मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ एकमेव ‘वामन‘ मंदिर… लेखक : साकेत नितीन देव ☆ प्रस्तुती – सुश्री प्रभा हर्षे ☆

सुश्री प्रभा हर्षे

? इंद्रधनुष्य ?

एकमेव वामन मंदिर !!!… लेखक : साकेत नितीन देव ☆ प्रस्तुती – सुश्री प्रभा हर्षे

श्री विष्णूच्या दशावतारांपैकी पाचवा अवतार हा ‘वामन’ अवतार मानला जातो. हातात कमंडलू , डोक्यावर छत्र अणि एक पाय बळीराजाच्या माथ्यावर ठेवलेल्या वामनांचे चित्र अनेकदा बघितलेलं, मात्र वामनांची मूर्ती कुठेच दिसली नाही. ती इच्छा आपल्याच पुण्यात पूर्ण झाली.

पुराणांतील एका कथेनुसार, असुरांचे गुरू ‘शुक्राचार्य’ यांनी संजीवनी विद्या अवगत केली. त्याच्यामुळे मेलेले असुर पुन्हा जिवंत होऊ लागले. शुक्राचार्य हे असुरांचा राजा ‘बळीराजा’ साठी एक मोठा यज्ञ करतात. असुरांची शक्ती अनेकपटीने वाढते अणि ते इंद्रावर हल्ला करण्याची तयारी करतात. जर बळीराजाचे शंभर यज्ञ पूर्ण झाले, तर त्याला इंद्रपद मिळेल या भीतीने इंद्रदेव श्रीविष्णूंना शरण जातात. श्रीविष्णू त्यांना मदत करण्याचे वचन देतात.

महर्षी कश्यप आणि आदिती यांच्या पोटी श्रीविष्णू बालकाच्या रुपात जन्म घेतात. त्या बाळाचे नामकरण ‘वामन’ असे करण्यात येते. ऋषिमुनींकडून मृगचर्म, पलाश दंड, वस्त्र, छत्र, खडावा, कमंडळु वस्तू मिळाल्यावर वामन यज्ञास्थळी पोहोचतात. बटू रूपातील श्री वामन बळीराजाकडे भिक्षा मागण्यासाठी दाखल होतात अणि भिक्षेमध्ये तीन पावले भूमी मागतात, बळीराजा वचन देतात.

वामन विशाल रूप घेतात अणि एक पाय पृथ्वीवर आणि दुसरा पाय स्वर्गात ठेवुन दोन पावले घेतात. आणि मग बळीराजाला विचारतात “आता तिसरे पाऊल कुठे ठेवु?” आपला पराभव मान्य करत, पण दिलेले वचन पाळत शेवटी बळीराजा वामनासमोर नतमस्तक होतात व आपल्या डोक्यावर तिसरे पाऊल ठेवावे, अशी विनंती करतात. वामन तसेच करतात अणि बळीराजाला पाताळात ढकलतात. (ज्या दिवशी हे घडले तो दिवस म्हणजे बलिप्रतिपदा !). पुढे वामन पृथ्वी मानवांना अणि स्वर्ग देवांना देऊन टाकतो.

तर, अशा या वामनांचे एक मंदिर आपल्या पुण्यात आहे. डावा हात हृदयाशी, उजवा हात मोकळा सोडलेला, गळ्यात माळ, अंगात जानवे अणि चेहर्‍यावर प्रसन्न भाव अशी वामनांची मूर्ती आहे. विशेष म्हणजे शेजारी वामनांची आई ‘अदिती ‘ उभी आहे. माता अदितीच्या डाव्या हातात कमलपुष्प तर उजवा हात वामनांच्या खांद्यावर अभय मुद्रेत आहे. या दोन्ही मूर्तींना प्रभावळ असून, हे संपूर्ण शिल्प संगमरवरी दगडात घडवलेले आहे. 

अशा प्रकारचे हे कदाचित भारतातील एकमेव मंदिर असावे. सदर मंदिर शुक्रवार पेठेत, राजा दिनकर केळकर संग्रहालयाच्या शेजारी आहे. पूर्वी मंदिराला सभामंडप व गाभारा होता. तिथे असलेल्या ‘धर्म चैतन्य’ संस्थेत वासुदेवशास्त्री कोल्हटकर यांचे कीर्तन होत असे. एक शाळा ही भारत असत. आज ‘आल्हाद’ नवाच्या इमारतीच्या तळघरात हे मंदिर आहे. मंदिर खाजगी असून श्री कोल्हटकर त्याची व्यवस्था बघतात. 

