हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ रमेश बतरा : तुम्हारा एक पुराना खत मिला है… ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय 

जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता

(15 मार्च – स्व रमेश बतरा जी की पुण्यतिथि पर विशेष)

☆ संस्मरण ☆ रमेश बतरा : तुम्हारा एक पुराना खत मिला है… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆ 

बीते बरस पर बरस पर याद और साथ बरकरार है । तुम्हारा एक पुराना खत मिला है संडे मेल के दिनों का लो पढ़ लो, तुम भी । जहां भी हो…  -कमलेश भारतीय)

@दिलशाद गार्डन से

@प्रिय कमलेश !

-तुम्हारा संग्रह ‘इस बार’ यथा समय प्राप्त हो गया था , लेकिन इधर लगातार अस्वस्थ रहने के कारण तुरंत पावती नहीं दे पाया । वैसे अभी भी छुट्टी पर हूं और डाॅक्टर की इजाजत मिली तो अगले सप्ताह से दफ्तर जाऊंगा ।

पता चला इस बीच तुम दिल्ली आये और मिले नहीं । इसकी शिकायत रहेगी ।

खैर ! ‘इस बार’ के लिये हार्दिक बधाई । इसे तुमने मेरे ही नाम करके एक तरह से मेरा मुंह ही बंद कर दिया है , वहीं यह तुम्हारा अपनापन है , अन्यथा मैंने तुम्हारे लिये ऐसा कुछ नहीं किया ! मुझे जो फर्ज लगा वही किया । यह वस्तुत: तुम्हारा अपना श्रम है और लगन जो ‘प्रयास’ से शुरू हुई , वही रंग ले रही है !

डाॅ महाराज कृष्ण जैन ने पुस्तक के बारे में बड़ी सूक्ष्मता और विद्वतापूर्ण तरीके से लिखा है । यह अच्छी तकनीक है(इस संदर्भ में ) का उदाहरण भी है । मैं यही कहूंगा कि अभी तुम्हें विकास करना है और ऐसा संग्रह देना है जो लघुकथा के आदर्श के रूप में देखा जा सके , क्योंकि इस संग्रह में भी ऐसी कथाएं हैं जो गैरजरूरी हैं -जरूरत के हिसाब से भी और प्रस्तुति के हिसाब से भी और प्रस्तुति तथा घटना की घटनात्मकता और तथ्य के यथार्थ की गहराई का कई बार यह गहराई या तो जलदबाज अंत के कारण उथला जाती है और कभी सटीक शब्दों के अभाव में तो कभी प्रतिक्रिया पाकर ! मुझे खुशी यह है कि ऐसा बहुत कम और पिछली बार से तो बहुत ही कम हुआ है !
मेरी तरफ से पुनः बधाई और शुभकामनाएं ! अवस्थी (जीतेंद्र अवस्थी ) और विजय ( संपादक विजय सहगल) को मेरा अभिवादन दें । सपरिवार स्वस्थ व आनंद होंगे । चंडीगढ़ में रम रहे होंगे तुम !

खुश ने घर बदल लिया है-1427/ 34 सी ,,,कभी कभी उसके पास चक्कर लगा लिया करो ! प्रचंड का पता मालूम हुआ ? उसके बारे में सूचना दो । सेक्टर सत्रह वाले पते से तो कोई जवाब नहीं आया ।

-तुम्हारा

रमेश बतरा ।

#रमेश बतरा अब कौन ऐसे बेबाक मेरी रचनाओं पर बात करेगा ? कितने मित्रों को याद कर लिया करते थे एकसाथ । इस पर कोई तारीख तो नहीं लेकिन यह सन् 1992 का है । ‘इस बार’ लघुकथा संग्रह इसी वर्ष आया था शुभतारिका प्रकाशन, अम्बाला छावनी से । डाॅ महाराज कृष्ण जैन से पहली बार रमेश बतरा ही मुझे मिलवाने ले गये थे । मैं भी उन दिनों दैनिक ट्रिब्यून में उपसंपादक होकर चंडीगढ़ आ चुका था । कथा कहानी साप्ताहिक पृष्ठ का संपादन मिला था मुझे जो सात वर्ष किया ।

#रमेश ! मैं आज भी खुश के घर चक्कर लगाने जाता हूं तुम कब आओगे ?

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ ‘मास्कमैन ऑफ इंडिया’ ☆ तत्सम्यक मनु ☆

☆ संस्मरण ☆ ‘मास्कमैन ऑफ इंडिया’ ☆  तत्सम्यक मनु ☆

फरवरी 2020 के किसी तारीख की बात है। मैं बिहार की राजधानी पटना से परीक्षा देकर वापस घर को लौट रहा था, जिस ट्रेन के लिए सीट आरक्षित था, कैपिटल एक्सप्रेस थी। रात्रि के 11 बजे ट्रेन आई और मैं अपने गंतव्य को जाने के लिए पूर्वयोजित सीटपर बैठ गया, जो कि लोवर बर्थ थी ! उस तारीख में भी देश में कोरोनाअपनी मायाजाल फैलाते हुए बढ़ी जा रही थी, पटना में भी वायरस आ चुके थे, सिर्फ़ प्रमाणित होना बाकी था, किन्तु मैंने दूरअंदेशी को देखते हुए मास्कलगाना शुरू कर दिया था। जिस कंपार्टमेंट में मैं बैठा था, मैंने देखा कि उस कंपार्टमेंट में ही नहीं, वरन पूरी बोगी में किसी यात्री ने मास्क पहने हुए नहीं थे। मैंने सामने की सीट पर बैठे सहयात्री भाई साहब से पूछ ही बैठा- क्या सर कोरोना चली गयी क्या ? आपने मास्क नहीं लगाया है !

रात्रि का समय होने के कारण हो या अन्य कारणवश प्रत्युत्तर में उन्होंने मुझसे कहा- अरे भई, यह कोरोना-वोरोना कुछ नहीं है ! यह सरकार और डब्ल्यूएचओ का अपनी-अपनी कमजोरी छिपाने का प्रपंचमात्र है और तुम्हें मेरे मास्क न पहनने से इतनी ही असहजता है, तो मुझे एक मास्क दे दो !

मेरे पास उस समय स्वयं पहने मास्क के अतिरिक्त, अतिरिक्त मास्क नहीं था, इसलिए मैंने बात आगे नहीं बढ़ाया और क्षमाभावसे शुभ रात्रि कहकर अपनी सीट पर चादर तान सो गया ! अहले सुबह नींद तब टूटी, जब किन्नरबंधुओं द्वारा जबरन रुपये माँगे जाने लगे थे । मैंने उन्हें मना करते हुए आगे बढ़ जाने को कहा, लेकिन उसी समय पेपरसोप बेचने वाले आए और उनसे मैंने सोप खरीदा, तो देखा कि वे उसके साथ-साथ फेसमास्क भी बेच रहे थे। मैंने उनसे बिना हुज्जत किए एकदाम 55 रुपये में एक मास्क खरीदा, ताकि सामने के सीटवाले सहयात्री भाई साहब को दे सकूँ, क्योंकि उनके द्वारा रात में मुझसे माँगे गए मास्कको गिफ़्ट के तौर पर प्रदान कर सकूँ ! सचमुच में, उनकी बातें मुझे इंस्पायर कर चुका था और मेरे दिल को स्पर्श कर चुकी थी ! 

अब सुबह के 5 बज चुके थे, किन्तु सामनेवाले यात्री मुझे दिख नहीं रहे थे। मुझे लगा वे नित्यकर्म में गए होंगे, पर काफी देर बाद भी वे जब अपनी सीट पर नहीं आए, तो मैंने अपर बर्थवाले सहयात्री से पूछा कि इस भाई साहब को नहीं देख रहा हूँ, तो उसने कहा कि वे तो 2 घंटे पहले ही उतर गए हैं !

मैंने वह मास्क उसी भाई साहब के लिए लिया था, लेकिन अपर बर्थवाले सहयात्री को मास्क देकर कहा- भैया, मास्क पहनिए। कोरोना का प्रकोप बढ़ने लगा है ! उन्होंने मास्क लेते हुए धन्यवादकहा, किन्तु अन्य यात्री मुझे देखने लगे थे कि मैं मास्क उन्हें भी दूँगा, जबकि मैंने यह मास्क उन सभी के समक्ष ही 55 रुपये खर्च कर खरीदा था और बहरहाल उन सभी यात्रियों के लिए यह खरीद पाना संभव नहीं था, किन्तु मन में यह बात ठान लिया कि अपनी संचित राशि से और खुद सीकर जरूरतमंदों के बीच मुफ़्त मास्क बाँटेंगे !

जो भी हो, नियत समय से कुछेक घंटे की देरी पर ट्रेन गंतव्य जंक्शन पर लगभग 20 मिनट के लिए रुकी रही। उस दिन घर आने तक मेरे दिमाग में यह बात जोर-जोर से चलने लगी थी कि अगर कोरोना का प्रकोप बढ़ गया, तब क्या होगा, क्योंकि लोगों के बीच खुद के द्वारा मास्क खरीदने के प्रति इच्छा तो है ही नहीं, न ही मास्क पहनने के प्रति जागरूकता है?

