वो मुंह पर पर्दा किये बिना ही अपने ससुर के सामने आ खड़ी हुई थी। जैसे आदेश दे रही थी,

‘‘रईसुद्दीन कू बुला दो।’’

ससुर चुप रहा, सास का तीखा बाण निकला,

“बेशर्मी की बी हद होत्ती है, एक तो सुसर के सामनै मुंह खोल्लो खड़ी है ऊपर सै खाविंद का नाम ले रई है। जुबान जल जा तेरी। कलमुंई जा जाक्के डूब जा कईं।“

अपने खाविंद का नाम बी ना लूं और दूसरे मरद के सामने अपने आपकू…….छिः। कहते-कहते रुक गई रेशमा।

सास बहुत ही बुरे शब्द बोली,

‘‘रईसुद्दीन मर गया है हम सबकू पता है, आज तू बी जान ले। एक औरत मैं होवैई क्या है जो इतनी मरी जा रई है, गाड्डी भर गोश्त लेक्कै घूम रई है । इंघे ऊंघेई  बी तो बखेरती फिरैगी, घर केई मरद कै रै जागी तो कौन सा आसमान फट पड़ेगा?’’

रेशमा सास की बात सुनकर बुरी तरह तिलमिला गई थी? बोली,

‘‘मैं रईसुद्दीन की ब्याहता हूँ, उसके सिवा इस दुनिया मैं और किसी कै ना रहने की हूँ ।’’

“तो जा पंचों सै करवा ले फैसला। “ सास फिर बोली

“पंचों के धोरे जक्कै क्या कर लूँगी, बे तो सब बुड्ढे के लंगोटिया यार हैं, बिकाऊ हैं।“ कहकर हारी हुई स्त्री अपनी कोठरी में वापस लौट गई, जानती थी पंच भी मर्द ही तो थे, ठीक उसके घर के मर्दों जैसे ।