लेखक : साकेत नितीन देव

(वामन जयंती, शके १९४५)

संग्रहिका : प्रभा हर्षे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ स्त्री शिवाय माणूस अपूर्णच !!!… ☆ प्रस्तुती – सुश्री मीनल केळकर ☆

? वाचताना वेचलेले ?

☆ स्त्री शिवाय माणूस अपूर्णच !!!… ☆ प्रस्तुती – सुश्री मीनल केळकर ☆

स्त्री शिवाय माणूस अपूर्णच !.. बघा ना…

शिक्षण घेत असताना ‘ विद्या ‘

नोकरी उद्योग करताना ‘ लक्ष्मी ‘

अंतसमयी ‘ शांती ‘! 

सकाळ सुरु होते तेव्हा ‘ उषा ‘

दिवस संपताना ‘ संध्या ‘!

झोपी जाताना ‘ निशा ‘

झोप लागली तर ‘सपना’!

मंत्रोच्चार करताना ‘ गायत्री ‘

ग्रंथ वाचन करताना  ‘ गीता ‘ ! 

आपुलकीच्या काळी ‘ नम्रता ‘ 

उद्विग्न पणात ‘ शितल ‘

मंदिरात ‘ दर्शना ‘ ‘ वंदना ‘ ‘ पूजा ‘ ‘आरती ‘अर्चना

…. शिवाय ‘ श्रद्धा ‘ तर हवीच !

वृद्धपणी  ‘ करुणा ‘ .. पण ‘ ममता ‘ सह बरं

आणि राग आलाच तर  ‘ क्षमा ‘ !

जीवन उजळविण्यासाठी ‘उज्ज्वला’ 

कठोर परीश्रम म्हणजे कांचन व साधना ! 

आणि सर्वात महत्वाचं …. 

प्रश्न सोडवायचा असेल तर सुचली पाहिजे ती “कल्पना” 

आनंद मिळविण्यासाठी  ‘कविता’ आणि कविता करण्यासाठी ‘प्रतिभा’ ! 

आणि .. अशा “कविता” रचण्यासाठी असावी लागते जवळ ती “प्रज्ञा”

लेखक : अज्ञात

संग्रहिका : मीनल केळकर

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 24 – बही-खाते सब झूठे हैं… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – बही-खाते सब झूठे हैं।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 24 – बही-खाते सब झूठे हैं… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

कब मनुष्य समझा इनने

मजदूर किसानों को 

हमने तो अपनी छाती से 

पत्थर तोड़े हैं 

पर अपने बँधुआ पुरखों ने 

खाये कोड़े हैं 

भूल नहीं सकते हैं

बचपन के अपमानों को 

इनके घर में रखे 

बही-खाते सब झूठे हैं 

गिरवी जहाँ बाप-दादों के 

रखे अँगूठे हैं 

हमको जूठन और

दूध देते थे श्वानों को 

दमन नहीं सह सकते 

हमने मन में ठाना है 

दृढ़ निश्चय कर लिये 

जुल्म से अब टकराना है 

मिलकर ध्वस्त करेंगे

आतंकी तहखानों को

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 101 – पितर-पक्ष में आ गए… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “पितर-पक्ष में आ गए…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 101 – पितर-पक्ष में आ गए…