घर पर मैंने ट्रेन वाली घटना व मेरे विचारों को यानी मुफ़्त में मास्क वितरण करने के विचारों को परिजनों के साथ शेयर किया। मास्क खरीदने में रुपये बहुत लग जाते, किन्तु खुद और परिजनों की इच्छाशक्ति ने मन की दृढ़ता को संबल प्रदान किया, साथ ही घर पर सिलाई मशीन ऐसे समय में बड़े काम आए और हम सबने मिलकर पहले सैकड़ों, फिर हजारों और फिर लाखों मास्क सी डाले और यह कार्य अनवरत जारी है। इसके साथ ही शनै: -शनै: लाखों की संख्या में मास्क खरीदे भी गए। शुरुआत के कुछ ही दिनों में हम पारिवारिक सदस्यों ने भौतिक दूरियों का पालन करते हुए कई हज़ार मास्क निःशुल्क वितरण कर दिए !

पहले जनता कर्फ्यू, फिर पार्ट-पार्ट कर लॉकडाउन भी लगने लगी, लेकिन मार्केट आने-जाने वक़्त आस-पास के गांव के हाट में, तो कहीं भीड़-भाड़ वाले इलाकों में, तो ठेलेवालों के पास, तो कभी झालमुढ़ीवालों के पास, कभी किरानों की दुकानों में, कभी कुरियर वाले को, तो कभी विद्यालय अथवा हॉस्पिटल के क्वाराइनटाइन सेंटरों में मुफ़्त में मास्क वितरित करते रहे !

साल 2020 के अंत में बिहार विधानसभा का चुनावी माहौल होने के कारण लोगों को ज्यों-ज्यों यह भनक लगने लगा कि अब तो कोरोना की लहर घटती जा रही है, त्यों-त्यों लोगों ने मास्क पहनना छोड़ने लगे, इसके बावजूद मेरे द्वारा इस हेतु जनजागरूकता अभियान चलते रहा और हर रोज कुछ घंटों की सेवा लिए मुफ़्त मास्क वितरित करते रहा। अब मैं मेडिकेटेड मास्कों को खरीदकर भी मुफ़्त वितरित करने लगा हूँ। मेडिकेटेड मास्कों की खरीद पर जो राशि लगती है, उस राशि को मेरे हिंदी उपन्यास वेंटिलेटर इश्क़की रॉयल्टी से पूरी हो जाती है।

अब मैं खुद के शहर और खुद के राज्य से इतर भी मुसाफिर की भाँति जहाँ भी जाता, वहीं निःशुल्क मास्क वितरित करने लग जाता। पश्चिम बंगाल, झारखंड और बिहार के कई जिलों, यथा- कटिहार, पूर्णिया, भागलपुर, समस्तीपुर, पटना, सहरसा इत्यादि में मैंने जमकर निःशुल्क मास्क वितरण किये। ….परन्तु कहते हैं न अच्छे कार्य करनेवालों की अगर प्रशंसा होगी, तो आलोचना भी ! इसे आलोचना नहीं कहिए, अपितु निंदा कहिये ! लोगों ने मेरे कार्यों को न केवल पागलपन कहा। कई लोगों को जब मास्क देने जाता और कोरोनासे बचने के लिए बताते फिरता, तो वे सब कहते कि कोरोना तो भाग गया है, फिर तुम क्यों पागलोंवाला काम कर रहा है, समय और रुपयों की बर्बादी कर रहे हो ! कई लोग सामने में मास्क पहनने के लिए लेते और बगल किसी दुकान में बेच देते, कई लोग तो मुफ़्त में मिलने के कारण कई-कई मास्क ले लेते, तो कोई व्यक्ति मुझसे मास्क लेकर मेरे सामने ही फेंक देते ! कई लोग तो अज़ीब ही फरमाइश कर बैठते कि उन्हें फलाँ रंग का मास्क अच्छा नहीं लगता है, इसलिए फलाँ रंग का मास्क चाहिए ! कई महिलाएं कहतीं कि मास्क लगाने से मेकअप छिप जाएगी ! कई लोग यह भी कहते कि 10 टकिया मास्कबाँटकर दानवीर कर्ण बनते फिरते हो ! कभी-कभी मैं उन्हें जवाब दे देता कि दस टकिया मास्कहै तो क्या ? पहनो तो सही ! पहनेंगे नहीं यानी पर उपदेश कुशल बहुतेरे ! मैं तो जागरूकता के लिए यह अभियान चला रहा हूँ, ताकि लोग बीमारियों से बच सके, क्योंकि मेरे द्वारा प्रदत्त मास्कनियमित साफ-सुथरे रखने पर सप्ताह- पन्द्रह दिन आसानी से चल सकते हैं !

वहीं एक दिन जब मार्केट में मैं मुफ़्त मास्कवितरण को गया था, तो एक फल विक्रेता ने मेरे कार्यों को देखकर मुझे मास्कमैननाम दे दिया और उस दिन से मेरे दोस्त, परिजन, रिश्तेदारों और समाज के लोगों ने मुझे इसी नाम से पुकारने लगे यानी मास्कमैन ! अब तो 25 माह हो गए…. मैं अब भी हर दिन मुफ़्त मास्क वितरित करता हूँ । गणतंत्र दिवस 2021 के दिन मैंने मुफ़्त में 51 हज़ार से अधिक मास्क मात्र 8 घंटे में वितरित किया है, 75 वें स्वतंत्रता दिवस के शुभअवसर पर 75 हज़ार मास्क, तो वहीं रक्षाबंधन और शिक्षक दिवस के अवसर पर क्रमशः 15 हज़ार और 12 हज़ार मास्क निःशुल्क वितरित किया, जिसके कारण मेरा नाम लिम्का बुक ऑफ रिकार्ड्समें दर्ज होने हेतु संपादक के मेल प्राप्त हुए हैं। वहीं बिहार बुक ऑफ रिकार्ड्सऔर रिकॉर्ड्स होल्डर रिपब्लिक यूकेमें मेरे कृत्य और कीर्तिमान सहित यह उपलब्धि मास्कमैन ऑफ इंडियाके रूप दर्ज हो चुका है !

मैं अपने परिवार के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ, जो मेरे सद्कार्य में साझीदार भी बने ! मैं आभारी रहूँगा उस रेलयात्री का भी, जिसकी बातों के कारण आज मैं 22 लाख से अधिक मास्कनिःशुल्क वितरित कर चुका हूँ। मैं प्रेमश: आभारी रहूँगा, उस भिक्षुक का भी, जो मेरे पास भीख के एवज में रुपये नहीं, अपितु मास्कमाँगे ! फिर मैंने अपना संकल्प और भी दृढ़ किया कि जबतक कोरोनाजाएगी नहीं, तबतक मैं मास्कबाँटता रहूँगा !

◆◆◆

साक्ष्य:-

http://www.recordholdersrepublic.co.uk/world-record-holders/1372/t-manu.aspx

Most Distributed Free Mask By ‘MASKMAN OF INDIA’ In Corona Pandemic ~ BIHAR BOOK OF RECORDS

तत्सम्यक मनु (आत्मवृंतकार)

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ वर्तिका… निरंतरता की यात्रा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।
आज प्रस्तुत है संस्कारधानी जबलपुर की साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्था वर्तिका के 35वें वार्षिकोत्सव पर आपके संस्मरण वर्तिका… निरंतरता की यात्रा।)

ई-अभिव्यक्ति द्वारा 14 नवंबर 2018 को डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’ जी द्वारा “वर्तिका” पर आधारित आलेख आप निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

संस्थाएं – वर्तिका (संस्कारधानी जबलपुर की साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्था) – डॉ विजय तिवारी “किसलय”

☆ संस्मरण ☆ वर्तिका… निरंतरता की यात्रा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(यह एक संयोग है की 1981-82 में मैंने वाहन निर्माणी प्रबंधन के सहयोग तथा स्व. साज जबलपुरी जी एवं मित्रों के साथ साहित्य परिषद, वाहन निर्माणी, जबलपुर की नींव रखी थी। 1983 के अंत में जब स्व साज भाई के मन में वर्तिका की नींव रखने के विचार प्रस्फुटित हो रहे थे, उस दौरान मैंने भारतीय स्टेट बैंक ज्वाइन कर लिया। नौकरी के सिलसिले में जबलपुर के साथ साज भाई का साथ भी छूट गया। 34 वर्षों बाद जब डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’ जी और वर्तिका के माध्यम से  पुनः मिलने का वक्त मिला तब तक काफी देर हो चुकी थी। स्व साज भाई, श्री एस के वर्मा, श्री सुशील श्रीवास्तव, श्री एच एस खरे, श्री इन्द्र बहादुर श्रीवास्तव और मित्रों के साथ ‘प्रेरणा’ पत्रिका के प्रकाशन एवं वाहन निर्माणी इस्टेट सामाजिक सभागृह में आयोजित अखिल भारतीय कवि सम्मेलनों के आयोजन के लिए दिन-रात की भाग-दौड़ के पल आज मुझे स्वप्न से लगते हैं और वर्तिका की वर्तमान जानकारी साझा करना मेरा व्यक्तिगत दायित्व लगता है।) 

वर्तिका… निरंतरता की यात्रा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र

१९९४, मैं मण्डला में पदस्थ था. अभिरुचि के अनुरूप लेखन, प्रकाशन के कार्य चल रहे थे. एक दिन अचानक फोन की घंटी बजती है, दूसरी ओर से आवाज आती है ” मैं साज जबलपुरी, वर्तिका, जबलपुर से बोल रहा हूं. आपका कविता संग्रह आक्रोश पढ़ा. हम वर्तिका के वार्षिकोत्सव में आपको सम्मानित करना चाहते हैं. क्या आप जबलपुर आ सकेंगे ?  मैंने सहर्ष स्वीकृति दे दी. रचनाकार को साहित्य जगत में उसकी रचनाओ के जरिये मान्यता मिले इससे बड़ा भला क्या सम्मान हो सकता है ! नियत तिथि, समय पर मैं रानी दुर्गावती संग्रहालय जबलपुर  के सभागार में पहुंचा. द्वार पर ही गुलाब के पुष्प से हमारा स्वागत किया गया, स्मरण नही पर संभवतः झौये से निकाल कर हर प्रवेश करने वाले को पुष्प देते हुये ये शायद विजय नेमा अनुज, और डा विजय तिवारी, सुशील श्रीवास्तव ही थे. इन सबसे यह मेरा प्रथम परिचय था, जो संबंध आज मेरी पूंजी बन चुका है.

