हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 114 ☆ निराशा से आशा – 7 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण कुमार डनायक जी ने अपनी सामाजिक सेवा यात्रा को संस्मरणात्मक आलेख के रूप में लिपिबद्ध किया है। आज प्रस्तुत है इस संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला की अगली कड़ी – “निराशा से आशा”)

☆ संस्मरण # 114 – निराशा से आशा – 7 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

अभी तक मैंने आपने उन आदिवासी युवतियों का परिचय करवाया जो माँ सारदा कन्या विद्यापीठ की पूर्व छात्राएं रही हैं लेकिन सभी का जन्म बीसवीं सदी के उतरार्द्ध में हुआ था । द्विवेदी जी, राजेन्द्रग्राम से जिस युवती को मुझसे मिलाने  सेवाश्रम लाए वह इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में जन्मी । आशा देवी बैगा का जन्म तरेरा गाँव में दादूराम बैगा और फगनी बाई के यहाँ 2003 में हुआ और वह 2009 में अपने पिता के साथ विद्यापीठ में भर्ती होने आई। मैंने पूछा पिता तो पढे लिखे नहीं थे फिर उन्हें इस स्कूल के बारे में कैसे पता चला। वह बताती है कि हमारे पड़ोसी की पुत्री इसी स्कूल में पढ़ रही थी और उसे देखकर पिताजी की भी इच्छा मुझे पढ़ाने की हो गई । आशा ने पिता की इच्छा का माँ रखा और जब 2014 में उसने इस विद्यापीठ से पाँचवी की परीक्षा उत्तीर्ण  की तो उसके 83% अंक आए। शिक्षा के प्रति इस बैगा बालिका की रुचि देखकर बाबूजी ने उसका प्रवेश शासकीय कन्या शिक्षा परिसर पुष्पराजगढ़ में करवा दिया और आशा ने फिर एक बार अपनी कर्मठता का लोहा मनवाया । वह उन गिनी चुनी बैगा कन्याओं में से एक बनी जब उसने 2021 में उच्चतर माध्यमिक परीक्षा 73% अंकों के साथ उत्तीर्ण की । आजकल आशा माडर्न नर्सिंग कालेज में बी एससी नर्सिंग की प्रथम वर्ष की छात्रा  है ।  इस निजी महाविद्यालय में उसे सालाना रुपये  60,000/- की फीस चुकानी होती है । गरीब आदिवासी कन्या के लिए यह बड़ी राशि है, लेकिन मध्य प्रदेश सरकार की छात्रवृति से उसे बड़ी मदद मिलती है । सरकार की छात्रवृति प्रवेश शुल्क जमा कर देने के बाद मिलती है लेकिन कालेज प्रबंधन ने उससे मात्र 10,000/- वसूले और प्रवेश दे दिया। जब छात्रवृति मिलेगी तो शेष फीस जमा हो जाएगी।

विद्यापीठ में बिताए अपने सुनहरे दिनों की उसे बहुत याद है । वह बताती है कि जब वह दूसरी कक्षा में पढ़ती थी तब बाबूजी उन लोगों को बिलासपुर घुमाने ले गए थे । बाद के सालों में बाबूजी के प्रयासों से उसने सहपाठिनी आदिवासी बालिकाओं के साथ पचमढ़ी, बनारस और जगन्नाथ पुरी की यात्रा की और पहली बार रेल यात्रा का अनुभव लिया । वह याद करती है कि भोजन सामग्री साथ में जाती और जहां रुकते वहाँ शिक्षक लोग भोजन बनाकर हम बालिकाओं को खिलाते, बाबूजी उस शहर की प्रसिद्ध मिठाई हम लोगों को जरूर खिलाते और विभिन्न स्थलों के बारे में बताते । मैंने उससे पूछा कि ऐसे शैक्षणिक प्रवासों से क्या लाभ मिला । आशा कहती है कि हम बैगा आदिवासियों ने तो बालपन में केवल आसपास के हाट बाजार ही देखे थे, अधिकांश यात्राएं तो हम लोग पैदल करते थे। गरीबी और अभाव के जीवन ने हम लोगों को दब्बू और भावशून्य बना दिया है लेकिन ऐसे शैक्षणिक प्रवासों से हम नन्ही बालिकाओं का भय दूर हुआ, झिझक कम हुई और एक नया आत्मविश्वास जागा ।

आशा को याद नहीं कि कभी विद्यापीठ में बालिकाओं को दंड दिया गया। वह कहती है कि कम उम्र में हम लोग यहाँ भर्ती होने आए तो बड़ी बहनजी और बाबूजी ने इतना प्रेम व स्नेह दिया कि  माता पिता की याद ही न आई । बाबूजी हम लोगों को सदैव पढ़ाई के लिए प्रेरित करते थे और सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे ।  आशा बताती है कि यद्दपि वह केवल पाँच वर्ष विद्यापीठ में पढ़ी लेकिन इस संस्था से लगाव सदैव बना रहा । प्रत्येक वर्ष 12 जनवरी को स्वामी विवेकानंद जयंती पर बाबूजी पुरानी छात्राओं को आमंत्रित करते,आवागमन की व्यवस्था करते और हम लोग उस दिन आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में बढ चढ़कर हिस्सा लेते । 

मैंने आशा से बैगाओं के बारे में पूछा । वह बताती है कि हम लोगों का रहन सहन तो अत्यंत सादा है। जंगल के पास रहने के कारण आवश्यकताएं बहुत सीमित हैं । पेट भरने के लिए कोदो कुटकी और मक्का उगा लेते हैं और इससे बना पेज, पेट भरने के लिए पर्याप्त है । पर्व त्योहारों और शादी विवाह में मंद( मद्य) पीना और नृत्य करना उनकी जिंदगी का मनोरंजन है । लेकिन शिक्षा के प्रचार प्रसार ने अब धीरे धीरे बैगाओं में परिवर्तन लाने शुरू कर दिए हैं । अब बैगा शिकार की अपेक्षा धान और गेंहू जैसे पौष्टिक आहार की ओर आकर्षित हो रहे हैं । वे जंगल की अपेक्षा अब शहर और कस्बे के पास भी बसने लगे हैं । वे बहुत सी कुरीतियों को त्याग रहे हैं । स्वच्छता की भावना बढ़ी है और मंद पीना भी कम हुआ है । जादू टोना तो अभी भी चलता है पर अधिक बीमार होने पर चिकित्सक से परामर्श अवश्य लेते हैं । आशा बताती है कि बाबूजी ने कई बार उसके गाँव में भी चिकित्सा शिविर लगवाया था । वह कहती है कि अब शादी विवाह बालपन में नहीं होते। बैगाओं में गाँजा जैसे नशे का चलन नहीं है और धर्मांतरण भी नहीं है । 

आशा ने एक अच्छी बात यह भी बताई कि उसकी सहपाठियों में सम्मिलित खेतगांव  की जानकी बैगा भी उसी के साथ नर्सिंग कालेज में पढ़ रही है और खाँटी की निवासी चंद्रवती गोंड कला स्नातक बनने की तैयारी कर रही है । मैंने उससे भविष्य की योजना पूछी । वह कहती है कि आगे पढ़ना धनाभाव के कारण संभव नहीं है इसलिए  नर्सिंग स्नातक होने के बाद वह नौकरी की खोज करेगी । नौकरी खोजने में अगर किसी सूदूर शहर में भी जाना पड़े तो चौड़ी नाक, मोटे ओंठ और गोल काली आँखों वाली  आशा में यह आत्मविश्वास मुझे दिखा । गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा का यह कमाल है । शीघ्र  विवाह की वह कदापि इच्छुक नहीं है । वह कहती है कि पहले आर्थिक सशक्तिकरण हो  और अपने कैरियर में जब वह भलीभाँति सुस्थापित हो जाएगी, तभी विवाह के बारे में सोचेगी । वह माता पिता की अनुमति के बिना अंतरजातीय विवाह की इच्छुक नहीं है । वह कहती है कि बैगाओं में सामाजिक नियंत्रण कठोर है और ऐसे में अंतरजातीय  विवाह को आसानी से मान्यता नहीं मिलती ।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ विष्णु प्रभाकर की जयंती पर कुछ यादें  ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

(21 June 1912 – 11 April 2009)

☆ संस्मरण  : विष्णु प्रभाकर की जयंती पर कुछ यादें   

(आज प्रस्तुत है मूर्धन्य साहित्यकार स्व विष्णु प्रभाकर जी की जयंती (21 जून ) पर आदरणीय श्री कमलेश भारतीय जी के अविस्मरणीय संस्मरण। )