इस दुनियाँ में कितनी ही औरतें, अनपढ़ अपनी तरह और पढ़ी – लिखी अपनी तरह से, स्त्रीवादी होकर पुरूषों के अन्याय के खिलाफ लड़ाइयाँ लड़ती हैं। परन्तु कितनी अजीब बात है कि जितना वे पुरुषों के खिलाफ होती है उससे कहीं ज्यादा होती हैं एक दूसरे के खिलाफ। चाहे अनपढ़ हों या पढ़ी – लिखी, एक औरत दूसरी के साथ कुछ थोड़ा अन्याय नहीं करती। एक मर्द ने रेशमा के साथ अन्याय किया, दूसरे ने उसके साथ हुए अन्याय को समझना ज़रूरी नहीं समझा क्योंकि वो औरत का दर्द नहीं समझता था। परन्तु एक औरत की कौन – सी मजबूरी थी जो वो दूसरी का दर्द नहीं समझी? जिस तरह प्राचीन युग से आद्य युग तक भारतीय रियासतें आपसी द्वेष रखकर विदेशी आक्रान्ताओें को भारत पर विजय दिलाती रहीं । ठीक उसी तरह है स्त्री समाज भी, आपसी ईर्ष्या ने इसे पूरी तरह खोखला और कमजोर रखा इसी लिये इस पर राज किया पुरुष समाज ने। अपनी सास के अपराध के सामने रेशमा को अजीजुद्दीन के लड़के का अपराध कुछ खास बड़ा नहीं लग रहा था। उसका मन चाहा कि बुढ़िया का यहीं गला दबा दे। पर वो अबला है सबसे हार जाने वाली अबला, वो अपने जाते हुए पति को नहीं रोक पाई, बलात्कारी को नहीं रोक पाई अब अपनी ही जाति वाली को अनर्गल बकवास करने से नहीं रोक पाई। वो समझ गई थी कि औरत में भावनाएँ , विचार वगैरह कुछ नहीं, बस एक देह होती है वो भी मर्द के लिये, अपना नहीं तो दूसरे किसी के लिये। उसका रोम-रोम कराह उठा। अब किससे क्या कहे, बाप के घर चली जाए ? बाप को मरे तो दो बरस हो गए, भाई-भाभी तो मां को ही घास नहीं डालते। फिर भी उसने किसी के हाथ अपने भाई को बुला भेजा था। भाई आया, परन्तु उसे बाहर दालान में ही बैठा लिया गया। रेशमा के सास-ससुर, अजीजुद्दीन सबने मिलकर, पति की अनुपस्थिति में रेशमा का चाल-चलन सही ना होने की बात को उसके दिमाग में ठीक से बैठा दिया। सबूत और एक दूसरे की गवाही से हर झूठ को सच और सच को झूठ बना दिया। औरत की बदकिस्मती, कितना नाजुक बनाया चरित्र, गलत काम किये बिना भी खराब हो जाता है। और सबसे बड़ी विडम्बना ये कि उसके सगे सम्बन्धी  भी इस झूठ पर अपना समर्थन देने लगते हैं। किस भाई को अपनी बहन की किशोरावस्था से शिकायत नहीं होती?  किशोरी का चंचल मन खाली दर्पण सा होता है, जो कोई सामने देर तक खड़ा रहे उसी का अक्स उस पर उभरने लगता है। हर किशोरी के सपनो का राजकुमार कोई ना कोई तो बन ही जाता है। हर भाई की नजर गैलीलियो की दूरवीन बनकर बहन के कोरे-कोरे, दबे-छिपे सपनों को ताड़ लेती हैं । बहन का यही अल्हड़ प्रेम या आकर्षण, जो भी कहो भाई के दिल में उसके चरित्र के विषय में अविश्वास का बीज बो देता है। यही रेशमा के भाई के साथ हुआ। अद्वितीय सुन्दरी बहन पर कड़ी निगाह रखता। उसे याद है चौदह-पन्द्रह वर्ष की रेशमा एक हिन्दू लड़के की दीवानी हो गई थी। बड़ी सख्ती से सम्भाला था उसने। बहन का ब्याह कर वो इस घटना को लगभग भुला चुका था, परन्तु आज उसके ससुराल वालों के सबूतों और दलीलों ने उस घटना को पुनः जीवित कर दिया था, उसने मान लिया कि रेशमा ही गलत है, तब भी थी, आज भी है। ये कभी नहीं सुधरेगी, मेहमान ने गलत किया जो इसे अकेले छोड़कर इस पर भरोसा किया। वो अन्दर रेशमा के पास आया तो जरूर, परन्तु उसे ही हिदायत दे गया,

“सम्भाल के रख अपने आप कू-कुलच्छन मत ना दिखावै ।“

वो चुप खड़ी रह गई । भाई चला गया । अब उसे किसी का सहारा नहीं था जीवन भी अपना, मौत भी और प्रतिशोध  भी अपना । वो चुपचाप अपनी कोठरी में चली गयी, सारा दिन वहीं पड़े-पड़े गुज़र जाता। ना बच्चों का ध्यान रहा ना अपना, महीनों मुंह से कोई शब्द नहीं निकला। क्रोध  अन्दर ही अन्दर पकता रहा। ढाई-तीन महीने बीत गए। जाड़े जा चुके थे घर के मर्द गर्मी के कारण खुले में सोने लगे थे इतने दिनों खामोश रहकर अपना प्रतिशोध लेने के लिए जो ऊर्जा जुटाई थी आज रेशमा ने उसकी परीक्षा लेने का निश्चय किया। सब सो चुके थे, उसने दो तकुए आंच में लाल किये और बाहर गई जहां उसका अपराधी  सोया हुआ था। वो जलते हुए तकुए उसने अपने अपराधी  की दोनों आंखों में घुसा दिये। अपराधी  की आंखों से धुएँ के साथ मुंह से एक हृदयविदारक चीख निकली। सब जाग गए, रेशमा वहीं खड़ी रही, उसने अपने अपराधी को सजा दे दी थी। घर का कोई छोटा – बड़ा सदस्य उसपर लात – घूंसे बरसाए बिना नहीं रहा । शरीर चोट खा रहा था तो क्या, प्रतिशोध लेकर मन शांत हो गया था। किसी ने कहा डायन है, ये तो सबको खा जाएगी किसी ने कहा पुलिस को बुलाओ, और भी अनेक राय आई पर अजीजुद्दीन ने किसी की कोई बात नहीं सुनी, उसने क्षण-भर में रेशमा के लिए एक नायाब सज़ा सोच ली थी।