इससे पहले भी मैने भोपाल, दिल्ली,  इलाहाबाद में अनेक बड़े साहित्यिक आयोजनो में कई भागीदारियां की थी पर  किसी साहित्यिक आयोजन में और वह भी गैर सरकारी, स्वागत की यह शैली सचमुच अद्भुत थी, जो मेरे लिये चिर स्मरणीय बन गई.

बाद में  मेरे जबलपुर स्थानातरण पर वर्तिका के अध्यक्ष और फिर  प्रांतीय अध्यक्ष के रूप में मुझे कार्य करने के अवसर मिले.

जब पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है कि ऐसे ही छोटे छोटे प्रयोग और आत्मीयता, से  सबको अवसर, सबको सम्मान, सबको जोड़ना वर्तिका की विशिष्टता है.

वर्तिका  पंजीकृत सक्रिय साहित्यिक, सामाजिक, सांस्कृतिक संस्था है.संस्था की निरंतर आयोजन क्षमता उसकी सबसे बड़ी विशेषता है. संस्था ने जबलपुर में विगत अनेक वर्षो से प्रति माह अंतिम रविवार को मासिक काव्य गोष्ठी आयोजित कर एक रचनात्मक वातावरण बनाया है. बिना विवाद के वर्षो से ऐसे आयोजन निर्विघ्न होते रहना अद्भुत रिकार्ड  है.  जिन साहित्यकारो का जन्म दिवस जिस माह में होता है उनकी रचनाओ पर आधारित काव्य पटल का विमोचन शहर की साहित्यिक गतिविधियो के केंद्र ड्रीमलैंड फन पार्क में किया जाता था, जिसे ड्रीम लैंड फन पार्क के विस्थापन के बाद प्रतिष्ठित शहीद स्मारक में लगाया जाने लगा है. जहां यह काव्य पटल पूरे माह आम जनता के लिये पठन और मनन हेतु प्रदर्शित रहता है.आज जब पाठको की कमी होती जा रही है, ऐसे समय में नई पीढ़ी को साहित्य से जोड़ने के लिये बड़े बैनर में कविता प्रकाशित कर उसे सार्वजनिक स्थल पर प्रदर्शित करने की वर्तिका की पहल ने साहित्य प्रेमियों का ध्यान खींचा है. काव्य गोष्ठी का आयोजन डा बी एन श्रीवास्तव चेरिटेबल ट्रस्ट मदन महल, ड्रीमलैण्ड फन पार्क के नये स्थान देवताल के सामने फिर हरिशंकर परसाई भवन  भातखण्डे विद्यालय, जानकी रमण महाविद्यालय, आनलाइन आदि स्थलों पर निरंतर रूप से जारी है. बीच बीच में किसी रचनाकार के निवास पर भी आयोजन होते रहे हैं, जिनमें विजय नेमा अनुज, डा विजय तिवारी, स्व सुनिता मिश्रा  के घर पर भी आयोजन संपन्न हुये हैं.

वर्तिका ने समय समय पर युवा रचनाकारो के मार्गदर्शन हेतु गजल कैसे लिखें ? दोहा कैसे लिखें ?, जैसे विषयों पर विद्वानो की कार्यशालायें आयोजित कर एक अलग क्रियाशील पहचान बनाई है.

प्रत्येक वर्ष संस्था वार्षिकोत्सव भी मनाती है. जिसमें संस्था  देश के विभिन्न अंचलो से अनेक रचना धर्मियो को आमंत्रित कर उनका सम्मान करती है.  वर्तिका से सम्मानित विद्वानो में स्व चंद्रसेन विराट, साहित्य अकादमी के निदेशक डा त्रिभुवन नाथ शुक्ल भोपाल,प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव,”विदग्ध”,आचार्य भगवत दुबे, श्री संजीव सलिल,दिल्ली के श्री जाली अंकल, हैदराबाद के स्व विजय सत्पट्टी, श्री अनवर इस्लाम, श्री कुंवर प्रेमिल डेली हंट के स्व आभास चौबे आदि कई विद्वान शामिल हैं.

इसके अतिरिक्त समाज के विभिन्न क्षेत्रो जैसे शिक्षा, चिकित्सा, समाज सेवा, आदि में महत्वपूर्ण योगदान करने वाली विभूतियो को भी समाज के ही लोगो से सहयोग लेकर अलंकृत करने की  परम्परा है. जिससे ऐसे लोग दूसरो के लिये उदाहरण बनते हैं और उन्हें  अपने कार्यो को बढ़ाने के लिये प्रोत्साहन मिलता है. शिक्षा  के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान करने वालो को शिक्षाविद् श्रीमती दयावती श्रीवास्तव स्मृति  वर्तिका शिक्षा अलंकरण, चिकित्सा के क्षेत्र में डा बी एन श्रीवास्तव स्मृति अलंकरण अन्य सामाजिक गतिविधियों हेतु भी संस्था उल्लेखनीय कार्यो के लिए सम्मानित करती आ रही है.जो सुधीजन अपने स्वजनो की स्मृति में ये अवार्ड प्रदान करना चाहते हैं  उनसे वर्तिका के पदाधिकारी  संपर्क कर सहयोग राशि लेकर सम्मान आयोजित करते  हैं.

इस हेतु साहित्य प्रेमियो से प्रकाशित किताबो या निरंतर साहित्य सेवा के अन्य साक्ष्य सहित नामांकन आमंत्रित किये जाते  हैं. नामांकन हेतु कोई शुल्क न होना वर्तिका की खासियत है. नामांकन स्वयं या कोई भी साहित्य प्रेमी कर सकता है. नामांकन सादे कागज पर स्वयं का तथा नामांकित व्यक्ति या संस्था का पूर्ण विवरण लिखते हुये संस्था के पदाधिकारियो के पास भेजने होते हैं.  एक और विशेषता है कि वर्तिका साहित्य व समाज सेवा के क्षेत्र में सक्रिय संस्थाओ को भी पुरस्कृत करती  है. गुंजन, गरीब नवाज कमेटी, प्रसंग, जागरण, एकता और शक्ति मंच आदि को वर्तिका सम्मान  प्राप्त हो चुके हैं.

वर्तिका की एक उच्चस्तरीय चयन समिति  प्राप्त नामांकनो तथा स्वप्रेरणा से  व्यक्तियो व संस्थाओ के योगदान के आधार पर अवार्ड का निर्णय करती है. निर्णायको में हमारे संरक्षक,पदाधिकारी व  वरिष्ठ  साहित्यकार प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध आदि रह चुके हैं.

इस अवसर पर सामूहिक काव्य संकलन, वार्षिक स्मारिका का प्रकाशन भी होता है. श्री विजय नेमा अनुज का सहयोग इस प्रकाशन में  अदभुत समर्पण और लगन का रहा है. वार्षिकोत्सव में इसका विमोचन अतिथियो के द्वारा किया जाता है. वर्तिका को कोई उल्लेखनीय वित्तीय सहयोग शासन से कभी नही मिला, हमारी वित्त पोषण व्यवस्था परस्पर आंतरिक सहयोग पर आधारित है, संरक्षक एक मुश्त राशि सहयोग स्वरूप देते हैं,जिसे बैंक में वर्तिका के खाते में जमा कर दिया जाता है, समय समय पर उसका उपयोग ही समिति की अनुशंसा पर किया जाता है. सदस्यता शुल्क, मासिक गोष्ठी में काव्य पटल शुल्क, तथा विशेष आयोजनो के लिये सदस्यो से स्वेच्छा से दी गई राशि से ही संस्था चलाई जा रही है.

संस्था के आयोजनो का साहित्यिक स्तर अति विशिष्ट रहा है. हमसे जुड़े अनेक रचनाकार राष्ट्रीय व वैश्विक क्षितिज पर महत्वपूर्ण साहित्यिक प्रतिष्ठा अर्जित करते दिखते हैं. हमारी एक विशेषता यह भी है कि जो हमसे एक बार जुड़ जाता है, हम उससे निरंतर जुड़े रहते हैं, स्व अंशलाल पंद्रे आजीवन हमसे जुड़े रहे,जबलपुर में कमिश्नर रहे श्री मदन मोहन उपाध्याय, श्री वामनकर  ढ़ेरो ऐसे नाम हैं जो वर्तिका से लंबे समय से जुड़े रहे हैं. न केवल साहित्यिक वरन पारिवारिक उत्सवो सहित जीवन के हर सुख दुख के क्षेत्र मे  वर्तिका के सदस्य परस्पर प्रेम भाव से जुड़े दिखते हैं यही संबंध वर्तिका की वास्तविक पूंजी है.

मैं वर्तिका से जुड़े रहने में गर्व महसूस करता हूं. व वर्तिका की उत्तरोत्तर प्रगति की कामना करता हूं. इस वर्ष मैं संस्था के आयोजन में यहां न्यूजर्सी अमेरिका से अपने शब्दों और पुरानी यादों के इस लेख से ही अपनी सहभागिता कर पा रहा हूं. सभी सम्मानितो को बधाई और आयोजन की सफलता की मंगलकामनाएं

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

वर्तमान में न्यूजर्सी अमेरिका

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – पुनर्पाठ- वह निर्णय ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ मार्गशीष साधना🌻

आज का साधना मंत्र  – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – पुनर्पाठ- वह निर्णय ??