मित्र अरूण कहरवां ने आग्रह किया कि विष्णु प्रभाकर जी को स्मरण करूं कुछ इस तरह कि बात बन जाये। मैं फरवरी,  1975 में अहमदाबाद गुजरात की यूनिवर्सिटी में केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा अहिंन्दी भाषी लेखकों के लिए लगाये गये लेखन शिविर के लिए चुना गया था। दिल्ली में नरेंद्र कोहली जी मुझे रेलगाड़ी में विदा करने आए थे। पहली बार एक छोटे से कस्बे के युवा ने इतनी लम्बी रेल यात्रा की थी। बिना बुकिंग। एक कनस्तर पर बैठ कर। यूनिवर्सिटी पहुंचा। दूसरे दिन क्लासिज शुरू हुईं। मैंने कथा लेखन चुना। हमारे कथा गुरु के रूप में विष्णु प्रभाकर जी आमंत्रित थे। मज़ेदार बात कि आज की प्रसिद्ध कथाकार राजी सेठ व उनकी बहन कमलेश सिंह भी हमारे साथ प्रतिभागी थीं। कुल बतीस लेखक विभिन्न हिंदी भाषी प्रांतों से चुन कर आए थे। विष्णु प्रभाकर जी की सबसे चर्चित व लोकप्रिय पुस्तक आवारा मसीहा तब प्रकाशित हुई थी और वे उसकी प्रति झोले में रखते थे बड़े चाव से दिखाते। उनका शरतचंद्र का कहा वाक्य नहीं भूलता कि लिखने से बहुत मुश्किल है न लिखना। यानी जब कोई रचना आपके मन पर सवार हो जाती है तो आप उसे लिखे बिना नहीं रह सकते। फिर उनकी सुनाई लघुकथा :

चांदनी रात थी। नदी किनारे मेंढकों के राजा ने कहा कि कितनी प्यारी चांदनी खिली है। आओ चुपचाप रह कर इसका आनंद लें और सभी मेंढक यही बात सारी रात टर्राते रहे।

देखिए कितना बड़ा व्य॔ग्य। एक सप्ताह ऐसे ही कथा लेखन की बारीकियां सीखीं। शब्द चयन के बारे में वे कहते थे कि भागो नहीं , दौड़ो। इसका गूढ़ अर्थ यह कि भागते हम डर से हैं जबकि दौड़ते हम विजय के लिए हैं।

वे उन दिनों साप्ताहिक हिंदुस्तान के लिए कहानी का संपादन यानी चयन करते थे। मेरी कहानी थी -एक ही हमाम में। यह कहानी कार्यशाला में पढ़ी। उन्होंने शाम की सैर पर मुझे कहा कि कुछ तब्दीलियां कर लो तो इसे साप्ताहिक हिंदुस्तान में दे दूं। मैंने राजी सेठ से यह बात शेयर की। उन्होंने कहा कि इसलिए तब्दील मत करो कि यह साप्ताहिक हिंदुस्तान में आयेगी। यदि जरूरी हो तो चेंज करना। मैंने लालच छोड़ा और वह कहानी रमेश बतरा ने साहित्य निर्झर के कथा विशेषांक मे प्रकाशित की और उतनी ही चर्चित रही। यानी चेंज लेखक सोच समझ कर करे।

इसके बाद मैंने लगातार विष्णु जी से सम्पर्क बनाये रखा। वे हर पत्र  का जवाब देते। अनेक पत्र घर में पुरानी फाइलों में मिलते रहे। बहुत समय बाद पता चला ये पत्र वे बोल कर मृदुला श्रीवास्तव और बाद में वीणा को लिखवाते थे। नीचे हस्ताक्षर करते थे। फिर वे लुधियाना आए। तब भी मुलाकात  हुई। जालंधर आए तब भी दो दिन मुलाकातें हुईं। फिर मैं दैनिक ट्रिब्यून में उपसंपादक लगा तो उनकी इंटरव्यू प्रकाशित की -मैं खिलौनों से नहीं किताबों से खेलता था। इसके बाद मेरी ट्रांस्फर हिसार के रिपोर्टर के तौर पर हुई। यहां आकर विष्णु जी का हिसार कनैक्शन पता चला कि वे रेलवे स्टेशन के पास अपने मामा के पास ही पढ़े लिखे और उन्होंने ही उनकी पशुधन फाॅर्म में नौकरी लगवाई। वहीं लेखन में उतरे और नाटक मंचन में अभिनय भी करते रहे। बीस वर्ष यहीं गुजारे। शायद सारा जीवन हिसार में गुजारते लेकिन सीआईडी के इंस्पेक्टर ने कहा कि काका जी , क्रांति की अलख पंजाब के बाहर जगाओ। तब हिसार पंजाब का ही भाग था। इस तरह वे परिवार सहित दिल्ली कश्मीरी गेट बस गये और यह उनके लेखन के लिए वरदान साबित हुआ। संभवतः हिसार में रह कर वे इतनी ऊंची उड़ान  न भर पाते। कहानी ही नहीं , नाटक और लघुकथा तक में उनका योगदान है। बहुचर्चित जीवनी आवारा मसीहा पर उन्हें जीवन का सबसे बड़ा पुरस्कार मिला जिसे उन्होंने मकान बनाने में लगाया और उसी मकान पर कब्जा हुआ और वे प्रधानमंत्री तक गये और आखिरकार मकान मिला। वे इतने स्वाभिमानी थे कि प्रधानमंत्री के एक समारोह में जब उनके बेटे को साथ नहीं जाने दिया तब वे वापस आ गये। पता चलने पर प्रधानमंत्री ने चाय पर बुलाया। वे गांधीवादी और स्वतंत्रता सेनानी होते हुए भी किसी प्रकार की पेंशन लेने को तैयार न हुए।

आखिर दैनिक ट्रिब्यून की ओर से कथा कहानी प्रतियोगिता के पुरस्कार बांटने के लिए उन्हें आमंत्रित किया गया क्योंकि वे हिसार के हीरो थे। उन्हें पांवों में सूजन के कारण कार में ही दिल्ली से लाने की व्यवस्था करवाई और वे यहां चार दिन रहे। प्रतिदिन मैं उन्हें मामा जी के घर से लेकर आयोजनों में ले जाता। वे गुजवि के भव्य वी आई पी गेस्ट हाउस में नहीं रुके। उनका कहना था कि मुझे यह आदत नहीं और मैं अपने मामा के घर ही रहूंगा। यह सारी व्यवस्था संपादक विजय सहगल के सहयोग से करवाई। जब समारोह के बाद उन्हें सम्मान राशि दी तब वे आंखों में आंसू भर कर बोले -कमलेश। तेरे जैसा शिष्य भी मुश्किल से मिलता है।

बाद में उन्हें सपरिवार दिल्ली छोड़ने गया। मेरा दोहिता आर्यन मात्र एक डेढ़ वर्ष का था। उसे गोदी में खूब खिलाया। वह फोटो भी है मेरे पास।  लगातार लेखन में जुटे रहे और आज भी उनके बेटे अतुल  प्रभाकर के साथ सम्पर्क बराबर हैं। उन्होंने दो वर्ष पूर्व दिल्ली के समारोह में बुलाया और मुझसे कहानी पाठ के साथ विष्णु जी के संस्मरण सुनाने को कहा। इसी प्रकार रोहतक के एमडीयू के हिंदी विभाग के विष्णु स्मृति समारोह में मुझे विशिष्ट अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया। बहुत कुछ है पर तुरंत जो ध्यान में आया लिख दिया। हिसार की चटर्जी लाइब्रेरी को उन्होंने 2100 पुस्तकें अर्पित कीं।  लाइब्रेरी में उनकी फोटो भी लगाई गयी है। हिसार के आमंत्रण पर उनका कहना था कि जब भी बुलाओगे तब नंगे पांव दौड़ा आऊंगा। आज बहुत याद आ रहे हैं विष्णु जी। हरियाणा सरकार ने जिला पुस्तकालय को विष्णु प्रभाकर जी के नाम से जोड़ा  तब भी राज्यपाल आए और विष्णु जी का पूरा परिवार भी आया। बहुत सी छोटी छोटी यादें उमड़ रही हैं। वे हमारे दिल में सदैव रहेंगे। मेरी चर्चित पुस्तक यादों की धरोहर में सबसे पहले इंटरव्यू विष्णु प्रभाकर जी का ही है जो उसी कथा कहानी प्रतियोगिता के समारोह के अवसर पर दैनिक ट्रिब्यून में विशेष रूप से प्रकाशित किया गया था। यह इंटरव्यू विशेष रूप से दिल्ली जाकर किया था और वे उस शाम बाहर खड़े मेरा इंतज़ार कर रहे थे। उन्होंने इंटरव्यू के बाद अपना उपन्यास अर्द्धनारीश्वर मुझे भेंट किया था। एक ऐसा उपहार जिसे मैं भूल नहीं सकता।  इस पुस्तक के दो संस्करण पाठकों के हाथों में बहुत कम समय में पहुंचे।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 142 ☆ गर हौसले बुलंद हों… ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक अविस्मरणीय एवं विचारणीय संस्मरण गर हौसले बुलंद हों…”।)  