पितर-पक्ष में आ गए, पुरखे घर की ओर।

मुंडन होते देखते, नदी जलाशय भोर।।

व्याकुलता उनकी बढ़ी, पितर तुल्य भगवान।

पहन मुखौटा जी रहे, कलयुग के इंसान।

जल तर्पण सब कर रहे, पितृ पक्ष का शोर।

जब भूखे प्यासे रहे,  नहीं दिया कागोर।।

खिड़की से तब झाँकते, रखा न अपने साथ। 

अर्थी पर जब सो गए, पीट रहे थे माथ।।

अब परलोकी हो गए, करते इस्तुति गान।

जीवित रहते कब मिला, हमको यह सम्मान।

स्वर्ग लोक से झाँकते, स्वजनों की यह भीर।

पिंडदान करते फिरें, गया-त्रिवेणी तीर।।

छत पर अब कागा नहीं, आकर करते शोर।

श्राद्ध-पक्ष में निकलती, पर उनकी कागोर ।

गायें अब तो घरों से, सभी गईं हैं भाग।

पंछी सारे उड़ गए, दिखें न कोई काग।।

प्रेम नेह सम्मान के, छूट रहे नित छोर ।

निज स्वार्थों से दूर अब, चलो नेह की ओर।।

सुख-दुख में सब एक हों, मानवता की डोर।

संस्कृति अपनी श्रेष्ठ है, पकड़ें उसका छोर ।।

सत्य सनातन में छिपा, मानव का कल्यान।

जीव प्रकृति जन देश-हित,छिपा हुआ विज्ञान ।।

 ©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सत्य ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – सत्य ? ?

पहले ने कहा-

सत्य मेरे साथ है,

दूसरे ने कहा-

सत्य मेरे साथ है,

तीसरे ने कहा-

सत्य मेरे साथ है,

चौथे ने कहा-

सत्य मेरे साथ है,

इसने कहा-

सत्य मेरे साथ है,

उसने कहा-

सत्य मेरे साथ है,

एक-एक ने कहा-

सत्य मेरे साथ है,

प्रत्येक ने कहा-

सत्य मेरे साथ है,

फिर समय ने

उलट दी सबकी आँखें,

सार्वभौम सत्य

अब विहँस रहा है,

अपना-अपना सत्य

सबको दिख रहा है..!

© संजय भारद्वाज 

(दोपहर 12:59 बजे, 13.01.2020)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 श्राद्ध पक्ष में साधना नहीं होगी। नियमितता की दृष्टि से साधक आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना करते रहें तो श्रेष्ठ है। 💥

🕉️ नवरात्र से अगली साधना आरंभ होगी। 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 180 ⇒ चेहरे पर चेहरा… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चेहरे पर चेहरा।)

?अभी अभी # 180 ⇒ चेहरे पर चेहरा? श्री प्रदीप शर्मा  ? ०००

THE BEARD 

क्या दाढ़ी चेहरे पर एक और चेहरा नहीं। केश को महिलाओं का श्रृंगार माना गया है और दाढ़ी को मर्दों की खेती, जब चाहे उगा ली, और जब चाहे काट ली। एक समय था, वानप्रस्थ और सन्यास के वेश में दाढ़ी का भी योगदान होता था। आज भी साधु, बाबा और संन्यासियों का श्रृंगार है यह दाढ़ी।

चलती का नाम गाड़ी की तर्ज पर किशोर कुमार ने एक फिल्म बनाई थी, बढ़ती का नाम दाढ़ी ! आप अगर काटो नहीं, तो दाढ़ी और नाखून दोनों बढ़ने लगते हैं। क्या विचित्र सत्य है, हमारे शरीर के नाखून और बाल, शरीर का हिस्सा होते हुए भी, इनमें खून नहीं है। इन्हें काटो, तो दर्द नहीं होता।

कैसी अहिंसक पहेली है यह ;

बीसों का सर काट लिया।

ना मारा ना खून किया। ।

हमारे दिव्य अवतार राम, कृष्ण, बुद्ध और महावीर के मुखमंडल की आभा देखते ही बनती है। स्वामी विवेकानंद के चेहरे का ओज देखिए। कलयुग के फिल्मी सितारों को ही देख लीजिए, देव, राज और दिलीप। धरम, राजेश खन्ना, जीतू और गोविंदा ही नहीं एंग्री यंग मैन अमिताभ भी ! बेचारे अमिताभ को तो स्क्रीन टेस्ट में भी बड़ी परेशानी आई थी। भला हो सात हिंदुस्तानी आनंद, नमकहराम, मिली और शोले और दीवार जैसी फिल्मों का, जिसने अमिताभ को सदी का महानायक बना दिया और हमारे बिग बी ने एक चेहरे पर एक और चेहरा चढ़ा लिया।

कितनी पते की बात कह गए हैं हसरत जयपुरी साहब फिल्म असली नकली में ;