स्मृतियों की स्क्रीन पर अबाध धाराप्रवाह चलते रहनेवाला धारावाहिक होता है बचपन। आँखों की हार्ड डिस्क में स्टोर होता है अतीत और विशेषता यह कि डिस्क हमारी कमांड की गुलाम नहीं होती। आज कौनसा महा एपिसोड चलेगा, इसका निर्णय आँख का मीत मन करता है।

एकसाथ कुछ एपिसोड सामने आ रहे हैं। दो तो ट्रेलर हैं, एक मुख्य एपिसोड है। पुणे में चौथी कक्षा में पढ़ने का चित्र घूम रहा है। कमांड हॉस्पिटल के रेजिमेंटल स्कूल की पिद्दी-सी कैंटीन में मिलनेवाली टॉफी की गंध आज भी नथुनों में बसी है। बहुत हद तक पारले की आज की ‘किस्मी’ टॉफी जैसी। सप्ताह भर के लड़ाई-झगड़े निपटाने के लिए शनिवार का दिन मुकर्रर था। शनिवार को स्कूल जल्दी छूटता। हम सब उस दिन हंटर (उन दिनों हम छात्रों में बेल्ट के लिए यही शब्द प्रचलित था) लगाकर जाते। स्कूल से कुछ दूर पर पेड़ों की छांव में वह जगह भी तय थी जहाँ हीरो और विलेन में भिड़ंत होनी होती। कभी-कभी टीम बनाकर भी भव्य (!) युद्ध होता। विजेता टीम या नायक की वीरता की चर्चा दबी ज़ुबान में सप्ताह भर कक्षा के लड़कों में होती। हाँ, आपसी समझदारी ऐसी कि सारी मार-कूट शनिवार तक ही सीमित रहती और सोमवार से शुक्रवार फिर भाईचारा!

दूसरा ट्रेलर लखनऊ का है। पिता जी का पोस्टिंग आर्मी मेडिकल कोर्प्स के सेंटर, लखनऊ आ गया था। हम तो वहाँ पहुँच गए पर घर का लगेज संभवत: चार महीने बाद पहुँचा। मालगाड़ी कहाँ पड़ी रही, राम जाने! माँ के इष्ट हनुमान जी हैं (हनुमान जी को पुरुषों तक सीमित रखनेवाले ध्यान दें)। हमें भी उन्होंने हनुमान चालीसा और संकटमोचन रटा दिये थे। मैं और बड़े भाई मंगलवार और शनिवार को पाठ करते। उसी दौरान माँ ने बड़े भाई को ‘हरहुँ नाथ मम संकट भारी’ की जगह ‘करहुँ नाथ मम संकट भारी’ की प्रार्थना करते सुना। माँ को दृढ़ विश्वास हो गया कि लगेज नहीं आने और तत्सम्बंधी अन्य कठिनाइयों का मूल इस निष्पाप और सच्चे मन से कहे गये ‘ करहुँ नाथ..’ में ही छिपा है!

अब एपिसोड की बात! सैनिकों के बच्चों की समस्या कहिये या अवसर कि हर तीन साल बाद नई जगह, नया विद्यालय, नये मित्र। किसी के अच्छा स्कूल बताने पर ए.एम.सी. सेंटर से लगभग दो किलोमीटर दूर तेलीबाग में स्थित रामभरोसे हाईस्कूल में पिता जी ने प्रवेश दिलाया। लगभग साढ़े ग्यारह बजे प्रवेश हुआ। स्कूल शायद डेढ़ बजे छूटता था। पिता जी डेढ़ बजे लेने आने की कहकर चले गए। कपड़े के थैले में कॉपी और पेन लिए मैं अपनी कक्षा में दाखिल हुआ। कॉपी के पहले पृष्ठ पर मैंने परम्परा के अनुसार श्री गणेशाय नमः लिखा था। विशेष याद ये कि बचपन में भी मैंने पेंसिल से कभी नहीं लिखा। जाने क्या था कि लिखकर मिटाना कभी रास नहीं आया। संभवतः शिक्षित पिता और दीक्षित माँ का पाठ और किसी जन्म का संस्कार था कि ‘अक्षर, अक्षय है, अक्षर का क्षरण नहीं होता’ को मैंने लिखे को नहीं मिटाने के भाव में ग्रहण कर लिया था।

कुछ समय बाद शिक्षक आए। सुलेख लिखने के लिए कहकर चले गए। साथ के छात्र होल्डर से लिख रहे थे। मैंने जीवन में पहली बार होल्डर देखा था। शायद अक्षर सुंदर करने के लिए उसका चलन था। मैंने पेन से सुलेखन किया। लगभग एक बजे शिक्षक महोदय लौटे। हाथ में एक गोल रूलर या एक-डेढ़ फीट की बेंत भी कह सकते हैं, लिए कुर्सी पर विराजे। छात्र जाते, अपनी कॉपी दिखाते। अक्षर सुंदर नहीं होने पर हाथ पर बेंत पड़ता और ‘सी-सी’ करते लौटते। मेरा नम्बर आया। कॉपी देखकर बोले,‘ जे रामभरोसे स्कूल है। इहाँ पेन नाहीं होल्डर चलता है। पेन से काहे लिखे? हाथ आगे लाओ।’ मैंने स्पष्ट किया कि डेढ़ घंटे पहले ही दाखिला हुआ है, जानकारी नहीं थी। अब पता चल गया है तो एकाध दिन में होल्डर ले आऊँगा।…‘बचवा बहाना नहीं चलता। एक दिन पहिले एडमिसन हुआ हो या एक घंटे पहिले, बेंत तो खाना पड़ेगा।’ मैंने बेंत खाने से स्पष्ट इंकार कर दिया। उन्होंने मारने की कोशिश की तो मैंने हाथ के साथ पैर भी पीछे खींच लिए। कपड़े का बैग उठाया और सीधे कक्षा से बाहर!..‘कहाँ जा रहे हो?’ पर मैं अनसुनी कर निकल चुका था। जिन्होंने एडमिशन दिया था, संभवतः हेडमास्टर थे, बाहर अहाते में खड़े थे। अहाते में छोटा-सा गोल तालाब-बना हुआ था, जिसमें कमल के गुलाबी रंग के फूल लगे थे। प्रवेश लेते समय जो परिसर रम्य लगा था, अब स्वाभिमान पर लगी चोट के कारण नेत्रों में चुभ रहा था। हेडमास्टर अपने में ही मग्न थे, कुछ बोले नहीं। शिक्षक महोदय ने भी अब तक कक्षा से बाहर आने की जहमत नहीं उठाई थी। हो सकता है कि वे निकले भी हों पर हेडमास्टर कुछ पूछते या शिक्षक महोदय कार्यवाही करते, लम्बे डग भरते हुए मैं स्कूल की परिधि से बाहर हो चुका था।

एक और संकट मुँह बाए खड़ा था। स्कूल से घर का रास्ता पता नहीं था। पिता जी के साथ दोपहिया पर आते समय थोड़ा अंदाज़ा भर आया था। मैंने उसी अंदाज़े के अनुसार कदम बढ़ा दिये। अनजान शहर, अनजान रास्ता पर अनुचित को स्वीकार नहीं करने की आनंदानुभूति भी रही होगी। अपरिचित डगर पर लगभग एक किलोमीटर चलने पर ए.एम.सी. सेंटर की कम्पाउंड वॉल दिखने लगी। जान में जान आई। चलते-चलते सेंटर के फाटक पर पहुँचा। अंदर प्रवेश किया। शायद डेढ़ बजने वाले थे। पिता जी आते दिखे। मुझे घर के पास आ पहुँचा देखकर आश्चर्यचकित हो गए। पूछने पर मैंने निर्णायक स्वर में कहा,‘ मैंने ये स्कूल छोड़ दिया।’

बाद में घर पर सारा वाकया बताया। आखिर डी.एन.ए तो पिता जी का ही था। सुनते ही बोले, ‘सही किया बेटा। इस स्कूल में जाना ही नहीं है।’ बाद में सदर बाज़ार स्थित सुभाष मेमोरियल स्कूल में पाँचवी पढ़ी। छठी-सातवीं मिशन स्कूल में।

आज सोचता हूँ कि वह स्कूल संभवतः अच्छा ही रहा होगा। शिक्षक महोदय कुछ गर्म-मिज़ाज होंगे। हो सकता है कि बाल मनोविज्ञान के बजाय वे अनुशासन के नाम पर बेंत में यकीन रखते हों। जो भी हो, पिता जी के पोस्टिंग के साथ स्कूल बदलने की परंपरा में किसी ’फर्स्ट डे-फर्स्ट शो’ की तरह पहले ही दिन डेढ़ घंटे में ही स्कूल बदलने का यह निर्णय अब भी सदा याद आता है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ न्यू जर्सी से डायरी… 22 – हेलो हेलोवीन ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी विदेश यात्रा के संस्मरणों पर आधारित एक विचारणीय आलेख – ”न्यू जर्सी से डायरी…”।)

? यात्रा संस्मरण ☆ न्यू जर्सी से डायरी… 22 ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ?