☆ संस्मरण  # 142 ☆ ‘गर हौसले बुलंद हों…’ ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

देश की पहली माइक्रो फाइनेंस ब्रांच में काम करते हुए हमने महसूस किया कि  – ‘गर हौसले बुलंद हों तो’  – गरीब निरक्षर महिलाएं, जो बैंक विहीन आबादी में निवास करती है, जो लोन लेने के लिए साहूकारों के नाज- नखरों को सहन करती हुई लोन लेती थीं, जो बैंकों से लोन लेने के बारे में स्वप्न में भी नहीं सोच सकतीं थ , ऐसी महिलाओं के आर्थिक उन्नयन में माइक्रो फाइनेंस की अवधारणा मील का पत्थर साबित हुई थी।

किसी ने कहा है ” कमीं नहीं है कद्र्ता की ….कि अकबर करे कमाल पैदा ….

इस भाव को स्व सहायता समूह से जुडी महिलाओं ने समाज को बता दिया।

माइक्रो फाइनेंस की अवधारणा   में रिमोट एरिया एवं बैंक विहीन आबादी के स्व सहायता समूह की महिलाओं के आर्थिक उन्नयन हेतु छोटे छोटे लोन  दिये  जाते  हैं ,लोन देते समय सेवाभाव एवं परोपकार की भावना होना बहुत जरूरी होता है , लोन राशि की उपयोगिता के सर्वे , जांच एवं इन महिलाओं की इनकम जेनेरेटिंग गतिविधियों का माइक्रो फाइनेंस ब्रांच में काम करते हुए हमने बार बार  सर्वे/अवलोकन किया ,हमारे द्वारा किये गए सर्वे से लगा कि इस आवधारणा से कई  जिलों  की हजारों महिलाओं में न केवल आत्म विश्वास पैदा हुआ बल्कि इन स्माल लोन ने उन्हें आर्थिक रूप से मजबूत बनाया।

“बेदर्द समाज और अभावों के बीच कुछ कर दिखाना आसान नहीं होता पर इन महिलाओं के होसले बुलंद हुए  …..”

एक गांव  में एक खपरेल मकान में चाक पर घड़े को आकार देती ३० साल की बिना पढी़ लिखी लखमी प्रजापति को भान भी नहीं रहा  होगा कि वह अपनी जैसी उन हजारों महिलाओं के लिए उदाहरण  हो सकती है जो अभावों के आगे घुटने टेक देती है , दो बच्चों की माँ लक्ष्मी  ने जब देखा कि रेत मजदूर पति की आय से कुछ नहीं हो सकता तो उसने बचपन में अपने पिता के यहाँ देखा कुम्हारी का काम करने का सोचा , काम इतना आसान नहीं था लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी, महीनों की लगन के बाद उसने ये काम सीखा और आज वह छै सौ रूपये रोज कमा रही है इस प्रकार स्व सहायता समूह से जुड़ कर अपने परिवार का उन्नयन कर देवर की शादी का खर्चा भी  उसी ने उठाया और बच्चों को अच्छे स्कूल में भी पढ़ाया। 

शमा विश्वकर्मा भी ऐसी ही जीवंत खयालों वाली महिला मिली जिसने बिना पढ़े लिखे रहते हुए भी हार  नहीं मानी और अपने पैरों पर खड़ी हो गई , उसने बताया था कि पहले रेशम केंद्र में मजदूरी करने जाती थी तो ७०० / मिलते थे लेकिन हमारे  स्वसहायता समूह  ने रेशम कतरने  की मशीन का लोन दिया तो मशीन घर आ गई मशीन घर पर होने से यह फायदा हुआ कि काम के घंटे ज्यादा मिल गए और वह ८०००/ से ज्यादा कमाने लगी है ….. 

एक और गाँव की दो महिलाओं  ने तो सहकारिता की वह मिसाल पेश की जिसकी जितनी तारीफ की जाय  कम है , गाँव की अपने जैसी दस महिलाओं ने स्व सहायता समूह बनाकर लोन लिया फिर सिकमी (लीज) पर खेती करने लगीं , समूह की सब महिलाएं खेतों में हल चलने के आलावा वह सब काम भी करती है जो अभी तक पुरुष करते थे …….. इसके बाद इन महिलाओं  ने गांव में  शराब की दुकान के सामने जनअभियान चला कर गांव से शराब की दुकान हटवा दी और गांव के किसानों के घरों में आशा की किरणें फैला दीं ।

शाखा के सर्वे और फालोअप  के ये दो चार उदाहरण से हमें पता चला कि स्वसहायता समूह की महिलाएं बड़े से बड़े काम करने में अग्रणी भूमिका निभा सकतीं हैं, यदि इन्हें अच्छा मार्गदर्शन और प्रोत्साहन दिया जाए। जब इन सब महिलाओं से बात की गई तो उनका  कहना था कि ….गरीबी अशिक्षा  कुपोषण आदि की समस्याओं से सब कुछ डूबने की निराश भावना से उबरने के लिए जरूरी है कि गाँव एवं शहरों में हो रहे बदलाव को महिलाएं सकारात्मक रूप में स्वीकार करें।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 113 ☆ पढ़ाकू गोंड कन्या – 6 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण कुमार डनायक जी ने अपनी सामाजिक सेवा यात्रा को संस्मरणात्मक आलेख के रूप में लिपिबद्ध किया है। आज प्रस्तुत है इस संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला की अगली कड़ी – “पढ़ाकू  गोंड कन्या”)

☆ संस्मरण # 113 – पढ़ाकू  गोंड कन्या – 6 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

मैँ जब-जब पोड़की स्थित मां सारदा कन्या विद्यापीठ के अतिथि गृह में ठहरा, वहाँ के भोजनालय में भोजन करने गया, तो मैंने एक श्याम वर्णा, चपल व चौड़े माथे वाली छरहरी युवती को अवश्य देखा। वह मेरा मुस्कराकर अभिवादन करती, पूंछती ‘दादाजी कैसे हो ?’ यह युवती दिन में तो दिखाई नहीं देती पर सुबह और शाम सेवाश्रम में अवश्य मिलती। लेकिन जब फरवरी 2022  के मध्य  में मैं पुन: सेवाश्रम गया तो चंचल स्वभाव की वह युवती मुझे दिखाई नहीं दी। मैंने वहाँ के शिक्षक प्रवीण कुमार द्विवेदी से उसके विषय में पूँछा तो पता चला वह भुवनेश्वरी थी।  और एक दिन द्विवेदी जी उसे मुझसे मिलवाने ले ही आए।

अमरकंटक के मूल निवासी गोंड आदिवासी परिवार में जन्मी भुवनेश्वरी, समीपस्थ ग्राम धरहरकलां की निवासी है। उसके पिता मानसिंह गोंड पाँचवी तक पढे हैं व माता जयमती बाई अनपढ़ हैं। वह याद करती है कि पूरा गाँव लगभग अनपढ़ ही था, केवल प्राथमिक शाला के शिक्षक राम सिंह मरावी ही शिक्षित थे और वही ग्रामीणों को शिक्षा की प्रेरणा देते, सभी लोग उनकी सलाह को मानते थे। जब वर्ष 1999 में भुवनेश्वरी पाँच वर्ष की हुई तब उसके पिता ने मरावी मास्टर साहब  प्रेरणा से विद्यापीठ में उसका प्रवेश करवा दिया।  शुरू में तो उसे स्कूल का अनुशासन रास  नहीं आया, गृह ग्राम की नन्ही सखियाँ याद आती और माँ की ममता को यादकर वह बहुत बिसुरती। ऐसे समय में बड़ी बहनजी और बड़ी कक्षा की छात्राएं उसे पुचकारती और मन बहलाती। धीरे-धीरे आश्रम में अच्छा लगने लगा और पढ़ना लिखना मन को भाने लगा।