उसी दिन लोहे की दो लम्बी-लम्बी मजबूत जंजीरें लाई गईं, रेशमा का एक पैर और एक हाथ अलग-अलग जंजीर  से बांधकर उसे अपने बाहर वाले चबूतरे के बीचों – बीच  खड़े शीशम के पेड़ के साथ बांध दिया। वह दिन-रात, सुबह-शाम वहीं बंधी रहती। वहीं एक प्लेट में, कुत्ते की तरह एक – आध  रोटी डाल दी जाती, बस सुबह के समय घर की औरतें उसे जंगल तक ले जाती, शौच के लिये वो भी किसी पुरूष की निगरानी में, बस इनती ही थी उसकी स्वतंत्रता। घर की पर्दानशीं अनिंद्य  सुन्दरी अब गलियारे से गुजरने वालों के मनोरंजन का साधन बन गई। उसी में दोष लगाकर गांव भर में उसके प्रति घृणा प्रचारित की गई। वहाँ से गुजरने वाला हर औरत-आदमी उस पर थू-थू करता। खासकर औरतें, यही तो एक मौका था अपने-अपने मर्दों को ये दिखा देने का कि वे चरित्रहीन का साथ नहीं दे सकतीं क्योंकि वे बड़ी ही सच्चरित्र, साध्वी स्त्रियां हैं । कोई कहती,

“कुल्टा अब बैट्ठी है हें गलियारे मैं, शर्म-हया तो है कोयना।“

“कुलच्छनी मर्दमार हो रई है । मर्दों  सै बराबरी करने पै उतरी थी।“ कोई कहती ।

कोई कहती, “अपने मर्द कू तो खाई गई अब सब दूसरों कू ऐसे मारे काट्टेगी।“ और भी न जाने क्या-क्या। कई दिनों तक रेशमा अपना मुंह घुटनों में छिपाकर बैठी रही शायद ये सजा उसने सोची नहीं थी अपने लिये। औरतें रोज आतीं उसे रास्ते में बैठे रहने के ताने मारतीं। एक दिन उससे रहा नहीं गया, जैसे चिल्ला पड़ी थी उस दिन वो, “जो मेरे साथ मेरी कोठरी मैं होया गलियारे में बैठना उस्सै बुरा ना है।“ औरतें सहम गईं । दिन चहल-पहल से बचते गुजरता और रात खुद को सन्नाटे से बचाते-बचाते बहुत लम्बी होकर जाती। पति की परम प्रिया, बच्चों की स्नेहमयी माँ, एक सच्चरित्र औरत इस खौफनाक सज़ा को पाकर कितने दिन अपना मानसिक सन्तुलन बनाए रख पाई होगी आखिर ? धीरे-धीरे  वो सचमुच चेन से बांधने लायक ही हो गई।