हेलो हेलोवीन

पूर्वजों की आत्मा की शांति और उनके सुस्मरण के लिए पितृ पक्ष के १५ श्राद्ध दिवस भारत में मानने की परंपरा है ।

यहां पूर्वजों के प्रति सम्मान प्रगट करने अक्तूबर माह के अंतिम रविवार को हेलोवीन त्यौहार मनाया जाता है. जहां अन्य त्यौहारों में नए-नए कपड़े पहनते हैं, वहीं हेलोवीन में लोग ऐसे कपड़े और मेकअप करते हैं जिससे वो डरावने लगें. शायद मृत्यु से भय मिटाने के संस्कार इस बहाने पीढ़ी दर पीढ़ी दिए जाते हैं ।

बाजारवाद ने हेलोवीन को चमक धमक दे रखी है , डरावने तरीके से घर की बाहर भीतर साज सज्जा लाइटिंग आदि काफी पहले से की जा रही है । हेलोवीन थीम पार्टियां आयोजित की जाती हैं । हेलोवीन नाइट के बाद दूसरे दिन आल सैंट्स डे मनाया जाता है। पूर्वजों की आत्मा की शांति हेतु मनाए जाने वाले हेलोवीन की सजावट घरों में होने लगी है , दुकानों में भूत , स्केलेटन , डरावनी सजावट , चाकलेट , केक और असली , नकली कद्दू खूब बिक रहे हैं।

तरीका भिन्न हो सकता है किंतु पूर्वजों का स्मरण उनकी शांति की प्रार्थना हमारे उनसे जुड़ाव का प्रतीक है ही ।

विवेक रंजन श्रीवास्तव, न्यूजर्सी

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग -9 – परदेश में स्वदेश ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 9 – परदेश में स्वदेश  ☆ श्री राकेश कुमार ☆

खरीदारी अब आवश्यकता के स्थान पर आनंद (मज़ा) प्राप्त करने का साधन होती जा रही हैं। यात्रा के वातानुकूलित साधन, सजे हुए बाज़ार, जेब में रखे हुएं नाना प्रकार के उधार कार्ड, शायद ये ही वर्तमान है।

हम को बचपन से ही एक बात बताई गई थी कि “जितनी चादर हो उतने पैर पसारने चाहिए” शायद अब ये शिक्षा समय के साथ दफ़न हो चुकी है।

घर के उपयोग की स्वदेशी वस्तुएं किराना इत्यादि का सामान परदेश में भी उपलब्ध करवाने  के लिए पचास वर्ष पूर्व अमेरिका में पटेल परिवारों ने गुजरात से आकर यहां के विभिन्न शहरों में अपनी दुकानें स्थापित कर दी हैं। स्वदेशी समान में भारत निर्मित बिस्कुट (पारले-जी, गुड डे) नमकीन, क्या कुछ नहीं विक्रय करते हैं, पटेल की दुकानों पर, सब्जी, मसाले, पूजा सामग्री इत्यादि की उपलब्धता देश के स्वाद और जीवन शैली को जीवित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहीं हैं।

वहां गर्म समोसे “पंजाबी समोसे” के नाम से उपलब्ध थे। हमे मुम्बई की याद आ गई, वहां भी बड़े आकार के समोसे को पंजाबी समोसे के नाम से विक्रय किया जाता है। उत्तर और मध्य भारत में भी सिर्फ समोसा नाम ही चलता हैं। पूर्वी भाग में अवश्य सिंघाड़े के नाम से सेवन किया जाता हैं। यहां पर गुड और अदरक के बेकरी में निर्मित बिस्कुट भी मिल रहे थे। देश में भी दूरबीन से ढूंढने से भी नहीं मिलते हैं। हजारों मील दूर पूरे देश की विभिन्न वस्तुएं उपलब्ध करवाने के लिए पटेल बंधुओं की लगन और मेहनत को सलाम।

इन के अलावा भी “इंडियन स्पाइस स्टोर” के नाम से अधिकतर दक्षिण भारतीय भी  देश की परंपराएं और स्वाद को बरकरार रखने में सहयोग कर रहे हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संस्मरण – मेरे शिक्षक ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज की साधना

श्रीगणेश साधना, गणेश चतुर्थी तदनुसार बुधवार 31अगस्त से आरम्भ होकर अनंत चतुर्दशी तदनुसार शुक्रवार 9 सितम्बर तक चलेगी।

इस साधना का मंत्र होगा- ॐ गं गणपतये नमः

साधक इस मंत्र के मालाजप के साथ ही कम से कम एक पाठ अथर्वशीर्ष का भी करने का प्रयास करें। जिन साधकों को अथर्वशीर्ष का पाठ कठिन लगे, वे कम से कम श्रवण अवश्य करें। उसी अनुसार अथर्वशीर्ष पाठ/ श्रवण का अपडेट करें।

अथर्वशीर्ष का पाठ टेक्स्ट एवं ऑडियो दोनों स्वरूपों में इंटरनेट पर उपलब्ध है।

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – संस्मरण – मेरे शिक्षक  ??

स्मृतियों का चक्र चल रहा है, याद आ रहा है 1980 और खडकी, पुणे स्थित मिलिटरी फॉर्म हाईस्कूल। मैं दसवीं में था। विद्यालय में दसवीं का यह पहला बैच था।

इस विद्यालय ने जीवन को ठोस आकार दिया। प्रधानाध्यापक के रूप में श्रद्धेय सत्यप्रकाश गुप्ता सर मिले जिनकी पितृवत छाया हमेशा सिर पर रही। कक्षाध्यापिका के रूप में सौ. हरीश भसीन मैडम मिलीं जो ऊपरी तौर पर सख़्त रहतीं पर भीतर से मोम थीं। इतिहास शिक्षिका के रूप में सौ. अमरजीत वालिया मैडम मिलीं जिन्होंने विद्यालय में अधिकांश समय मेरे लिए माँ की भूमिका निभाईं। सौ. आरती जावड़ेकर मैडम ने भीतर के कलाकार को विस्तार दिया। इन सबसे जुड़ी घटनाओं का भविष्य में किसी स्मृति लेख में उल्लेख होगा, आज की घटना के केंद्र में हैं देशमाने सर।

देशमाने सर, पंवार सर, गाडगील सर, उस्मानी सर का विद्यालय में चयन हमारे नौवीं उत्तीर्ण होने के बाद हुआ था। ज़ाहिर था कि दसवीं में अनेक शिक्षक हमारे लिए नये थे। इन नए शिक्षकों में देशमाने सर सर्वाधिक अनुभवी और वरिष्ठ थे।

देशमाने सर अँग्रेज़ी पढ़ाते थे। अध्यापन उनकी रगों में कूट-कूटकर भरा था। अनुभव ऐसा कि बिना पुस्तक खोले ‘पेज नं फलां, लाइन नं फलां, बोर्ड की परीक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण है’, बता देते। वे हरफनमौला थे। ‘खेल-खेल में अध्यापन’ के जिस मॉडल के मूलभूत तत्वों पर हम आज सेमिनार करते हैं, वे आज से चार दशक पूर्व उसे जीते थे। अपने कुछ निजी कारणों से वांछित तरक्की नहीं कर पाए। इसे भूलाकर सदा कहते, ‘कोई माने न माने, हमें तो देश मानता है।’

अलबत्ता देश के स्तर पर अपनी पहचान स्थापित करने की चाह रखने वाले देशमाने सर ने एक घटनाक्रम में मुझ विद्यार्थी के स्वतंत्र अस्तित्व को ही मानने से इंकार कर दिया था।

हुआ कुछ ऐसा कि शिक्षक दिवस निकट था। मैं दसवीं और नौवीं के छात्रों को साथ लेकर एक सांस्कृतिक आयोजन करवा रहा था। संभवतः सर ने पहले के विद्यालयों में वर्षों सांस्कृतिक विभाग का काम देखा हो। फलतः मन ही मन मुझसे कुछ रुष्ट हो गये हों। सही कारण तो मैं आज तक नहीं जानता पर आयोजन से एकाध दिन पहले वे धड़धड़ाते हुए रिहर्सल वाले क्लासरूम में आए और मेरी क्लास लेने लगे। बकौल उनके मुझे उनसे आयोजन के लिए मार्गदर्शन लेना चाहिए था। आयोजन चूँकि शिक्षक दिवस का था, शिक्षकों के लिए था, हम विद्यार्थी उसे ‘सरप्राइज’ रखना चाहते थे। हम लोग किशोर अवस्था में थे। सर के अप्रत्याशित आक्रमण ने स्वाभिमान को गहरी ठेस पहुँचाई। हमने बड़े परिश्रम से कार्यक्रम तैयार किया था। जुगाड़ लगाकर आवश्यक वेशभूषा की व्यवस्था भी की थी। मैंने इस क्लेशदायी घटना का विरोध जताने के लिए स्कूल यूनिफॉर्म में ही कार्यक्रम करने का मन बनाया। छात्र समूह अंगद के पाँव की तरह मेरे साथ खड़ा था।

शिक्षक दिवस का कार्यक्रम प्रभावी और बेहद सफल रहा। बहुत प्रशंसा मिली। कार्यक्रम के बाद मैदान से हम अपनी-अपनी कक्षाओं में लौट रहे थे। मैं प्रसन्न तो था पर दुख भी था कि वेशभूषा के साथ किया होता तो प्रभाव और बेहतर होता।