एक अत्यंत गरीब परिवार में जन्मी भुवनेश्वरी ने, जिसके पिता अपने खेत में हाड़ तोड़ मेहनत कर केवल पेट भरने लायक अन्न उपजा पाते, सातवीं कक्षा माँ सारदा कन्या विद्यापीठ से उत्तीर्ण की और भेजरी स्थित उच्चतर माध्यमिक विद्यालय बारहवीं की परीक्षा पास की तो माता पिता को इस अठारह वर्षीय युवती के विवाह की चिंता सताने लगी। लेकिन भुवनेश्वरी तो आगे पढ़ने की इच्छुक थी और ऐसे में आदिवासी बालिकाओं के तारणहार बाबूजी उसकी मदद को आगे आए। बाबूजी और बहनजी ने सेवाश्रम के छात्रावास में उसके रहने-खाने की व्यवस्था कर दी और इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजाति विश्वविद्यालय में उसे प्रवेश दिलवा दिया। यहाँ की निशुल्क शिक्षा व्यवस्था का लाभ लेकर भुवनेश्वरी ने पहले संग्रहालय विज्ञान विषय लेकर स्नातक परीक्षा में सफलता हासिल की और फिर जनजातीय अध्ययन विषय में स्नातकोत्तर परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की। सेवाश्रम में पढ़ने वाली नन्ही आदिवासी बालिकाओं की भुवी दीदी ने आगे पढ़ने की सोची और अमरकंटक स्थित कल्याणीका महाविद्यालय से बीएड  भी 89% अंकों के साथ उत्तीर्ण कर लिया।

आजकल भुवनेश्वरी अमरकंटक क्षेत्र के बिजुरी ग्राम स्थित निजी विद्यालय में शिक्षिका है और उसका मासिक वेतन पाँच हजार रुपये से भी कम है। मैंने कहा ‘यह तो शोषण है और  इतने कम  वेतन से संतुष्ट हो क्या ?’  जवाब मिला ‘नहीं! पर मजबूरी है। सरकारी नौकरी के लिए आवेदन किया है पर अभी तक प्रक्रिया शुरू नहीं हुई। बड़े शहरों के निजी स्कूलों में जहां वेतन अच्छा मिलता है हम काले आदिवासियों को, जिन्हें अंग्रेजी में गिटिर-पिटिर करना नहीं आता,   कौन भर्ती करेगा।‘

डाक्टर सरकार की याद करते हुए उसकी आंखे नम हो जाती है। उसे आज भी विद्यापीठ की छात्रा के रूप में बनारस और जगन्नाथ पुरी की यात्राओं  की याद है। वह बताती है कि इन  यात्राओं के दौरान बाबूजी हम बच्चों को एक दिन किसी अच्छे होटल में, यह कहते हुए, जरूर भोजन करवाते कि इससे बच्चों की झिझक दूर होगी। भुवनेश्वरी को आज भी याद है जब करिया मुंडा लोकसभा के उपाध्यक्ष थे और अमरकंटक आए तब बाबूजी ने उन्हे विद्यापीठ आमंत्रित किया था। करिया मुंडा से विद्यापीठ की पूर्व छात्रा गुलाबवती बैगा ने संभाषण किया और फर्रीसेमर की पाँचवी तक पढ़ी लाली बैगा ने उन्हें स्थानीय बैगा आदिवासियों की संस्कृति से परिचित कराया और इसके लिए दोनों को बाबूजी ने बखूबी प्रशिक्षित किया था।

जब मैंने उसकी अन्य बहनों की पढ़ाई लिखाई के बारे में पूछा तो उसने बताया कि चार बहने इसी विद्यापीठ से पढ़कर निकली हैं। एक बहन ने तो बीएससी तक की शिक्षा ग्रहण की और नृत्य, गीत-संगीत व चित्रकला में निपुण सबसे छोटी बहन यमुना अब शासकीय उत्कर्ष उच्चतर माध्यमिक विद्यालय अनूपपुर में दसवीं की छात्रा है।

मैंने उससे शादी विवाह पर विचार पूछे। बिना शरमाये भुवनेश्वरी ने उत्तर दिया पहले नौकरी खोजेंगे, अपने पैरों पर खड़े होकर बाबूजी का सपना पूरा करेंगे फिर शादी की सोचेंगे। वह कहती है कि अमरकंटक क्षेत्र के  आदिवासी युवा शिक्षित तो हो गए  हैं पर बेरोजगारी के चलते उनमें गाँजा की चिलम फूकने का चलन बढ़ा है और फिर मद्यपान तो आदिवासी छोड़ना ही नहीं चाहते। गैर आदिवासी समुदाय की देखादेखी में दहेज का चलन गोंड़ों में बढ़ा है और इससे नारी प्रताड़ना के मामले भी अब बढ़ रहे हैं। वह ऐसा जीवन साथी चाहती है जिसमें नशा जैसे दुर्गुण नहीं हों। वह कहती हैं कि शिक्षा से जागरूकता तो बढ़ी है पर कुछ बुराइयाँ भी आदिवासियों में आ गई हैं। वह इन बुराइयों की  खिलाफत  करने में स्वयं को अकेला पाती है।  

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता # 141 ☆ रिकवरी और ‘गुड़ -गुलगुले’ ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक अविस्मरणीय एवं विचारणीय संस्मरण रिकवरी और ‘गुड़ -गुलगुले’”।)  

☆ संस्मरण  # 141 ☆ रिकवरी और ‘गुड़ -गुलगुले’ ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

प्रमोशन होकर जब रुरल असाइनमेंट के लिए एक गांव की शाखा में पोस्टिंग हुई,तो ज्वाइन करते ही रीजनल मैनेजर ने रिकवरी का टारगेट दे दिया, फरमान जारी हुआ कि आपकी शाखा एनपीए में टाप कर रही है और पिछले कई सालों से राइटआफ खातों में एक भी रिकवरी नहीं की गई, इसलिए इस तिमाही में राइट आफ खातों एवं एनपीए खातों में रिकवरी करें अन्यथा कार्यवाही की जायेगी ।

ज्वॉइन करते ही रीजनल मैनेजर का प्रेशर, और रिकवरी टारगेट का तनाव। शाखा के राइट्सआफ खातों की लिस्ट देखने से पता चला कि शाखा के आसपास के पचासों गांव में आईआरडीपी (IRDP – Integrated Rural Development Programme – एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रम) के अंतर्गत लोन में दिये गये गाय भैंसों के लोन में रिकवरी नहीं आने से यह स्थिति निर्मित हुई थी। अगले दिन हम राइट्स आफ रिकवरी की लिस्ट लेकर एक गांव पहुंचे। कोटवार के साथ चलते हुए  एक हितग्राही रास्ते में टकरा गया।  हितग्राही  गुड़ लेकर जा रहा था, कोटवार ने बताया कि इनको आपके बैंक से दो गाय दी गईं थी। हमने लिस्ट में उनका नाम खोजा और उनसे रिक्वेस्ट की आज किसी भी हालत में आपको लोन का थोड़ा बहुत पैसा जमा करना होगा।

….हम लोग वसूली  के लिए दर बदर चिलचिलाती धूप  में भटक रहे है और आप गुड -गुलगुले खा रहा है ….बूढा बोला …बाबूजी गाय ने  बछड़ा  जना  है गाय के लाने सेठ जी से दस रूपया मांग के 5 रु . का गुड  लाये है…. जे  5 रु. बचो  है लो जमा कर लो …..

लगा ..किसी ने जोर से तमाचा जड़ दिया हो, अचानक रीजनल मैनेजर की डांट याद आ गई, मन में तूफान उठा, रिकवरी के पहले प्रयास में पांच रुपए का अपमान नहीं होना चाहिए, पहली ‘बोहनी’ है और हमने उसके हाथ से वो पांच रुपए छुड़ा लिए …..

बूढ़े हितग्राही ने कातर निगाहों से देखा, हमें दया आ गई, कपिला गाय और बछड़े को देखने की इच्छा जाग्रत हो गई, हमने कहा – दादा हम आपके घर चलकर बछड़ा देखना चाहते हैं। कोटवार के साथ हम लोग हितग्राही के घर पहुंचे, कपिला गाय और उसके नवजात बछड़े को देखकर मन खुश हो गया, और हमने जेब से पचास रुपए निकाल कर दादा के हाथ में यह कहते हुए रख दिए कि हमारी तरफ से गाय को पचास रुपए का और गुड़ खिला देना, और हम वहां से अगले डिफाल्टर की तलाश में सरक लिए …..