लाख छुपाओ छुप ना सकेगा

राज दिल का गहरा।

दिल की बात बता देगा

असली नकली चेहरा। ।

साहिर ने अपने चेचक के दाग वाले चेहरे को कभी दाढ़ी में नहीं छुपाया लेकिन एक चेहरे पे कई चेहरे लगा लेने वालों की अच्छी खबर ली। गुलजार तो कह गए हैं, मेरी आवाज ही पहचान है, और आज इधर जहां देखो वहां, दाढ़ी ही मेरी पहचान है। ।

एक समय था, जब मर्द की पहचान मूंछों से होती थी।

लिपटन टाइगर वाला मुछंदर याद है न? लिपटन माने अच्छी चाय। मूंछ पर ताव देना और शर्त हारने पर मूंछ मुंडवा देने की कसम खाना आम था। मूंछ तो हमने भी बढ़ाई थी, लेकिन जब दाढ़ी भी बढ़ने लगी तो पिताजी ने डांट पिला दी, यह क्या देवदास बने फिर रहे हो, जाओ दाढ़ी बनाकर आओ। पिताजी के सामने कभी हमारा मुंह नहीं खुला, मन मसोसकर रह गए। लेकिन मन ही मन बड़बड़ाते रहे, पिताजी क्या जानें, बिना दाढ़ी के कोई येसुदास नहीं बनता।

कभी दाढ़ी फैशन थी, आज तो दाढ़ी का ही प्रचलन है।

कबीर बेदी की दाढ़ी बड़ी स्टाइलिश थी। क्या जोड़ी थी कच्चे धागे में विनोद खन्ना और कबीर बेदी की। बेचारे संत महात्मा तो दाढ़ी बढ़ाकर भूल जाते हैं, लेकिन जो लोग शौकिया दाढ़ी रखते हैं, उन्हें तो दाढ़ी का बच्चों जैसा खयाल रखना पड़ता है। ब्यूटी पार्लर से महंगे होते जा रहे हैं आजकल मैन्स पॉर्लर।

वैसे हमें क्या, बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद। ।

बिग भी, हमारे नरेंद्र मोदी और विराट कोहली तीन टॉप के दाढ़ी वाले हैं आज के इस युग के। विराट की स्टाइल की कॉपी ने तो पुराने फैशन के सभी रेकॉर्ड तोड़ दिए हैं। सोलह बरस की बाली उमर से ही आज के युवा में विराट की छवि नजर आने लगती है।

आज के युवा अभिनेता हों या क्रिकेट प्लेयर, कॉलेज का छात्र हो या प्रोफेसर, टॉप एक्जीक्यूटिव और मोटिवेशनल स्पीकर, सभी जगह दाढ़ी वाले ही नज़र आएंगे आजकल।

वैसे मनोविज्ञान तो यही कहता है कि पुरुष भी किसी महिला के लिए ही सजता, संवरता है। जरूर आज की युवतियों की भी पहली पसंद दाढ़ी वाले युवा ही होंगे। बुढ़ापे में तो दाढ़ी इंसान के कई ऐब छुपा लेती है। किस दाढ़ी में साधु है और किस दाढ़ी में शैतान, यह तो सिर्फ भगवान ही जानता है।

कभी अभिनय के लिए नकली दाढ़ी लगाते थे, आज तो असली दाढ़ी ही अभिनय के काम आती है। जो दाढ़ी में भी सहज और सरल है, बस वही सच्चा साधु है। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 235 ☆ आलेख – आत्म निर्भर पारंपरिक प्राकृतिक सांस्कृतिक मूल्यों के संवाहक हमारे आदिवासी… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेख  – आत्म निर्भर पारंपरिक प्राकृतिक सांस्कृतिक मूल्यों के संवाहक हमारे आदिवासी)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 235 ☆

? आलेख – आत्म निर्भर पारंपरिक प्राकृतिक सांस्कृतिक मूल्यों के संवाहक हमारे आदिवासी ?