अपने विचारों में मग्न चला जा रहा था कि एक स्वर ने रोक दिया। यह देशमाने सर का स्वर था। मुझे ठहरने का इशारा कर वे गति से मेरी ओर आ रहे थे। अपरिपक्व आयु ने सोचा कि कृति से तो उत्तर दे दिया पर अब इन्होंने कुछ कहा तो शाब्दिक प्रत्युत्तर भी दिया जाएगा। देशमाने सर निकट आए, हाथ मिलाया, बोले, ”तूने मुझे ग़लत साबित कर दिया। मैं तेरी प्रतिभा से आश्चर्यचकित हूँ। ” मैं सन्न रह गया। समझ में नहीं आया कि क्या कहूँ? कुछ रुक कर गंभीर स्वर में बोले, ”लेकिन संजय बेटा!मेरी एक बात याद रखना।….जीवन में तू जिनके साथ चलेगा, वे थोड़े दिनों में तेरे दुश्मन हो जायेंगे।….तेरे चलने की गति बहुत तेज़ है। साथ के लोग पीछे छूटते जाएँगे। जो पीछे छूटेंगे, वे दुश्मन हो जायेंगे।”

तब सर का वाक्य समझ में नहीं आया था। आज बयालीस वर्ष बाद पीछे पलट कर देखता हूँ, विनम्रता से विश्लेषण करता हूँ तो सर का कथन ब्रह्मवाक्य-सा साकार खड़ा दिखता है। अब तक की यात्रा ने काम करते रहने की संतुष्टि दी, मित्र दिए, साथी दिए। बहुत कुछ मिला पर सब कुछ की कीमत पर।

सर, मैंने आपको ग़लत साबित करने की फिर से भरसक कोशिश की। अर्जुन ने योगेश्वर से पूछा था कि यदि मेरे अपने ही साथ नहीं तो यात्रा किसलिए? मैं किस गति से चला, पता नहीं पर साथियों को साथ लेकर चलने का प्रयास किया। तब भी कुछ ने अलग-अलग पड़ाव पर अपनी राह अलग कर ली।

कालांतर में 4 अगस्त 2017 को इसी टीस ने एक कविता को भी जन्म दिया-

सारे मुझसे रुष्ट हैं
जो कभी साथ थे,
आरोप है-
मैं तेज़ चला और
आगे निकल गया,
तथ्य बताते हैं-
मेरी गति सामान्य रही
वे धीमे पड़ते गये
और पिछड़ गये!

वेदना है पर नश्वर जगत में किंचित भी नित्य हो पाए तो यह चोला सफल है। अपनी सहज गति से यथासंभव चलते रहना ही नीति और नियति दोनों को वांछित है।

बाद में इस कदमताल को पहली बार आकाशवाणी तक पहुँचाने में देशमाने सर ही मार्गदर्शक सिद्ध हुए।

देशमाने सर, देश माने न माने, मैं आपको मानता हूँ!

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ शिक्षक दिवस विशेष – पिता की अभिलाषा – अब्राहम लिंकन ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆

श्री अजीत सिंह

(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन) हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं।  इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज प्रस्तुत है अविस्मरणीय संस्मरण  ‘शिक्षक दिवस विशेष – पिता की अभिलाषा – अब्राहम लिंकन । हम आपसे आपके अनुभवी कलम से ऐसे ही आलेख समय समय पर साझा करते रहेंगे।)

अमेरिका के 16वें राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन (1861-65)

☆ संस्मरण ☆ शिक्षक दिवस विशेष – पिता की अभिलाषा – अब्राहम लिंकन ☆  श्री अजीत सिंह ☆

एक पिता जब अपने पुत्र को स्कूल में दाखिल करने जाता है तो वह कामना करता है कि अध्यापक सभी श्रेष्ठ गुण उसके पुत्र में डाल दे।

अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने इसी भावना को लेकर अपने पुत्र के अध्यापक को एक पत्र लिखा जो प्राय: हर पिता की कामना को बड़े ही प्रभावी ढंग से उल्लेखित करता है। अध्यापक दिवस पर इस पत्र का हर बार जिक्र होता है। पत्र अंग्रेज़ी भाषा में है। प्रस्तुत है इसका हिंदी  अनुवाद ।

माननीय अध्यापक जी,

आज मेरा बेटा स्कूल में पढ़ने जा रहा है, इसे प्यार से वह सब पढ़ाइए, जो इसे पढ़ना चाहिए।

जीवन संघर्ष में इसे सात समुंदर पार भी जाना पड़ सकता है, हो सकता है उसे युद्ध, विपदाओं और संकटों का सामना भी करना पड़े,  इस के लिए उसे आत्मविश्वास, हौसले और प्यार की जरूरत होगी, अत: हे अध्यापक महोदय, कृपया उसका हाथ थामिए और सहज भाव से उसे वे सब गुण सिखाइए जो उसे सीखने चाहिएं।

उसे यह भी बताना कि जहां दुश्मन होते हैं, वहां दोस्त भी होते हैं। उसे यह भी पता होना चाहिए कि सभी आदमी सही नहीं होते, सभी आदमी सच्चे भी नहीं होते। पर जहां एक दुष्ट मानव होता है, वहां एक श्रेष्ठ नायक भी होता है। एक बेईमान राजनीतिज्ञ  होता है तो एक निष्ठावान नेता भी होता है।

अध्यापक महोदय, मेरे बेटे को यह भी शिक्षा देना कि अपनी कमाई के दस पैसे, कहीं से मुफ्त में मिले एक रूपये से कहीं बेहतर होते हैं। उसे यह भी बताना कि- परीक्षा में नकल करने की बजाए फेल हो जाना, कहीं अधिक सम्मानजनक होता है। यह भी समझाना कि हार को किस तरह सम्मानपूर्वक स्वीकार करना है, और जीत का आनंद कैसे उठाना है। उसे समझाना कि आम लोगों के साथ नरमी से पेश आए, पर टेढ़े लोगों के साथ सख्ती से पेश आए।

अध्यापक महोदय, मेरे बेटे को ईर्ष्या से दूर रहना सिखाना, उसे मंद मुस्कान का रहस्य भी समझाना। उसे सिखाना उदासी के समय मुस्कुराना, आंख में आंसू आने पर नहीं शर्माना, यह भी आप उसे बतलाना। उसे बताना कि असफलता में भी गरिमा हो सकती है, और सफलता में दुख भी जुड़ा हो सकता है। मेरे बेटे को सनकी लोगों से दूर रहना भी सिखाना।

पुस्तकों के चमत्कार से उसका परिचय कराना, आकाश में उड़ते परिंदों के रहस्य समझाना, पर्वत घाटियों में उगते फूलों को दिखाना, मधुमक्खियों के संगीत को समझाना।
उसे बताना कि वह अपने विचारों व आदर्शों पर पूरा यकीन रखते हुए अडिग रहे, भले ही पूरी दुनिया उसे गलत कहे।

अध्यापक महोदय, मेरे बेटे को समझाना कि वह औरों की तरह भीड़ के पीछे न चले, उसे शिक्षा देना कि वह हर किसी की बात सुने, उसे सत्य की कसौटी पर परखे और केवल अच्छाई ग्रहण करे। उसे सिखाना कि वह अपने दिमाग की योग्यता उसे दे जो सबसे ऊंची बोली लगाए, पर अपने दिल और आत्मा को किसी भी कीमत पर न बेचे।

उसके हौसले में बेसब्री हो और उसकी बहादुरी में सब्र हो। उसे अपने आप में गहन मधुर विश्वास रखना सिखाना, तभी वह मानवता और  ईश्वर में अटूट गहन विश्वास रख पाएगा।

अध्यापक महोदय, यह मेरी कामना की सूची है। अध्यापक होने के नाते आप देखना किस सीमा तक आप मेरे बेटे को श्रेष्ठ बना सकते हैं।

वह छोटा सा, प्यारा सा बच्चा है। वह मेरा बेटा है।

मूल लेखक अब्राहम लिंकन

भावानुवाद –  श्री अजीत सिंह

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन हिसार।

मो : 9466647034

(लेखक श्री अजीत सिंह हिसार स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं । वे 2006 में दूरदर्शन केंद्र हिसार के समाचार निदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए।)

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ मनाली : महाप्रलय के बाद प्राकृतिक सौंदर्य में बेजोड़ ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण : मनाली : महाप्रलय के बाद प्राकृतिक सौंदर्य में बेजोड़ ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

अचानक विजय के संदेश वट्स अप पर आने लगे कि मनाली में लेखक मिलन शिविर लगायेंगे सितम्बर में। आपको चलना है। दो बातें बहुत अच्छी थीं कि मनाली कभी गया नहीं था। दूसरे देश भर से लेखकों का साथ रहेगा तो मनाली यात्रा तो स्मरणीय हो जायेगी। वैसे भी हिमाचल या कहिए पर्वतों व वादियों में घूमना और प्राकृतिक सौदर्य में खो जाना, यह मुझे बहुत प्रिय है। धर्मशाला, शिमला इसी वर्ष गया हू। कई बार गया हूं लेकिन मनाली कभी नहीं। कुल्लू के लम्बे चलने वाले दशहरे के बारे में बचपन से सुनता आया हूं पर देखा कभी नहीं। मन ललचाता रहता है। मैंने झट से हां कह दी। एक और बात भी रही मन में कि अपनी पुस्तक यादों की धरोहर आने वाली है तो क्यों न वहीं लेखक शिविर में इसका लोकार्पण भी कर दूं? फिर छोटी मोटी तैयारियों में जुट गये परिवारजन।

आखिरकार यात्रा का दिन आ गया। मैंने वाया जालंधर जाने का निश्चय किया क्योंकि पुस्तक वहीं से ले जानी थी। वहीं रात जालंधर प्रेस क्लब में रुके। पत्रकार व परिचितों से मिलना हुआ जो इस यात्रा का बोनस रहा मेरे लिए। प्रेस क्लब बहुत अच्छा बना है औय नौ कमरे यात्रियों के लिए उपलब्ध हैं। अच्छी व्यवस्था। पत्रकारिता के अतिरिक्त अन्य सामाजिक व साहित्यिक आयोजनों का केंद्र बन चुका है यह क्लब।