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 112 ☆ पढ़ो लिखो, सोच बदलो और परिवर्तन करो – 5 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण कुमार डनायक जी ने अपनी सामाजिक सेवा यात्रा को संस्मरणात्मक आलेख के रूप में लिपिबद्ध किया है। आज प्रस्तुत है इस संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला की अगली कड़ी – पढ़ो लिखो, सोच बदलो और परिवर्तन करो)

☆ संस्मरण # 112 – पढ़ो लिखो, सोच बदलो और परिवर्तन करो – 5 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

गुलाबवती बैगा एक ऐसी लड़की की कहानी है जो बिना खिले ही मुरझा जाती अगर दो प्रेरक व्यक्तित्व उचित समय पर हस्तक्षेप न करते। यह दो व्यक्तित्व हैं उसकी अनपढ़ नानी, हर्राटोला निवासिनी भुलरिया बाई बैगा और दूसरे व्यक्ति हैं कलकत्ता से घूमते फिरते अमरकंटक पहुंचे डाक्टर प्रवीर सरकार जो पेशे से होम्योपैथिक चिकित्सक हैं, स्वभाव से साधू हैं और मन विवेकानन्द के भक्त। डाक्टर सरकार जब  1995में अमरकंटक आए और यहां के बैगा आदिवासियों की व्यथा, विपन्नता देखी तो फिर यहीं बस गए। पहले लालपुर और फिर पोडकी में उन्होंने एक कच्चे मिट्टी और घांस-फूस के मकान में चिकित्सालय और बैगा बच्चियों के लिए 1996में स्कूल खोला और उसमें भर्ती होने को, अपनी नानी के साथ सबसे पहले आई गुलाबवती बैगा, जिसकी मां का बचपन तो बगल के गांव हर्राटोला में बीता पर ब्याह हुआ सलवाझोरी में जो आजकल छत्तीसगढ में है। यह बच्ची जब 2001में पांचवीं कक्षा पास करने के बाद जब अपने पितृगृह गई तो पिता ने फरमान जारी किया कि बहुत पढ़ लिया चलो सरपंच के पास तुम्हें कोई नौकरी दिलवाएंगे और तुम्हारा ब्याह करेंगे। बैगा आदिवासियों की बिरादरी में सरपंच या मुखिया की भूमिका महत्वपूर्ण होती है और अपने टोले या मोहल्ले के निवासियों के जीवन-यापन संबंधित फैसले वहीं करता है। अबोध बालिका मन ही मन घुटती, पिता से विरोध में कुछ कह न पाती और मां से अपना दुःख व्यक्त करती पर पिता कहां सुनता वह तो अपने समाज की मर्यादाओं से बंधा था। ईश्वर ने शायद बालिका की आर्त पुकार सुन ली और उसकी नानी अचानक ही वहां पहुंच गई। मां बेटी ने मिलकर नानी को सब हाल सुनाया और नानी भी अड़ गई कि गुलाब आगे पढेगी। पिता के तमाम तर्क की ज्यादा पढ़ लिख जाएगी तो कुलक्षणी हो जाएगी, घर के काम-काज कब सीखेगी, इससे बियाह कौन करेगा, नानी को झुका न सके। नानी भी जिद्द कर बैठी की गुलाब को वह पढ़ाएगी। पिता कहते पढ़ाने लिखाने रुपैया कहां से आएगा, नानी और नातिन कहते बाबूजी यानि डाक्टर सरकार देंगे। लेकिन पुरुष शक्ति के आगे कभी नारी का अड़ना सफल हुआ है? शायद नहीं। पर इस बार हो गया, पिता नहाने गए और बैगाओं को नहाने के लिए तीन चार किलोमीटर दूर किसी जंगली झरने पर ही पानी नसीब होता है तो नानी ने मौका देखा, नातिन से कहा चल गुलाब मेरे साथ तुझे मैं आगे पढ़ाऊंगी। पितृगृह से आई बालिका उसके बाद डाक्टर सरकार के संरक्षण में रही। उन्होंने भी गुलाब के पिता और गांव के सरपंच को समझाया थोड़ी दम भी दी कि बाल विवाह यानी पुलिस कोर्ट कचहरी आदि की झंझट। खैर सब गुस्से में पांव पटकते चले गए और गुलाब भर्ती हो गई पोडकी स्थित शासकीय माध्यमिक विद्यालय में।  जहां से वह 2004में आठवीं कक्षा उत्तीर्ण हुई। फिर नौवीं और दसवीं की पढ़ाई उसने समीपस्थ ग्राम भेजरी से उत्तीर्ण की और हायर सेकंडरी स्कूल अमरकंटक से बारहवीं 2008में उत्तीर्ण हो गई। डाक्टर सरकार उसके अभिभावक बने रहे। कपड़े भोजन और पुस्तकों की व्यवस्था डाक्टर सरकार द्वारा संचालित श्रीरामकृष्ण विवेकानन्द सेवाश्रम पोडकी करता, गुलाब का काम सिर्फ पढ़ना था। बारहवीं होते होते अबोध बालिका से किशोरी बन चुकी गुलाब के सपने तो ऊंची उड़ान भरने लगे। वह  इस क्षेत्र में स्थापित हो रहे इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजाति विश्वविद्यालय के निर्माण कार्यों को देखती और वहां पढ़ाते प्राध्यापकों को कभी अमरकंटक में तो सेवाश्रम में डाक्टर सरकार से चर्चा करते देखती। इच्छा हुई मैं भी ग्रेजुएट बनूंगी। और हिम्मतवाले कभी हारते नहीं है। डाक्टर सरकार कन्याहट के आगे फिर नतमस्तक हुए और उसे विश्वविद्यालय ले गए बीए में दाखिला कराने। इस विश्वविद्यालय से गुलाबवती बैगा, नानी के गांव वालों की गुलबिया जब 2011में स्नातक की उपाधि धारण कर बाहर निकली तो वह अमरकंटक क्षेत्र की पहली बैगा महिला बनी बीए पास । सरकार ने उसके प्रयासों का सम्मान किया और प्राथमिक शाला धमगढ में उसे शिक्षिका बना दिया। और अभी 20जनवरी 2021को मुख्यमंत्री ने भी सम्मानित किया।गुलाबवती बैगा के पुरुषार्थ की कहानी और उसके भविष्य निर्माण में नानी के योगदान की बात जब इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजाति विश्वविद्यालय के कुलपति डाक्टर श्री प्रकाश मणि त्रिपाठी ने सुनी तो उन्होंने सपत्नीक गुलाबवती बैगा व उसकी नानी वे मां के साथ फोटो खिंचवाई और मदनलाल शारदा फैमिली फाउंडेशन पुणे ने भी उसे पुरस्कृत करते हुए सम्मानित किया।

नौकरी पश्चात 2012में गुलाबवती का जब विवाह हुआ तो उसे मनचाहा वर मिला जो उसी के समान स्नातक है। अब दो बच्चों की मां, 2013में राजवीर व 2017में अर्नव बैगा की जननी, जब स्कूटी पर सवार होकर, करीने से तैयार होकर  साफ सुथरे कपड़े पहनकर स्कूल पढ़ाने जाती है तो बहुत सी आदिवासी बालिकाएं उसे घेर लेती हैं और उसकी राम कहानी उत्साह से सुनती हैं। उसकी कहानी उन बच्चियों को प्रेरणा देती है क्योंकि गुलाबवती न तो राजकुमारी है और न तो कोई परी  वह तो उनके समुदाय से बाहर निकली एक बहादुर स्वयंसिद्धा है।

मैंने उससे पूछा तुम तो पढ़ गई पर बाकी लोगों को क्या सिखाती हो तो वह थोड़ा झिझकते हुए बोलती हैकि दादा मैं तो बाबूजी की सीख सबको देती हूं कि पढ़ो लिखो, सोच बदलो और परिवर्तन करो। वह कहती है कि बैगा आदिवासियों में खान पान को लेकर कई बुराइयां हैं वे चूहा तक मारकर खा जाते हैं, मद्यपान बहुत करते हैं और पौष्टिक आहार नहीं लेते, शौच वगैरह भी नहीं करते, नहाना धोना तो बहुत कम करते हैं, महिलाओं का पहनावा भी पुरातनपंथी है। यह सब बदलना चाहिए और वह अपने लोगों इन परिवर्तनों को स्वीकार करने को कहती है । मैंने कहा फिर तो उनका बैगापन ही खत्म हो जाएगा तो उसका जवाब है कि बैगापन तो हमारे भोलेपन में है वह तो गोदने की तरह हमारे तन-मन में व्याप्त है। बैगानी संस्कृति को हमें बचाना है पर उन भावनाओं और परम्पराओं को तो त्यागना ही होगा जो हमें डरपोक बनाती है। वह कहती हैं आज भी बैगा मोटरसाइकिल पर अंजान व्यक्ति को देखकर जंगल भाग जाते हैं। बीमार पड़ते हैं तो दवाई नहीं करवाते वरन टोना टोटका करते फिरते हैं। बैगा लड़के लड़कियां पढ़ेंगे लिखेंगे तो डर खत्म होगा और वे अपनी बात खुलकर कह पाएंगे, स्वच्छता से रहना सीखेंगे तो बीमार नहीं पड़ेंगे। डाक्टर सरकार के लिए उसके मन में अगाध श्रद्धा है, वह कहती है कि बाबूजी ने उसे बस जन्म भर नहीं दिया बाकी उसके मां-बाप तो वहीं हैं। वह बताती है कि हमारे पिता की जो आमदनी थी उससे तो बस गुजर बसर लायक व्यवस्था बनती थी, नानी भी मेहनत मजदूरी कर बस अपना पेट भरने लायक कमाती थी। ऐसी विपरीत आर्थिक परिस्थितियों में मेरा पढ़ पाना तो नामुमकिन ही था। लेकिन बाबूजी ने बहुत सहारा दिया। उन्होंने मुझे इसी सेवाश्रम के छात्रावास में रखा  और भोजन, कपड़ों और किताबों की व्यवस्था की। जब कभी गाँव के लोग ताने देते मेरे पढने स्कूल जाने का मजाक उड़ाते तो बाबूजी उन्हें डांटते और मुझे समझाते मेरा मनोबल बढाते।आज अगर मैं सुखी जीवन बिता रही हूँ तो यह सब कुछ बाबूजी के कारण ही संभव हो सका। अगर वे इस क्षेत्र में न आते तो मेरे जैसी अनेक बैगा लडकियाँ परिपाटी और परम्पराओं की बलि चढ़ गई होती।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ हर आदमी में होते हैं… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण ☆ हर आदमी में होते हैं… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