वो जहांनाबाद की थी। गांव में प्रचलन होता है किसी स्त्री को उसके अपने नाम के बजाय उसके गांव के नाम से पुकारते हैं सो उसके गाँव के नाम को अपभ्रंश बनाकर ‘‘झानंवाद्दन’’ बोला जाता। शीशम के पेड़ से बंधी पर्दानशीं झांनवाद्दन हमेशा तने की तरफ मुंह करके बैठती। पेड़ की टहनियां तोड़कर उसने अपने लिये चूल्हा, चरखा, चारपाई, बर्तन आदि सभी ‘‘सुविधाएँ ’’ जुटा ली थीं । उन टहनियों को बड़े करीने से सहेजती, उन्हें ही अपनी सम्पदा समझ सबसे उनकी रक्षा भी करती। पथवारे जा रही औरतें अपने मनोरंजन के लिये मुट्ठी भर गोबर, दूर से ही, उसके चबूतरे पर फेंक देती और कहती, “झांनवाद्दन इस गोब्बर कू अपने चौंतरे पै फैर लें।“ वो सफाई की दीवानी, उस गोबर में अपने पानी पीने वाले लोटे से ही पानी मिलाती और चबूतरे को बड़ी अच्छी तरह से लीपती। कोई न कोई उसे रोज गोबर दे जाता और वो रोज यही दोहराती। दिन फिर भी शांति से निकल जाता,पर शाम उसके लिये बड़ी दुःख देने वाली होती। गांव के छोटे-छोटे लड़कों की टोलियाँ आतीं, कभी डण्डियों से उसका करीने से रखा सामान या कहें ‘‘सम्पदा’’ बिखेर देतीं, कभी उसके चबूतरे पर मिट्टी या पत्ते फेंक देतीं, कोई उसकी कमर पर डण्डी मार कर भाग जाता। वो चिल्लाती, ‘‘हाय मुझें मार दिया, मेरा घर उजाड़ दिया उत्तों नै, तुम मर जाओ कमबख्तों, तुमै हैज्जा लेज्जा।’’

और वो इसी तरह घण्टों रोती-बड़बड़ाती और अपनी टहनियां फिर करीने से लगाने लगती। आस-पड़ोस  की औरतें बच्चों पर गुस्सा करतीं। इसलिये नहीं कि वो रेशमा को परेशान होने से बचाना चाहती थीं बल्कि इसलिये कि शाम के समय रो-धोकर, गालियां देकर उसके फैलाए अपशगुन से खुद को बचा सकें। एक बात तो थी, उसे किसी ने जैसे भी चिढ़ाया हो पर उसका शारीरिक शोषण करने की बात कोई सोच भी नहीं पाया, भले ही वो दिन-रात अकेली शीशम से बंधी चबूतरे पर क्यों ना पड़ी रही हो

उस बार जब मैं बच्चों के साथ घूमने निकली तो बच्चे सबसे पहले मुझे झानंवाद्दन ही दिखाने ले गए। वो बार-बार कहे जा रही थी, “छोड़ दे रे अजीजा, छोड़ दे रे अजीजा।“ मेरे साथ के बच्चों में से एक ने उसकी पीठ पर डण्डी मारकर उसका ध्यान अपनी ओर किया, दूसरा बोला, “झांनवाद्दन-झांनवाद्दन मैं जा रया हूँ अजीजा के पास, मैं छुड़वाऊँगा तुजै। तू गाक्कै सुना। “ वो पगली अपनी छोड़ दे रे अजीज़ा, छोड़ दे रे अजीजा की रट छोड़ कर तुरन्त गाने लगी,

“पत्ता टूटा डाल से और ले गई पवन उड़ाय अबके बिछड़े ना मिलैं कहीं दूर बसैंगे जाए रे, अल्ला के प्यारों, मौला के प्यारों।“ उसका गाना खत्म हुआ तो, “छोड़ दे रे अजीजा, छोड़ दे रे अजीजा” की रट फिर शुरू हो गई थी। इस बार दूसरे लड़के ने कहा, “तुझे मैं छुड़वाऊँगा अजीजा से, चल नांच कै दिखा।“ और वो अपनी मुँह से कुछ संगीत सा निकालने लगा। मैं उस लड़के को रोकना चाहती थी पर मुंह से शब्द ही नहीं निकले, मैं घर की तरफ मुड़ने लगी। इसी बीच झांनवाद्दन की नज़र मुझ पर पड़ गई वो बड़ी कर्कश आवाज में चिल्लाई, “अफसर की बेट्टी, ए अफसर की बेट्टी रुक जा मैं तेरे लिये खजूर ला रही हूँ, खाक्कै जाना।“