अधिकांश आदिवासी प्रकृति के साथ न्यूनतम आवश्यकताओ में जीवनयापन करते हैं. वे सामन्यत: समूहों में रहते हैं और उनकी संस्कृति अनेक दृष्टियों से आत्मनिर्भर होती है. आदिवासी संस्कृतियाँ परंपरा केंद्रित होती हैं. भारत में हिंदू धर्म की संस्कृति इनमें पाई जाती है. विश्व में उत्तर और दक्षिण अमरीका, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, एशिया तथा अनेक द्वीपों और द्वीप समूहों में आज भी आदिवासी संस्कृतियों के अनेक रूप पाये जाते हैं. संविधान के अनुच्छेद 342 के अनुसार, भारत में आदिवासियों को परिभाषित किया गया है. और उन्हें विशेषाधिकार दिये गये हैं, जिससे वे भी देश की मूल धारा के साथ बराबरी से विकास कर सकें. आदिवासी जनजातियाँ देश भर में, मुख्यतया वनों और पहाड़ी इलाकों में फैली हुई हैं. पिछली जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या का लगभग 8. 6% अर्थात देश में कोई बारह करोड़ जनसंख्या आदिवासी हैं.

आदिवासी शब्द का प्रयोग सबसे पहले अमृतलाल विठ्ठलदास ठक्कर ने किया था, जिन्हें ठक्कर बापा के नाम से जाना जाता है. मध्य प्रदेश में अनेक जनजातीय आबादी रहती है. भील, गोंड, कोल, बैगा, भारिया, सहरिया, आदि, मध्य प्रदेश के मुख्य आदिवासी समूह हैं. इनकी बोली स्थानीयता से प्रभावित है. सामान्यतः स्वयं बनाई हुई झोपड़ियों के समूह में ये जन जातियां जंगलो के बीच में रहती है.

अलग अलग जन जातियों के त्यौहार जैसे गल, भगोरिया, नबाई, चलवानी, जात्रा, आदि मनाये जाते हैं जिनमें मांस, स्वयं बनाई गई महुये की मदिरा, ताड़ी का सेवन स्त्री पुरुष करते हैं. सामूहिक नृत्य किया जाता है. विवाह की रीतियां भी रोचक हैं जिनमें अपहरण, भाई-भाई, नटरा, घर जमाई, दुल्हन की कीमत (देपा सिस्टम), आदि प्रमुख हैं. परंपरागत रूप से पुरुष सिर पर पगड़ी, अंगरखा, बंडी या कुर्ता, धोती, गमछा पहनते हैं, और महिलाएं साड़ी, चोली और घाघरा पहनती हैं. पिथौरा चित्रकला भील जनजाति की विश्व प्रसिद्ध लोक चित्रकला है. ये जन जातियां गीत संगीत, ढ़ोल नगाड़ो के शौकीन होते हैं. भील बांसुरी बजाने में माहिर होते हैं. होली दिवाली मेले मड़ई हाट बाजार में उत्सवी माहौल रहता है.

आदिवासियों में से समय समय पर अनेक क्रांतिकारियों का योगदान समाज में रहा है. बिरसा मुंडा, मुंडा विद्रोह/उलगुलान का महानायक, जयपाल सिंह मुण्डा – महान राजनीतिज्ञ, सुबल सिंह – चुआड़ विद्रोह के नायक और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के प्रथम शहीद थे, टंट्या भील – भारत के रोबिन्हुड कहे जाते थे. रानी लक्ष्मीबाई की सेनापति झलकारी बाई, सिद्धू मुर्मू और कान्हू मुर्मू – संताल विद्रोह के नायक रहे हैं. तिलका माँझी – पहाड़िया विद्रोह के नायक, गंगा नारायण सिंह – भूमिज विद्रोह और चुआड़ विद्रोह के महानायक, जगन्‍नाथ सिंह – चुआड़ विद्रोह के नायक, दुर्जन सिंह – चुआड़ विद्रोह के नायक, रघुनाथ सिंह – चुआड़ विद्रोह के महानायक थे. बुधू भगत -भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध क्रांतिकारी के रूप में जाने जाते हैं. इनकी लड़ाई अंग्रेज़ों, ज़मींदारों तथा साहूकारों द्वारा किए जा रहे अत्याचार और अन्याय के विरुद्ध थी. तेलंगा खड़िया – आदिवासी समाज के स्वतंत्रता सेनानी थे.