निदा फाजली का बहुत मशहूर शेर है :

हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी

जिसको भी देखना बड़े गौर से देखना…

आज मैंने सोचा कि किसी और को क्यों देखूं ? अपने ही गिरेबान में झांक कर देखूं कि मेरे अंदर कितने आदमी हैं ? कैसे एक कमलेश भारतीय इतने चेहरे लगा लेता है ?

मित्रो ! मेरे जन्म के बाद पालन पोषण नवांशहर के शारदा मुहल्ले में हुआ यानी ब्राह्मणों के बीच एक सरीन (खत्री ) परिवार का बेटा पला बढ़ा । पूरे सैंतीस साल उस मोहल्ले में रहा और ऐसे माहौल में जहां रसोई में नंगे पैर ही जा सकते थे और अंडे मीट मांस की चर्चा तक गुनाह थी । शुद्धता , पांडित्य और पोथी पत्री बांचने , भविष्य बताने वाले, ग्रहदोष टालने वाले भी थे । इसी के चलते हमें भी कुछ दोस्त पंडित जी पुकार लेते थे । कभी बुरा नहीं लगा ।

इसके बावजूद हमारा गांव था तीन चार किलोमीटर दूर सोना नाम से । वहां हमारी खेती थी , हवेली थी और रोज़ शाम वहीं गुजरती । पहले पिता जी के साथ । वे गांव के नम्बरदार भी थे । लगान वसूल करने जाते तब भी साथ रहता और कोर्ट कचहरी में गवाही देने जाते तब भी साथ देता । यानी गांव के लोगों से सीधे सीधे वास्ता रहता । वे अपने ढंग से बातचीत करते । अनाज मंडी और गन्ने की पर्ची लेकर गन्ना मिल भी जाते । इस तरह मेरी एक साथ अनेक अलग अलग दुनिया थीं । अलग अलग व्यवहार । अलग अलग चेहरे । पिता जी के अपने जीवन से जल्द विदा हो जाने पर पढ़ाई के साथ साथ न केवल खेती बल्कि मेरे नाम नम्बरदारी भी आई और आज तक मेरे नाम चल रही है । बेशक यह काम मैंने कभी नहीं किया । पहले अपने ही परिवार के एक सज्जन को दिये रखा और फिर उनके बाद अपनी खेती संभालने वाले दुम्मण को सौंप रखा है । सरकारी कागजों में नम्बरदार बनने का सुख है तो मेरा एक चेहरा यह भी है । कभी कभार दूसरों के कागज तस्दीक भी कर देता हूं जब कभी अपने शहर जाना होता है । हां , छोटी उम्र में ही नवांशहर से राजनीति करने वाले दिलबाग सिंह के करीब आया और पूरा साथ दिया हर चुनाव में । आखिरी समय जब वे पंजाब के कृषि मंत्री बने तो मुझे अपना ओएसडी बनाने के लिए बुलाया तब मना कर दिया क्योंकि राजनीति कभी मेरी मंजिल नहीं रही । ट्रिब्यून में ही इक्कीस साल बिता दिये । फिर एक और नेता मिले भूपेंद्र सिंह हुड्डा जो ले गये हरियाणा ग्रंथ अकादमी का उपाध्यक्ष बना कर । यह भी एक चेहरा हो सकता है मेरा जबकि मैं वही कलम का सिपाही बन कर खुश हूं ।

पढ़ाई लिखाई कर शहीद भगत सिंह के गांव में आदर्श स्कूल में पहले हिंदी प्राध्यापक बना और बाद में प्रिसिपल बना । इस तरह एक चेहरा मेरा शिक्षक और नसीहतें देने वाला भी हो सकता है । फिर चंडीगढ़ आया दैनिक ट्रिब्यून में उपसंपादक बन कर । सात साल रहा और एक महानगर जैसे शहर का बाशिंदा बना लेकिन वह गांव का आदमी ही रहा । शेखर जोशी की कहानी दाज्यू का नन्हा सा हीरो जो हर कदम पर छला जाता है । वह गांव वाला भोलापन नहीं गया । और न जाये, यही दुआ है मेरी रब्ब से। मेरे अंदर बच्चा जिंदा रहे ।

सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी

सच है दुनिया वालो कि हम हैं अनाड़ी

गीत अक्सर गुनगुनाता हूं । लोग इस बात का फायदा उठा कर जब चलते बनते हैं तब सोचता हूं कि अगली बार सावधान रहूंगा पर सावधान कभी न हुआ और जिसका जोर चला वह छल कर चलता बना । यह चेहरा भी है मेरा ।

आर्य समाज से मेरे नाना जुड़े थे और मेरी दादी मंदिर लेकर जाती हर सुबह शाम । इस तरह दो अलग अलग चेहरे ये भी रहे । ननिहाल जाऊं तो हवन में बैठूं और नवांशहर रहूं तो दादी के साथ मंदिर जाकर आरती करूं ।

अब सोचता हूं कि मेरा कौन सा चेहरा असली है ? शारदा मुहल्ले वाला लड़का या गांव वाला या फिर बहुत नर्म , दयालु या एक ओशो की किताबें पढ़ने वाला थोड़ा सा संन्यासी जैसा ? थोड़ा सा ब्राह्मणों जैसा और थोड़ा सा गांव के अनाड़ी जैसा ? कैसा हूं मैं ? कितने चेहरे हैं मेरे ? प्यार करूं तो पूरा करूं और जब गुस्से हो जाऊं तो गांव वाले की तरह पूरा गुस्सा करूं । बिखर बिफर जाऊं गुस्से में । कोई छिपाव नहीं भावों का । कितने वर्ष वामपंथी विचारधारा से जुड़ा रहा और कहानियों में अपनी बात रखी । कौन हूं मैं ? कामरेड , ओशो के विचार या स्वामी दयानंद की सीख लेने वाला ? कौन हूं और क्या हो सकता था ? क्या हो गया ? प्रिंसिपल था , पत्रकार कैसे बनता चला गया ? क्या कर पाया ? क्या कुछ और बनना अभी बाकी है ? सोचता रहता हूं और अपने ही अनेक चेहरे देखता रहता हूं और निदा का शेर याद कर मुस्कुरा देता हूं ,,

जिसको भी देखना बड़े गौर से देखना…

लेकिन मैं तो अपने-आपको ही गौर से देख रहा हूँ और एक और शेर के साथ बात खत्म कर रहा हूं :

धूल चेहरे पर जमी थी

और मैं आइना साफ करता रहा …

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 110 ☆ चार अनाथ बालिकाओं की कहानी – 3 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण कुमार डनायक जी ने अपनी सामाजिक सेवा यात्रा को संस्मरणात्मक आलेख के रूप में लिपिबद्ध किया है। आज प्रस्तुत है इस संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला की अगली कड़ी – “चार अनाथ बालिकाओं की कहानी”)

☆ संस्मरण # 110 – चार अनाथ बालिकाओं की कहानी – 3 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