दूसरी सुबह सिर्फ चाय पीकर चार बजे ही यात्रा शुरू की। पहले होशियारपुर आया। मेरा ननिहाल। मेरी जन्मभूमि पर मुंह अंधेरे में घर तो नहीं जा सकता था। अतः जन्मभूमि को प्रणाम करता हुआ आगे बढ़ गया। वैसे यहां आर्य समाज का बहुत बड़ा केंद्र है बजवाड़ा में। यहीं से विश्व ज्योति पत्रिका वर्षों से निकल रही है। कभी मैं संपादक से मिलने जाता था और मेरी अनेक रचनाएं इसके विशेषांकों में स्थान पाती रहीं। कह सकता हूं कि लेखन मेरी जन्मभूमि से घुट्टी में ही मिला होगा। थोड़ी दूरी के बाद ही पहाड़ शुरू हो गये जैसे कि होशियारपुर तो एक छोटी सी सीमा मात्र हो पहाड़ों और मैदान के बीच।

कहीं छोटा सा शहर आया। तब तक चाय और नाश्ते की जरूरत महसूस होने लगी थी। पहाड़ी सौदर्य के बीच हमने नाश्ते का आनंद लिया और निकल पड़े मनाली की मंजिल की ओर। जल्दी थी और पुस्तक के लोकार्पण का मन में चाव भी। कुल्लू तक ड्राइवर गाड़ी भगाता रहा और हम पर्वतीय सौंदर्य का रसपान करते रहे। सेबों के बाग देखने का बड़ा चाव था बेटी रश्मि को तो राह भर न केवल सेब ही सेब के बाजार बल्कि बागों के दर्शन भी होते रहे क्योंकि सीजन चरम पर था। दशहरा,  दीपावली त्योहार आने वाले थे। कुल्लू के बाजार में फिर होटल ढूंढा और दोपहर का भोजन किया। बहुत परिचित साहित्यकार हैं यहां लेकिन दिल ही दिल में याद किया। मंडी मैं तब आया था जब दैनिक ट्रिब्यून ज्वाइन किया था। तब नरेश पंडित और दीनू कश्यप से मिलना हुआ इनके एक कार्यक्रम में जो किसान भवन में रात्रि ग्यारह बजे तक चलता रहा था। साहित्य के आयोजन जरूरी हैं। नहीं तो इंटरनेट ने साहित्य का काफी स्वरूप बदल दिया है। इस तरह भागमभाग करते आखिर निर्धारित समय से थोड़ी देर से मनाल्सू पर्यटन होटल में पहुंच ही गये। रत्नचंद निर्झर और सैन्नी अशेष इंतज़ार और स्वागत् में खड़े थे। इस देरी के चलते पुस्तक किसी सुंदर आवरण में ढंक भी नहीं पाया और अनावरण का लोकार्पण कर दिया – कहानी लेखन महाविद्यालय के लेखक शिविर में श्रीमती उर्मि कृष्ण ने। इसके बाद छोटा सा कार्यक्रम और जलपान के बाद कमरों में आराम। रात के खाने के बाद जमी गाने सुनाने की महफिल। कुछ हंसी मज़ाक। कुछ अपने अपने साहित्यिक कद को भुला कर सबसे घुलमिल जाने की कोशिश। यही उद्देश्य है कि कभी सब नये थे लेखन में निरंतर अभ्यास व निखार के बाद स्थान बनता है।

दूसरी सुबह वनस्थल का कार्यक्रम रखा गया। नाश्ते के बाद मिन्नी बस में सवार मनाल्सू के किनारे वनस्थल है। खूब देवदार के लम्बे ऊंचे घने छायादार पेड़ों के नीचे धूप तो पहुंच ही नहीं पाती। नदी का प्यारा सा, खूबसूरत सा नज़ारा। थोड़ा नदी के पानी का संगीत। आत्मा गद्गद्। कैसे न कोई संन्यास ले ले यहां आकर। ओशो भी यहां आते रहे और स्टार विनोद खन्ना भी मानसिक शांति के लिए उनके पीछे पीछे मनाली आकर ओशो के लिए बर्तन मांजने तक के छोटे मोटे काम खुशी खुशी करते रहे। ये फोटोज तब अखबारों की सुर्खियां बने थे। नदी की कलकल ने सब भुला दिया। हिसार से चले राह भर की थकान को मुस्कान में बदल दिया। सब मिल गया। नयी ऊर्जा, नया उत्साह। नये मित्र। नये परिचय। कुल तीस लेखक पहुंचे थे देश भर में। सब फोटोज। सब सेल्फीज में जुट गये। एक घंटे बाद फिर मनाल्सू में भोजन। और बाद में छोटी सी साहित्यिक गोष्ठी। इंदु पटयाल और हिमसेतु की टीम व संपादक कृष्ण श्रीमान् से परिचय। चर्चा महिला पत्रकारिता पर की इंदु पटयाल ने । हमारा परिवार हिडिम्बा मंदिर की ओर चला। वैसे तो मनाल्सू होटल से थोड़ा ही ऊपर चढ़ाई चढ़ कर है लेकिन हमने अपनी गाड़ी से जाना ही ठीक समझा ताकि जो ताजगी पाई वह फिर पैदल चल कर खो न दें।

हमारे साथ कुल्लू से आये लेखक मित्र शेर सिंह भी थे। वे सारी बात और जानकारी देते रहे। लकड़ी का बना हिडिम्बा मंदिर और इसकी मान्यता लगता है कि यही संदेश देता है कि जन्म से हम चाहे किसी भी वंश के हों लेकिन अपने कर्मों से हम कुछ भी बन सकते हैं। अच्छे संस्कार से हम राक्षस वंश के बावजूद देवी बन सकते हैं। यही हिडिम्बा मंदिर का संदेश गूंजा मेरे मन में। खूब चहल पहल। देशी विदेशी पर्यटक। फोटोज की धूमधाम कि सब कैमरे में कैद कर लें। कुछ देर मंदिर के प्रांगण में बैठ मनाल्सू लौटे और रात के खाने के बाद फिर वही महफिल ए लेखक। गाना बजाना और हंसी मजाक। देर रात अपने अपने कमरों में। नींद ने कब अपनी आगोश में ले लिया। पता तक नहीं चला।

तीसरी और अंतिम सुबह। नाश्ता और वनविहार की ओर कूच मिन्नी बस से। यहां भी बड़े बड़े देवदार और नौकाविहार का आनंद भी। चहल पहल। हर पर्यटन केंद्र के आसपास पहाडी ड्रेस का प्रबंध कि आप एक बार पूरे पहाड़ी बन कर फोटो करवा लें। बेटी रश्मि इसी जन्म में पहाड़िन बन गयी और सौ रुपये के फोटो प्रमाण सहित लेकर फूली न समाई। सभी परिवार सचमुच पहाड़ी हो गये। सबका जन्म सफल हो गया और उन लोगों को मिला  रोज़गार। खरगोश भी साथ गोद में  लिए बैठी थीं। फोटोज के लिए जीवंत खरगोश। यहां थोड़ा दुख हुआ कि एक प्राणी कैसे सारा दिन गोद में फंसा रहता है। मन की कुलांचें नहीं भर सकता। मानव ने कैद कर रखा है। थोड़ा उदास मन से वन विहार से बाहर आया। मैं ऐसे शीर्षक से बहुत पहले लघुकथा लिख चुका हूं : मैं महात्मा बुद्ध नहीं हूं। सच हम महात्मा बुद्ध नहीं बन सकते पर प्राणियों और जीव जंतुओं की रक्षा का संदेश तो दे सकते हैं।

शाम के समय मनु मंदिर की ओर बढ़ चले। ऑटो रिक्शा आराम से मिल जाते हैं। सैन्नी अशेष तो एक गाइड से भी ज्यादा हैं मनाली में। इसीलिए वे कहते हैं कि मेरा नाम लेकर गाइड पूछना सब बता देंगे। वे हमें ऑटो में बिठाकर चौक तक खुद पैदल निकल लिए। हमसे पहले मौजूद क्योंकि छोटे रास्ते ढूंढ रखे हैं। मनु मंदिर के नाम से ही मनाली गांव बसा हुआ है। असली मनाली गांव और पर्यटकों की पहली पसंद के चलते मनाली बहुत बढ़ता गया। अब मनाली मंदिर के दर्शन के साथ ही असली मनाली के दर्शन हो रहे थे लेकिन रास्ते में देशी विदेशी सामान की दुकानें बड़ी संख्या में थीं। महाप्रलय के बाद मनु इसी जगह अकेले पूजा में जुटे थे। तभी श्रद्धा आईं और इस तरह जीवन फिर शुरू हुआ। जयशंकर प्रसाद की कामायनी का संदेश याद आया- अधिक सुख की तलाश में दुख मिलना स्वाभाविक है। यही तो हो रहा है मनुष्य के साथ। प्राकृतिक सौंदर्य का दोहन और पर्यावरण संकट। पराली से पराली तक धुआं ही धुआं। यह मनुष्य ने ही संकट पैदा किया है। प्रकृति का दोहन ही दोहन।