तो ये झांनवाद्दन रेशमा है ! नहीं, ये भयानक औरत वो रेशमी गुड़िया कैसे हो सकती है?  इतनी जानी पहचानी वो, मुझे जरा भी पहचान में नहीं आई। उसकी रेशमी-गुलाबी चमड़ी काली स्याह पड़कर जगह-जगह से चटक गई थी। हल्की नीली आंखेँ गहरे काले गड्ढों में बन्दिनी बनी पड़ी थी। उसके रेशमी-घने, सुनहरे बाल आपस में बुरी तरह गुत्थम-गुत्था हो रहे थे। चेहरा कुल मिलाकर ऐसा हो गया था, जिसे ज्यादा देर देख पाना मेरे लिये सम्भव नहीं था। किसने किया उसका इतना बुरा हाल? भगवान उसे सजा जरूर देंगे। मेरी आंखों में आंसू आ गए। इस बार वो थोड़े धीमे स्वर में बोली, “ए अफसर की बेट्टी, अफसर से कहना कि मुजै अजीजा से छुडवा दें। इंघे कू आ ना मेरे धोरे कू।“ जाने कौन सी भावना के वशीभूत हुई मैं चबूतरे के बिल्कुल पास चली गई, वो भी चेन को थोड़ी ज्यादा खींचकर मेरी तरफ आई। उसके हाथों में मेरे बाल आ गए। मेरे साथ आए सारे बच्चे सहम गए। मैं नहीं जानती मुझे उससे डर क्यों नहीं लगा? मैं और थोड़ी आगे खिसक गई। उसने मेरे बाल छोड़ दिये, मेरे सिर पर अपना हाथ बड़ी जोर से रखकर मुझे आशीष देने लगी। “अल्ला तुजै लम्बी उमर दे, तू जीती रे”, और फिर वो फफक-फफक कर रो पड़ी थी। “अफसर की बेट्टी अजीजा ने मेरे सारे बालकों कू मार दिया।“ वो मेरा हाथ पकड़कर बार-बार यही कहे जा रही थी। मेरे साथी बच्चों ने मेरा दूसरा हाथ पकड़कर कर मुझे खींच लिया था। वो चिल्लाती ही  रह  गई, “अफसर की बेट्टी, ए अफसर की बेट्टी मेरी बात सुनती जा,  अफसर की बेट्टी मेरी बात तो सुनती जा।“

मैं रुकना चाहती थी पर चाची की बेटी सोम्मी मेरा हाथ पकड़कर मुझे खींचती हुई घर ले आई। घर आकर अम्मा से मेरी शिकायत लगाने लगी, कि मैं झांनवाददन के चबूतरे के पास चली गई थी। अम्मा मुझ पर थोड़ा सा गुस्सा भी हुई थी। झांनंवाद्दन की आवाज हमारे घर तक आ रही थी। वो गाना गा रही थी। “पत्ता टूटा डाल सै और ले गई पवन उड़ाय अब कै बिछड़े ना मिलै कहीं दूर बसैगें जाए रे अल्ला के प्यारों, मौला के प्यारों।“ मुझे लगा जैसे इस बार वो ये गाना मुझे ही सुना रही थी। गाना थोड़ी देर गाया होगा कि फिर वही, “छोड़ दें रे अजीजा, छोड़ दें रे अजीजा ” की रट शुरू कर दी थी उसने।