माँ  सारदा कन्या विद्यापीठ के छात्रावास में एक अनाथ कन्या शिवानी रहती है ।  यह मुझे तब ज्ञात हुआ शिवानी ने 12 मार्च 2021 को शिवमंदिर के सामने डाक्टर सरकार की चिता को मुखाग्नि दी थी और उनका अंतिम संस्कार विधि विधान से किया । लेकिन जब पिछली बार पोड़की गया तो पता चला कि शिवानी सहित चार अनाथ बालिकाएं यहाँ छात्रावास में रहकर शिक्षा ग्रहण कर रही हैं।

शिवानी जब तीन वर्ष की थी, तब वह अपने माता पिता से कटनी रेलवे स्टेशन में बिछड़ गई । रेलवे पुलिस ने उसे वहाँ एक अनाथालय में दाखिल करा दिया । कुछ दिन वह अनाथालय में रही और फिर मौका देखकर वहाँ से निकल भागी, शायद उसे वहाँ के वातावरण में प्रेम और करुणा का एहसास नहीं हुआ होगा । अनुपपुर स्टेशन रेलवे  पुलिस के द्वारा उसका  पुन: उद्धार किया गया और फिर जिला प्रशासन के उप जिला दंडाधिकारी ने डाक्टर सरकार से चर्चा कर शिवानी को उन्हें सौंप दिया। तब से शिवानी आश्रम में रह रही है और उसने आठवीं की परीक्षा विगत वर्ष उत्तीर्ण कर ली है । बिना माँ की बेटी के लिए यह उम्र अनेक परेशानियाँ लेकर आती है और यही कुछ अब शिवानी के साथ हो रहा है । आश्रम की अन्य बालिकाओं व कर्मचारियों के सद्व्यवहार के बावजूद शिवानी अक्सर स्वेच्छाचारी हो जाती है । ऐसे में उसे नियंत्रित करना बड़ी बहनजी के लिए भी मुश्किल हो जाता है । शिवानी के स्वभाव में हो रहे परिवर्तन, एवं अध्ययन के प्रति उसकी अरुचि  को देखते हुए उसका दाखिला निकटवर्ती उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में नहीं कराया गया । वह निजी छात्रा के रूप में आगे की पढ़ाई जारी रखेगी । शासन द्वारा जातिगत आधार पर जो सुविधाएं दी जाती है शिवानी उससे वंचित है क्योंकि उसके पास तहसीलदार द्वारा जारी जाति प्रमाणपत्र नहीं है । भविष्य में उसके विवाह की भी समस्या आएगी । शासन के अधिकारियों के पास इन समस्याओं का समाधान, किसी परिवार द्वारा उसे  गोद लिया जाना है। पहले बाबूजी और अब  बड़ी बहनजी शिवानी को किसी को  गोद दिए जाने के पक्ष में नहीं रहे हैं । शिवानी भी गोद लिए जाने के प्रस्ताव से असहमत है, वह स्वयं को बाबूजी की पुत्री मानती है ।  इन सभी सामाजिक और शासकीय परेशानियों  के बावजूद शिवानी का भविष्य अंधकारमय नहीं है। बड़ी बहनजी कहती हैं कि वह सेवाश्रम की बेटी है और जब उसकी पढ़ाई पूरी हो जाएगी तब उसे यहीं योग्यता के अनुरूप काम दिया जाएगा ताकि वह अपनी आजीविका कमाती रहे, सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर सके।  

अंकिता अभी चौथी कक्षा में पढ़ रही है और उसकी बड़ी बहन हिरोंदिया सातवीं कक्षा की छात्रा है । खाँटी गाँव की रहने वाली इन दोनों बैगा कन्यायों के पिता प्रेम बैगा की मृत्यु हो गई । दादी ने बच्चियों की माँ, गुलवतिया  को इतना प्रताड़ित किया कि उसने आत्महत्या कर ली ।  गुलवतिया की छोटी  बहन गुलाबवती बैगा विद्यापीठ की पुरानी छात्रा थी । उसने जब बाबूजी को यह दुखद गाथा सुनाई तो करुणा की मूर्ति डाक्टर सरकार हिरोंदिया को सेवाश्रम ले आए और उसका प्रवेश पहली कक्षा में करवाया। बाद में जब अबोध अंकिता बड़ी हुई तो उसकी दादी स्वप्रेरणा से उसे भी सेवाश्रम में छोड़ गई । दोनों बहनें यहाँ छात्रावास में रहकर पढ़ रही हैं और अक्सर अपनी दादी से भी मिलने जाती रहती हैं । बड़ी बहनजी कहती हैं कि हिरोंदिया का अगर मन पढ़ने में लगा रहा तो यह लड़की भी अपनी मौसी गुलाबवती  की भांति स्नातक हो सकती है । उसमें क्षमता है पर उम्र का असर अनाथ बच्चियों को ज्यादा प्रभावित करता है। उम्र बढ़ने के साथ  मन भटकता रहता है, और ऐसे में माँ की भूमिका अहम हो जाती है । बालिकाओं को इस उम्र में माँ की सहानभूति और प्रेम से भरी फटकार दोनों की जरूरत होती है ।  मैंने कहा ‘आप ही इनकी माँ हैं ।‘ बड़ी बहनजी ने सकारात्मक प्रत्युत्तर दिया और बोली माँ की डांट फटकार का बच्चों को बुरा नहीं लगता पर मेरी इच्छा उन्हें दंडित करने की कभी नहीं होती, मैंने इन बच्चियों को उनकी अबोध अवस्था से पाल-पोष कर बड़ा किया है ।

पार्वती बैगा समीपस्थ ग्राम उमरगोहन के लंका टोला की निवासिनी है । गाँव का यह मोहल्ला बैगा बहुल है और रामायनकालीन रावण से इसका दूर दूर तक संबंध नहीं है । लंका टोला नामकरण का किस्सा आप विस्तार से उमरगोहान की कहानी में पढ़ सकते हैं । जब पार्वती विद्यापीठ की पाँचवी  कक्षा में पढ़ रही थी तब उसके पिता राय सिंह बैगा ने अपनी पत्नी की निर्दयतापूर्वक  हत्या कर दी । पार्वती की माँ घर में भोजन पका रही थी कि अचानक शराब के नशे में धुत्त रायसिंह बैगा ने कुल्हाड़ी के एक ही वार से अपनी पत्नी का सिर धड़ से अलग कर दिया । वह दिन भर एक हाथ में कुल्हाड़ी और दूसरे हाथ में मृत पत्नी का मुंड लिए गाँव में घूमता रहा। भयग्रस्त ग्रामीणों ने पुलिस को खबर दी। जब तक पुलिस मौका-ए-वारदात पर पँहुचती, हत्यारे का नशा उतर  चुका था और वह लंका टोला से लगे हुए मैकल पर्वत शृंखला के जंगल में मृत पत्नी की लाश ठिकाने लगाने के जुगाड़ में था कि पुलिस वहाँ पहुंची उसने अधजली लाश को अपने कब्जे में लिया, पंचनामा बना लाश को शव विच्छेदन के लिए भेज दिया, हत्यारा गिरफ्तार किया गया और अब जेल में आजीवन कारावास की सजा भुगत रहा है । अबोध बालिका से शुरू में बाबूजी ने माँ की हत्या राज छिपाए रखा । पार्वती के दो भाई,  पढ़ाई लिखाई से वंचित, अपने चाचा के साथ रहते हैं । पार्वती पोड़की स्थित उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में नौवीं कक्षा में पढ़ रही है । उसे शासकीय उत्कर्ष  उच्चतर माध्यमिक विद्यालय अनूपपुर द्वारा आयोजित प्रवेश परीक्षा में भी सफलता मिल गई थी । पर जाति प्रमाण पत्र के अभाव में वह वहाँ निशुल्क शिक्षा की पात्रता से वंचित हो रही थी इसीलिए उसे स्थानीय स्कूल में प्रवेश दिलवाया गया और सेवाश्रम के छात्रावास में रहने और भोजन की व्यवस्था की गई। यद्दपि बाद में बहुत ना नुकूर के बाद पार्वती के चाचा ने सहयोग दिया और दस्तावेज उपलब्ध कराए। हालांकि पार्वती के पास अब उसका जाति प्रमाणपत्र तो है पर इस विलंब ने उसे  उत्कर्ष विद्यालय की गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा से वंचित कर दिया । अनाथ बालिकाओं का यही प्रारब्ध होता है, परिजन उनका उपयोग मेहनत मजदूरी में चाहते हैं ताकि आमदनी का साधन बना रहे । ऐसी पृच्छा अक्सर पार्वती के पितृ कुल द्वारा की जाती है । वे उसे वापस गाँव ले जाना चाहते हैं और उसके विवाह पर जोर देते हैं । लेकिन बड़ी बहनजी चाहती हैं कि पार्वती आगे पढे और अपने पैरों पर खड़ी हो ।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 137 ☆ ओशो से एक मुलाकात ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक अविस्मरणीय संस्मरण  “ओशो से एक मुलाकात”।)  