आजादी के बाद से उल्लेखनीय सामाजिक कार्यों के लिये आदिवासीयों में से सर्व श्री करिया मुंडा को पद्म भूषण, मंगरू उईके, रामदयाल मुण्डा, गंभीर सिंह मुड़ा, तुलसी मुंडा को पद्मश्री से सम्मानित किया जा चुका है.

भोपाल में जन जातीय संग्रहालय बनाया गया है, जहाँ विभिन्न दीर्घाओ में आदिवासी संस्कृति को दर्शाया गया है.

कांग्रेस देश में सबसे पुरानी राजनैतिक पार्टी है, इससे आदिवासियों का गहरा पुराना नाता है. . मंगरू उईके मण्डला के प्रमुख आदिवासी नेता रहे हैं जो अनेक बार यहां से कांग्रेस के सांसद थे. उन्हे पदमश्री से समांनित भी किया गया था. मोहन लाल झिकराम मंडला का नेतृत्व कर चुके लोकप्रिय नेता थे. मंडला डिंडोरी के आदिवासी करमा नर्तक दल दिल्ली के गणतंत्र दिवस समारोह में शामिल होते रहे हैं. ये नृत्य दल फ्रांस आदि देशों में भी अपनी कला का प्रदर्शन कर चुके हैं.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 170 – श्राद्ध में संशय – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है समाज के परम्पराओं और आधुनिक पीढ़ी के चिंतनीय विमर्श पर आधारित एक लघुकथा श्राद्ध में संशय”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 170 ☆

☆ लघुकथा – 🌷 श्राद्ध में संशय 🙏. 

उषा और वासु दोनों भाई बहन ने जब से होश संभाले, अपनी मम्मी को प्रतिवर्ष पापा के श्राद्ध के दिन पंडित और रसोई का काम संभालते देखते चले आ रहे थे।

बिटिया उषा तो जैसे भी हो संस्कार कहें या रीति रिवाज अपनी मम्मी के साथ-साथ लगी रहती थी, परंतु बेटा वासु इन सब बातों को ढकोसला जली कटी बातें या सिद्धांत विज्ञान के उदाहरण देने लगता था।

समय बीता, बिटिया ब्याह कर दूर प्रदेश चली गई और बेटा अपने उच्च स्तरीय पैकेज की वजह से अपनों से बहुत दूर हो चला। उसकी अपनी दुनिया बसने लगी थी। मम्मी ने अपना काम वैसे ही चालू रखा जैसे वह करतीं चली आ रही थी।

परंतु समय किसी के लिए कहाँ रुकता है। आज सुबह से मम्मी मोबाइल पर रह रहकर मैसेज देखती जा रही थी। उसे लगा शायद बच्चे पापा का श्राद्ध भूल गए हैं।

वह अनमने ढंग से उठी अलमारी से कुछ नए कपड़े निकाल पंडित जी को देने के लिए एक जगह एकत्रित कर रही थी।

तभी दरवाजे पर घंटी बजी।

लगा शायद पंडित जी आ गए हैं। वह धीरे-धीरे चलकर दरवाजे पर पहुंची। आँखों देखी की  देखती रह गई।

दोनों बच्चे अपने-अपने परिवार के साथ खड़े थे। घबराहट और खुशी कहें या दर्द दोनों एक साथ देखकर वह समझ नहीं पा रही थी कि आखिर बात क्या है??? अंदर आते ही दोनों ने कहा… मम्मी आज और अभी पापा का यह आखिरी श्राध्द है। इसके बाद आप कभी श्रद्धा नहीं करेंगी।

क्योंकि हमारे पास समय नहीं है और इन पुराने ख्यालों पर हम कभी नहीं आने वाले। मम्मी ने कहा… ठीक है आज का काम बहुत अच्छे से निपटा दो फिर कभी श्रद्धा नहीं करेंगे।

पूजा पाठ की तैयारी पंडितों का खाना सभी तैयार था। बड़े से परात पर जल रखकर बेटे ने तिलांजलि देना शुरू किया। बहन भी पास ही खड़ी थी पंडित जी ने कहा… मम्मी के हाथ से भी तिल, जौ को जल के साथ अर्पण कर दे। पता नहीं अब फिर कब पिृत देव को जल मिलेगा।