उस दिन घर लौट कर मैं बेहद उदास थी, पिता जी से कहा, पिता जी रेशमा को छुड़वा दो प्लीज। अगले दिन पिता जी ने अजीजुद्दीन को बुलवाकर उससे बात भी की, रेशमा को किसी पागल खाने में भरती कराने के लिए। अजीजुद्दीन ने बताया कि एक बार वो उसे छोड़कर आया था, पर वो भागकर घर आ गई, उसे एक बार उसके पीहर भी छोड़कर आया था पर वो वहां से भी भागकर आ गई थी। कौन जाने वो हर जगह से लौट कर अपने नन्हें-मुन्नों की किलकारियां सुनने और अपने अरब गये प्रेमी की प्रतीक्षा करने के लिए, दौड़ कर खुशी-खुशी जंजीरों से बंधने के लिए वापिस वहीं आ जाती हो। अजीज कहता था उसे खोलकर तो नहीं रखा जा सकता। क्योंकि वो सोचता होगा कि रेशमा ना जाने कब किसकी आंखों में गरम तकुए घुसा देगी। पर मूर्ख था वो जानता नहीं था कि उस आत्माभिमानिनी को तो सिर्फ अपने अपराधी  को ही सजा देनी थी। ये भी सुना गया कि अजीजुद्दीन ने रेशमा के तीनों बच्चे उसी अरब के शेख को बेच दिये, उससे कहा कि तीनों मर गए, तभी उसकी मानसिक स्थिति बुरी तरह बिगड़ गई थी। जब मैं अम्मा को रेशमा के विषय में बता रही थी, चाची तपाक से बोली थीं, “जाद्दै दया करने की जरूरत ना है इसपै, इन्नैं बी छोटा गुनाह ना करा, औरत होक्कै इन्नै अपने जेठ के बेट्टे की दोन्नों आंख फोड़ दई थीं।“ “चाची औरत होक्के मतलब ?” इस पर चाची ने उत्तर दिया तो मैं अवाक रह गई थी, “ मरद की जात कुछ बी कल्ले औरत कू यो सब सोभा नईं देत्ता, अभी ना समझनेकी है तू, बड़ी होज्जागी न जब समझगी ।“  मर्द की जात कुछ भी कर ले मतलब ? अजीब बात थी चाची तो सच्चाई जानती थी फिर भी उसी को अपराधिनी ठहरा दिया। माना कि आंखेँ आदमी के लिए उसकी अनमोल धरोहर हैं। पर समाज में स्त्री की आबरू उससे कम है क्या? क्या लुटी हुई आबरू के साथ, समाज किसी स्त्री को सम्मानित ओहदा देता  है? या कहें, दे पाता है क्या ? खुद स्त्री का अपना पति भी उसके साथ हुई इस दुर्घटना को भूलकर अपने आपसी सम्बन्ध  को सहज नहीं बना पाता। कोई उसे ताने दिये बगैर नहीं छोडता, ज्यादातर औरतें ऐसे हादसों के बाद आत्महत्या तक कर लेती हैं फिर रेशमा का अपराध अजीजुद्दीन के बेटे के अपराध  से बड़ा कैसे हुआ ? मैं तब भी नहीं समझ पाई थी ना आज समझ पाई हूँ और संभवतः यह प्रश्न मेरे मन में हमेशा अनुत्तरित ही रहेगा। क्या वो अपराधी  बड़ा नहीं जिसने अपराध की शुरूआत की?

डेढ़ महीने तक मैं रोज उससे मिलती रही, अम्मा की डांट पड़ते रहने के बावजूद, दो-चार आंसू भी उस पर बहाती रही। इस बार डेढ़ महीने का उत्सव मेरे लिये उदासी बनकर आया था। उसके अगले बरस हम गांव नहीं आ सके थे। जहां पिता जी की पोस्टिंग थी वहां दो विरोधी पक्षों के बीच तनाव हो गया था। कर्तव्य को प्राथमिकता देने वाले पिता जी ने अपना डेढ़ माह का ग्रामीण उत्सव इस बार बलिदान कर दिया था। हम सब सारी छुट्टियाँ वहीं बोर होते रहे। मुझ बच्ची की कल्पनाओं में सारी छुट्टियों में झांनवाद्दन घूमती रही। जैसे अजीजुद्दीन ने उसका इलाज करा दिया होगा और वो फिर से वहीं रेशमा बना गई होगी। रईसुद्दीन लौट आया होगा और अब वो फिर अपने उसी घर में अपने पति और अपने तीनों बच्चों के साथ खुशी-खुशी रहने लगी होगी। जब मैं इस बार जाऊँगी तो मुझे प्यार से खाट पर बैठा देगी। इस बार वो अरबी खजूर नहीं मुझे गुड़ ही खिलाएगी अपने गांव का बना हुआ। खूब सूत कातने लगी होगी, जितने समय नहीं काता उसके हिस्से का भी। और भी ना जाने क्या-क्या अच्छा – अच्छा सोचती में अपनी उस प्रिया के लिए । वो साल बिना गांव आए बीत गया।