☆ संस्मरण # 137 ☆ ओशो से एक मुलाकात ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय 

इन दिनों झूठ, डर और अविश्वास ने हम सब की जिंदगी में ऐसा कब्जा जमा लिया है कि कुछ भी सच नहीं लगता, किसी पर भी विश्वास नहीं होता। कोई अपने पुराने यादों के पन्ने खोल कर किसी को बताना चाहता है तो सुनने वाला डर और अविश्वास की चपेट में लगता है। 

जिस दोस्त को हम ये कहानी बता रहे हैं,वह इस कहानी के सच के लिए तस्वीर चाह रहा है, सेल्फी देखना चाह रहा है, विडियो की बात कर रहा है। उस जमाने में ये सब कहां थे। फिर कहां से लाएं जिससे उसे लगे कि- जो वह सुन रहा है सच सुन रहा है।  लड़कपन की कहानी है जब हम छठवीं या सातवीं में पढ़ रहे थे, गांव से पढ़ने शहर आये थे। गरीबी के साथ जबलपुर के गोलबाजार के एक खपरैल वाले कमरे में रहते थे। बड़े भाई उन दिनों डॉ महेश दत्त मिश्रा जी के अंडर में इण्डियन प्राइम मिनिस्तेर्स संबंधी विषय पर पीएचडी कर रहे थे पिता स्वतंत्रता संग्राम के दिनों नौकरी छोड़कर आंखें गवां चुके थे, मां पिता जी गांव में रहते थे। गोलबाजार में ही घर के पास महाकौशल स्कूल था और उस पार अलका लाज के पास साहूजी के मकान में महात्मा गांधी के निजी सचिव पूर्व सांसद डाक्टर महेश दत्त मिश्र  जी दो कमरे के मकान में किराए से रहते थे। मकान में कहीं कहीं सीमेंट उखड़ा दिखता। डॉ महेश दत्त मिश्र अविवाहित थे, खुद अपने हाथों घर की साफ-सफाई करते, खाना बनाते, बर्तन और कपड़े धोते। खेलते खेलते कभी हम उनके घर पहुंच जाते, एक दिन घर पहुंचे तो वे फूली फूली रोटियां सेंक रहे थे और एक पुरानी सी मेज में बैठे दाढ़ी वाले सज्जन को वो गर्म रोटियां परोस रहे थे। हम भी सामने बैठ गए, हमें भी गरमा गर्म एक रोटी परोस दी उन्होंने। खेलते खेलते भूख तो लगी थी। वे गरम रोटियां जो खायीं तो उसका प्यारा स्वाद आज तक नहीं भूल पाए। 

मिश्र जी गोल गोल फूली रोटियां सामने बैठे दाढ़ी वाले को परोसते जाते और दोनों आपस में हंस हंसकर बातें भी कर रहे थे। वे दाढ़ी वाले सज्जन आचार्य रजनीश थे जो उन दिनों विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र पढ़ाते थे। लड़कपन था खाया पिया और हम बढ़ लिए…. । कौन रजनीश, कहां के रजनीश इन सब बातों से दूर……

कुछ दिन बाद शहीद स्मारक के सामने हम लोग खेल रहे थे, खेलते खेलते शहीद स्मारक भवन के हाल में हम लोग घुस कर बैठ गए तो सामने मंच में बैठे वही दाढ़ी वाले रजनीश कुछ कुछ बोल रहे थे। थोड़े बहुत जो लोग सुन रहे थे, वे भी धीरे-धीरे खिसक रहे थे पर वे लगातार बोले ही जा रहे थे। इस तरह से लड़कपन में आचार्य रजनीश से बिना परिचय के मिलना हुआ। 

बड़े भैया के साथ परसाई जी के यहां जाते तब भी वहां ये बैठे दिखे थे पर उस समय हम न परसाई जी को जानते थे और न ये दाढ़ी वाले आचार्य रजनीश को। गोलबाजार में नरसिंह बिल्डिंग में हम किराये के कमरे में रहते थे, कमरे के पीछे आचार्य रजनीश के भाई अरविंद जैन रहते थे जो डीएनजैन स्कूल में पढ़ाते थे। 

कोरोना काल के दो तीन साल पहले जब पूना के आश्रम घूमने गए तो वहां हमारे यही दोस्त मिल गए, उनसे जब लड़कपन के दिनों की चर्चा करते हुए ओशो से भेंट की कहानी सुनाई तो पहले वे ध्यान से सुनते रहे फिर फोटो की मांग करने लगे… अब बताओ कि 49 साल पहले की फोटो दोस्त को लाकर कहां से दिखाते? जब हमें ये भी नहीं मालूम था कि फोटो – ओटो भी होती थी। हमने कहा पूना आये थे तो सोचा ओशो आश्रम भी घूम आयें और आप मिल गए तो यादों के पन्ने भी खुल गए तो सोचा इन यादों को आपसे शेयर कर लिया जाए, फोटो तो नहीं हैं पर मन मस्तिष्क में अचानक उभर आयीं ये बात जरूर है। 

सारी बातें सुनकर दोस्त ने एक अच्छी सलाह दी कि अब बता दिया तो बता दिया, अब किसी के सामने मत बताना, नहीं तो लोग सोचेंगे कि दिमाग कुछ घूम गया है……. कहां ओशो और कहां तुम!

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 135 ☆ अंखियों के झरोखे से – कथाकार ज्ञानरंजन जी ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक संस्मरण “अंखियों के झरोखे से – कथाकार ज्ञानरंजन जी”।)  

☆ संस्मरण # 135 ☆ “अंखियों के झरोखे से – कथाकार ज्ञानरंजन जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

उन दिनों पहल पत्रिका के संपादक एवं कहानी जगत के जबरदस्त हस्ताक्षर ज्ञान रंजन जी हमारे पड़ोसी थे। कलाई में आज तक घड़ी न पहनने वाले ज्ञान जी समय के बड़े पाबंद, घड़ी भले फेल हो जाए पर वे समय को पकड़ कर चलते हैं।अतिथि सत्कार और अपनेपन का भाव तो कोई उनसे सीखे। बीच बीच में टाइपराइटर में खटर पटर करते फिर लुंगी लपेटकर छत में कूद फांद करने लगते।

एक दिन रात्रि को लगभग दस बजे कुम्हार मोहल्ले की तरफ से बीस बाईस बरस की दो लड़कियां भागती हुईं  सीढ़ी में आ छुपीं, सीढ़ी से लगा हुआ ज्ञान जी के घर का दरवाजा खुलता था, ज्ञान जी हड़बड़ी में बाहर आए, दोनों लड़कियां हाथ जोड़कर रोती हुई बोलीं – साहब हमें बचा लो, कुम्हार मोहल्ले के कुछ लड़के अपहरण कर हमारी इज्जत लूटना चाह रहे हैं। लड़कियों ने बताया कि- वे रिश्तेदारी में हुई गमी में आयीं थी और कुम्हार मोहल्ले होते हुए अपने घरों को लौट रही थीं कि रात्रि का फायदा उठा कर वे हमें पकड़ना चाहते थे इसीलिए यहां घुस आयीं। पुलिस का तो कोई भरोसा था नहीं, वो भी रात के वक्त दो जवान लड़कियों को पुलिस वालों के जिम्मे करना… सो ज्ञान जी ने तुरंत सीढ़ी के ऊपर कमरे नुमा जगह में उन लड़कियों को जाने कहा… ठंड का मौसम था अपने घर से कंबल चादर लाकर उनका ओढ़ने बिछाने का इंतजाम किया और भाभी जी से गरमागरम खाना बनवा कर उन्हें दिया।  रात भर एक पिता की भांति दौड़ दौड़कर गैलरी से सीढ़ी तक नजर गड़ाए जागते रहे।  फिर सुबह चाय पिलाकर उन्हें सुरक्षित घर की तरफ रवाना किया और फिर तैयार होकर कालेज चले गए। वे बड़े साहित्यकार हैं पर मानवता की सेवा उन्होंने रात भर फेंस के इधर और उधर नजरें गड़ाए दो लड़कियों की इज्जत की रक्षा में जी जान लगा दी फिर समय पर कालेज पहुंच गए। रात भर जागे फिर कालेज से लौटकर टाइपराइटर में खटर पटर करते “पहल” के काम में लग गए, कलाई में घड़ी भले नहीं थी पर समय को पकड़ कर लुंगी बांध वे छत पर फिर से कूदा फांदी में लग गए… हम अँखियों के झरोखों से देखते रह गए…

© जय प्रकाश पाण्डेय

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