पूर्वजों का आशीर्वाद तो लेना ही चाहिए। आवाज लगाया गया फिर भी मम्मी कमरे से बाहर नहीं निकली।

तब कमरे में जाकर देखा गया मम्मी धरती पर औधी पड़ी है। उनके हाथ में एक कागज है। जिस पर लिखा था.. श्राद्ध पर संशय नहीं करना और कभी मेरा श्रद्धा नहीं करना। तुम दोनों जिस काम से आए हो वह सारी संपत्ति मैं वृद्ध आश्रम को दान करती हूँ।

आज के बाद हम दोनों का श्राद्ध वृद्धा आश्रम जाकर देख लेना।

वक्त गुजरा…. आज फिर उषा और वासु ने मोबाइल के स्टेटस, फेसबुक पर पोस्ट किया… मम्मी पापा का श्राद्ध एक साथ वृद्धाश्रम में मनाया गया परंतु अब श्राद्ध पर संशय नहीं सिर्फ पछतावा था।

🙏 🚩🙏

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 55 – देश-परदेश – अटरम शटरम ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 55 ☆ देश-परदेश – अटरम शटरम ☆ श्री राकेश कुमार ☆

आज एक मित्र के साथ जयपुर स्थित सी स्कीम क्षेत्र में एक कार्यालय जाना हुआ। वहां कुछ समय फ्री था, तो पास के मार्ग में सुनहरी धूप का स्वाद लेते हुए एक घर के बाहर लगे साइन बोर्ड पर दृष्टि पड़ी, तो मोबाइल से उसकी फोटो लेकर आप को साझा करने का विचार आता, इससे पूर्व उस घर से एक युवक बाहर आकर हमें अंदर ले जाकर पूछने लगा आप सरकारी विभाग से हैं क्या, हमारी छोटी सी दुकान है।

हमने उससे कहा आपकी दुकान का नाम कुछ अटपटा लगा इसलिए फोटो खींच ली है। उसको लगा अब उसको बोर्ड लगाने का सरकारी  शुल्क देना पड़ेगा।

विस्तार से उससे चर्चा हुई कि ये नाम क्यों रखा गया है? उसने बताया की उनके पास खाने पीने का सामान और भेंट (गिफ्ट) में दिए जाने वाली वस्तुएं हैं, जो कि बाज़ार में उपलब्ध सामान से हटकर/ अलग प्रकार की हैं। दूसरों से अलग (different) हैं। आज प्रत्येक व्यक्ति सब से अलग करने की मानसिकता में विश्वास करने लगा है।

हमें भी याद आ गया जब युवावस्था में बाज़ार से चाट/ पकोड़ी या समोसा इत्यादि खाकर घर में अम्माजी को भोजन की मनाही करते थे, वे कहा करती थी, बाज़ार का “अटरम शटरम” मत खाया करो, नियमित भोजन करना चाहिए।

स्वास्थ्य की दृष्टि से उनका कथन शत-प्रतिशत उचित होता था, परंतु हम तो अपनी जिह्वा के वश में होश खो कर बाज़ार का सामान चट कर जाते थे।

हमारे साथ चल रहे मित्र, हंसते हुए बोले की तुम भी तो कुछ भी देखकर “अटरम शटरम” लिख कर व्हाट्स ऐप में साझा कर देते हो।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ प्रसन्न देव… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

श्रीशैल चौगुले

? कवितेचा उत्सव ?

☆ प्रसन्न देव… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

ओळखीचा कोण

देव रहातो इथे

निमीत्ते कारण

विश्व पहातो इथे.

 

फुलवूनी भुमी

पशु पक्षाशी नाते

सृष्टीत अदृश्य

बासरी कशी गाते.

 

मेघ सूर्य चंद्र

ऋतूत तो असतो

कायेचे जीवन

पाहुनीया हसतो.

 

म्हणे, राधा सखी

माझी अजाण प्रीत

संसार सागर

जाण रुक्मीणी नीत.

 

गोकुळ मथुरा

वृंदावन भक्तीचे

संस्कृती जागृत

ज्ञान प्यावे मुक्तीचे.

 

राधा-कृष्ण मन

स्वप्नांचे हे सदन

लिला अनंतादी

कर्ता मधुसूदन.

© श्रीशैल चौगुले

मो. ९६७३०१२०९०.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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