सैन्नी अशेष का घर पास ही था। वे हमारी टोली को अपने घर ले चले। पगडंडियां, खेत खलिहान और संध्या बेला में पशुओं का चारा पीठ पर लादे खेतों से लौट रहीं पहाड़ी महिलाएं। कहीं मक्की, कहीं सेब तो कहीं राजमाह की बेलें। सही मनाली। सैन्नी ने घर में एक बाल्टी में पानी भर कर सेब रखे थे उसमें ताकि हमें ठंडे सेब खाने को मिलें। सैन्नी ने अपनी व चर्चित स्नोवा बार्नो की किताबें भी दीं उपहार में। वहां से पैदल ही लौटे मनाल्सू होटल। थकान हो गयी पर सुखद। रात का भोजन। कुछ महफिल लेकिन ज्यादा उदासी। दूसरी सुबह बिछुड़ना जो था। सारी खुशी और बिछुड़ने का दुख। दूसरी सुबह हम मुंह अंधेरे बिना नाश्ते के ही निकल पड़े। सेब निशानी के तौर पर राह में खरीदे। कुल्लू में रुके शालिनी पत्रकार और शेर सिंह लेखक के साथ काॅफी की प्याली। शालिनी ने कहा- सर दशहरे तक रुक जाओ। फिर सही कह कर निकले क्योंकि मणिकर्ण गुरुद्वारे जाना था। 

मणिकर्ण की कथा भी बड़ी विचित्र। गुरु नानक देव यहां यात्रा करते बाला मर्दाना के साथ पहुंचे। रोटी कैसे बने। नदी थी। गुरु जी को बताया कि चावल उबाल लो। कैसे? शिष्यों ने पूछा तो गुरु नानक देव ने एक पत्थर हटाया और वहां गर्म पानी का चश्मा फूट गया। वह गर्म पानी आज भी मौजूद है और बहुत से रोग इसमें स्नान से दूर हो जाते हैं। दूसरी कथा शिव पार्वती से जुड़ी है। वे यहां तपस्या करते थे। पार्वती की मणि खो गयी। शिव ने ध्यान लगाया शेषनाग के पास थी। शिव के प्रभाव से एक मणि ही नहीं बल्कि रोज़ एक मणि अर्पण करने लगा। शिव ने पार्वती को कहा कि अपनी मणि ले लो और बाकी मणियों को पत्थर बना दिया ताकि इन्हें लेकर आपस में वैर न बढ़  जायें। यह बहुत बड़ा संदेश कि मणियों के लिए मणिकर्ण न आएं बल्कि सच्चे भाव से यहां आएं। इसीलिए गुरुद्वारे में शिव पार्वती की फोटो भी लगी है।

एक रात चंडीगढ़ यूटी गेस्ट हाउस और फिर अगली सुबह फिर मुंह अंधेरे का सफर ताकि बेटी यूनिवर्सिटी में समय पर अपने ऑफिस पहुंच सके। मनाली की यादें और सौंदर्य।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 115 ☆ तीन शिक्षिकाओं की कहानी – 8 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण कुमार डनायक जी ने अपनी सामाजिक सेवा यात्रा को संस्मरणात्मक आलेख के रूप में लिपिबद्ध किया है। आज प्रस्तुत है इस संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला की अगली कड़ी – “तीन शिक्षिकाओं की कहानी”)

☆ संस्मरण # 115 – तीन शिक्षिकाओं की कहानी – 8 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर मुझे माँ सारदा कन्या विद्यापीठ की तीन युवतियों की स्मृति हो आई । यह तीनों आदिवासी युवतियाँ इस विद्यापीठ की पुरानी विद्यार्थी तो नहीं है पर अपनी  शैक्षणिक योग्यता के कारण यहाँ नन्ही आदिवासी बालिकाओं को शिक्षित करने के लिए नियुक्त की गई हैं । इन तीनों में एक जज्बा है पढ़ने और पढ़ाने का और शायद इसी उद्देश्य के लिए वे अल्प वेतन पर भी विद्यापीठ में अपनी सेवाएं दे रही हैं । वे तीनों न केवल पढ़ाती हैं वरन छात्रावास और भोजनालय की व्यवस्था भी संभालती हैं और बालिकाओं को खेलकूद, चित्रकला, गायन आदि गैर शैक्षणिक गतिविधियों में व्यस्त रखती हैं ।

अनपढ़ माता पिता हीरालाल बैगा और श्रीमती बाई  की पुत्री रामेश्वरी पिछली शताब्दी के खत्म होने के कोई चार वर्ष पहले पैदा हुई । माँ-पिता के पास पारिवारिक बटवारे में मिली थोड़ी सी कृषि भूमि ग्राम जरहा में है तो उससे प्राप्त उपज और मेहनत मजदूरी से साल भर में तीस हजार के लगभग आमदनी हो जाती है और इसी से तीन भाई ओ तीन बहनों के परिवार का भरण पोषण होता है । रामेश्वरी के पिता को न जाने कैसे प्रेरणा मिली, उसने अपनी संतानों को पढ़ाने का निर्णय लिया। उसकी  छह संतानों में से तीन विज्ञान स्नातक हैं। अपने मझले भाई को जब बीएससी में पढ़ते देखा तो रामेश्वरी की इच्छा भी ऐसा कुछ करने की हो चली। अपने अनपढ़ पिता को उसने अपने सपने के साथ खड़ा पाया और मझले भाई की ही भांति उसने भी अच्छे अंकों के साथ जीवविज्ञान व रसायन शास्त्र विषय लेकर स्नातक की उपाधि अर्जित की। रामेश्वरी बीएड कर प्रशिक्षित शिक्षक बनना चाहती है और उसके इस सपने में आड़े आ रही है धन की कमी । ऐसे पेशेवर अध्ययन के लिए यह सही है कि शैक्षणिक शुल्क की प्रतिपूर्ति छात्रवृति से हो जाती है पर छात्रावास भोजन व अन्य व्यय तो होते हैं, जिसकी व्यवस्था करना  फिलहाल  रामेश्वरी और उसके अभिभावक के बस में नहीं है ।

एक दूसरी शिक्षिका सरिता सोनवानी (गोंड) की कहानी भी अभावों में पली बढ़ी बेटी की कहानी है । उसके पाचवीं पास पिता रत्तीदास ने तीन शादियाँ की । पहली पत्नी चंपा बाई को दो संतान पैदा होने के बाद छोड़ दिया। यही चम्पा, सरिता की माँ है और उसने मेहनत मजदूरी करके अपने दोनों बच्चों को पढ़ाया । अपनी माँ की जीवटता की सरिता बड़ी प्रसंशक है। सरिता का भाई वनस्पति शास्त्र में स्नातकोत्तर है पर बेरोजगार है, बीएड  नहीं कर पा रहा क्योंकि धनाभाव है । सरिता कहती है कि यदि मातापिता साथ रहते तो वह भी बारहवीं उत्तीर्ण करने के बाद उच्च शिक्षा के लिए कालेज जाती। मैंने उससे भविष्य की योजनाओं और विवाह के बारे में जानना चाहा । वह कहती है कि परिवार की आर्थिक स्थितियाँ और बुजुर्ग माँ की देखरेख की भावना उसे भविष्य के सुनहरे सपनों से दूर ले जाती है। यदि भाई को नौकरी मिल गई तब शायद वह विवाह के बारे में सोचेगी । 

एक अन्य गोंड युवती सीता पेण्ड्राम  की कहानी भी जीवटता से भरी है । उसके पिता मोहर सिंह ने भी दो विवाह किए । माँ बाद में मायके आ गई और फिर ननिहाल में रहकर ही उसने अपनी पढ़ाई लिखाई जारी रखी। बारहवीं उत्तीर्ण करने के बाद ट्यूशन पढ़ाकर आगे की पढ़ाई जारी रखी । सरकार की छात्रवृत्ति और अपनी कमाई के दम पर उसने कला संकाय में स्नातकोत्तर की उपाधि अर्जित की और फिर बीएड भी किया । सीता का बचपन कुछ हद तक खुशियों से भरा था, यद्दपि माँ अलग रहती थी पर पिता के यहाँ आना जाना था और पिता तथा सौतेले भइयों ने उसे बराबर स्नेह दिया । ननिहाल के अन्य रिश्तेदारों ने उसे आगे पढ़ने की प्रेरणा दी। विवाह वह करना चाहती है पर आर्थिक स्वावलंबन के बाद। यह बड़ा परिवर्तन शिक्षा के कारण ग्रामीण युवतियों में आया है । धर्मांतरण को लेकर सीता कहती है कि ग्रामीण क्षेत्रों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा  और स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव का लाभ ईसाई मिशनरियाँ उठाती हैं। अक्सर चर्च के प्रतिनिधि बीमार आदिवासियों के पास पहुँच जाते हैं, उन्हे मिशन अस्पताल में भर्ती करवा उनका न केवल इलाज करवाते हैं वरन उनके लिए ईसा मसीह से प्रार्थना भी करते हैं और यहीं से धर्मांतरण की नींव रखी जाती है ।

माँ सारदा कन्या विद्यापीठ की शिक्षिकाएं, यह तीन युवतियाँ एक नए ग्रामीण भारत की तस्वीर पेश करती हैं। वे हमारी बहुत सी समस्याओं के हल करने का मार्ग सुझाती हैं। यह मार्ग निश्चय ही अच्छी शिक्षा, बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं से होकर जाता है। सरकार बालिकाओं के विवाह की उम्र बढ़ाना चाहती है लेकिन शिक्षित युवतियों ने तो विवाह की अपेक्षा आर्थिक स्वावलंबन को महत्ता दी है, ऐसा मैंने कई ग्रामीण युवतियों से चर्चा करने के बाद जाना है।

©श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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