जब हम उसके अगले बरस गांव आए तो आते ही मैं सबसे पहले छत पर से वो चबूतरा देखने को भागी जिसके बीचों – बीच  खड़े शीशम के पेड़ से रेशमा बंधी  रहती थी। परन्तु चबूतरा खाली था। उस पर लोहे की दोनों चेन पेड़ से अभी भी बंधी  पड़ी थी। शायद अजीजुद्दीन ने उन्हें गांव की औरतों को ये सजा याद दिलाते रहने की वजह से ना खोला हो पर अब अजीजुद्दीन से, “छोड़  दे अजीजा, छोड़ दे रे अजीजा” की गुहार लगाने वाली झांनवाद्दन वहां नहीं थी। अजीजुद्दीन ने उसे कभी स्वतंत्र नहीं किया तो क्या? वो खुद उड़ गई थी सारे बन्धन छुड़ाकर।

उस रेशमी गुड़िया पर मौसमों की कितनी भी मार क्यों ना पड़ गई हो या उसके बेतहाशा रूप पर कुरूप, डरावनी झांनवाद्दन का भयानक चेहरा क्यों ना चढ़ गया हो, मैं उसे रेशमा के नाम से ही जानूंगी, याद करूंगी। उसके खिलाए खजूरों की मिठास मेरी स्वाद ग्रन्थियां आजीवन नहीं भूलेंगी। मैं, हमेशा मानूंगी उसने साहस या दुस्साहस जो भी किया था व्यर्थ नहीं गया। अजीजुद्दीन के लड़के जैसे निरंकुश वासना से भरे पुरुष एक बार तो ये सोचने पर मजबूर हुए होंगे कि कोई स्त्री ऐसा भयानक प्रतिशोध  भी ले सकती है। किसी को तो उसके इस प्रतिशोध  ने डराया भी होगा । वो डर अगर किसी एक भी रेशमा की आबरू बचा पाया तो अपना सब कुछ खोकर भी रेशमा अमर हुई। मैं छत पर खड़ी – खड़ी अभी यह सब सोच ही रही थी कि बच्चों का वही पुराना शोर सुनाई दिया मैंने चौंककर देखा तो कोई पागल सा दिखने वाला आदमी  फटे – चुटे, मैले – कुचैले कपड़े पहने  मुंह से अपनी खिचड़ी हो आई दाढ़ी पर लार टपकाता, बगल में पानदान दबाए,  कभी डरता, कभी असपष्ट से शब्द उच्चारित करता, कभी ज़ोर – ज़ोर से  चिल्लाता हुआ लंगड़ाता, गिरता – पड़ता, आगे – आगे भाग रहा था ।  पीछे – पीछे बच्चे उसे कंकड़ – पत्थर मारते, शोर  मचाते हुए भाग रहे थे । वह कुछ जाना पहचाना सा लगा । अजीजुद्दीन………?

 

निर्देश निधि,

विद्या भवन,  कचहरी रोड, बुलंदशहर, (उप्र) पिन – 203001

ईमेल – [email protected]                  phone – 9358488084

17-6-19

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 19 ☆ लघुकथा – सलमा बनाम सोन चिरैया ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं. अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक लघुकथा  “सलमा बनाम सोन चिरैया”।  यह लघुकथा  मात्र लघुकथा ही नहीं अपितु मानवीय संवेदनाओं की पराकाष्ठा है, जिसे डॉ ऋचा जी की कलम ने  सांकेतिक विराम देने की चेष्टा की है और इसमें वे पूर्णतः सफल हुई हैं। डॉ ऋचा जी की रचनाएँ अक्सर यह अहम्  भूमिकाएं निभाती हैं । डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 19 ☆

☆ लघुकथा –सलमा बनाम सोन चिरैया 

 

सलमा बहुत हँसती थी, इतना कि चेहरे पर हमेशा ऐसी खिलखिलाहट जो उसकी सूनी आँखों पर नजर ही ना पड़ने दे। गद्देदार सोफों, कीमती कालीन और महंगे पर्दों से सजा हुआ आलीशान घर? तीन मंजिला विशाल कोठी, फाइव स्टार होटल जैसे कमरे। हँसती हुई वह हर कमरा दिखा रही थी  — ये बड़े बेटे साहिल का कमरा है, न्यूयार्क में है, गए हुए ८ साल हो गए, अब आना नहीं चाहता यहाँ।

फिर खिल-खिल हँसी — इसे तो पहचान गई होगी तुम — सादिक का गिटार, बचपन में कितने गाने सुनाता था इस पर, उसी का कमरा है यह,  वह बेंगलुरु में है- 6 महीने हो गए उसे यहाँ आए हुए, मैं गई थी उसके पास। वह आगे बढी — ये गेस्ट रूम है, ये हमारा बेडरूम —- पति ? – —  अरे तुम्हें तो पता ही है सुबह ९ बजे निकलकर रात में १० बजे ही वो घर लौटते हैं – वही हँसी, खिलखिलाहट, आँखें छिप गई।

और ये कमरा मेरी प्यारी सोन चिरैया का — सोने -सा चमकदार पिंजरा कमरे में बीचोंबीच लटक रहा था, जगह – जगह छोटे झूले लगे थे। सोन चिरैया इधर – उधर उड़ती, झूलती, दानें चुगती और पिंजरे में जा बैठती।  कमरे का दरवाजा खुला हो तब भी वह बाहर नहीं उड़ती।

सलमा बोली – दो थीं एक मर गई, ये अकेली कब तक जिएगी पता नहीं? इस बार उसकी आँखें बोलीं थी।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 34 – वापसी ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक व्यंग्यात्मक  किन्तु शिक्षाप्रद लघुकथा  “वापसी । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #34☆

 

☆ लघुकथा – वापसी ☆

 

” यमदूत ! तुम किस ओमप्रकाश को ले आए ? यह तो हमारी सूची में नहीं है. इसे तो अभी माता-पिता की सेवा करना है , भाई को पढाना है. भूखे को खाना खिलाना है और तो और इसे अभी अपना मानव धर्म निभाना है .”

” जो आज्ञा , यमराज.”

” जाओ ! इसे धरती पर छोड़ आओ और उस दुष्ट ओमप्रकाश को ले आओ. जो पृथ्वी के साथ-साथ माता-पिता के लिए बोझ बना हुआ है .”

यमदूत नरक का बोझ बढ़ाने के लिए ओमप्रकाश को खोजने धरती पर चल दिया.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ संगमरमर  ☆ डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा रचित एक सार्थक लघुकथा   “संगमरमर ”.)

☆ लघुकथा – संगमरमर 

प्रशांत ने अपनी जमापूंजी एवं लोन लेकर अपने सपनों का घर बनवाया था । उसमें अपनी पसंद के संगमरमर के पत्थर  हॉल , बेडरूम एवं बाथरूम के फर्श पर लगवाये थे। आज प्रशांत तथा रश्मि बहुत खुश थे , ग्रह प्रवेश पर उन्होंने अपने सभी रिश्तेदारों एवं मित्रों को आमंत्रित किया था । सभी उसके घर की बहुत तारीफ कर रहे थे । देर रात तक पार्टी समाप्त हुई , दोनों मेहमानों की आवभगत करते करते बहुत थक चुके थे ।

रश्मि बाथरूम गई , संगमरमरी फर्श पर पानी पड़ा होने से उसका पैर अचानक फिसला और वह सिर के बल गिरी , उसका सिर फट गया । रश्मि की चीख सुनकर वह भी हड़बड़ाहट में बाथरूम की ओर भागा , तभी उसका भी पैर फिसला तथा उसका माथा नल की टोंटी से टकराकर फट गया ।

संगमरमरी मकान में रहने का सुख भोगने के पूर्व ही दोनों संग मर गये ।

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 

37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002

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