(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत “आँख में ठिठका प्रणय…”)
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
💥 इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
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(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “नाभि दर्शन”।)
अभी अभी ⇒ नाभि दर्शन… श्री प्रदीप शर्मा
नाभि कोई दर्शन अथवा प्रदर्शन की वस्तु नहीं, यह जीव का वह मध्य बिंदु है, जो सृजन के वक्त एक नाल से जुड़ा हुआ था, ठीक उसी तरह जैसे एक फूल अपने पौधे से और एक फल अपनी डाल से। वह इस नाल के जरिये ही भरण पोषण प्राप्त कर पुष्ट होकर खिल उठता है। हम जब फल फूल तोड़ते हैं, वह अपने सर्जनहार से अलग हो जाता है। पेड़ पर लटकते आमों को उनकी नाभि और नाल के साथ आसानी से देखा जा सकता है। एक पुष्प को हम उसकी नाल के साथ ही तो धारण करते हैं।
फल, फूल और सब्जियों में हम जिसे डंठल कहते हैं, वह और कुछ नहीं, पौधों की नाल ही है। हर फल और फूल में आपको नाभि स्थान और नाल नजर आ ही जाती है। सेवफल, टमाटर, नींबू सबमें नाभि और नाल आसानी से देखी जा सकती है। सृष्टि बीज से ही चल रही है और बीज भी फल के अंदर ही समाया है।।
हमारा जन्म भी ऐसे ही हुआ था। हमारे शरीर के मध्य, बीचोबीच जो नाभि स्थित है , वह भी हमारे जन्म के पहले गर्भनाल से हमारी जन्मदात्री मां से जुड़ी हुई थी। नौ महीने इसी नाल के जरिये हम पोषित, पल्लवित और विकसित होते चले गए।
एक फूल से थे हम, जब हम अपनी मां के शरीर से अलग हुए थे।।
आज हम इतने विशाल और इतनी छोटी सी हमारी नाभि। बीज की नाभि में पूरा वृक्ष समाया, यही तो है उस परम ब्रह्म की माया।
रावण की इसी नाभि में अमृत था। हमारी नाभि में भी अमृत है, लेकिन हम भी किसी कस्तूरी मृग से कम नहीं।
बचपन में जब हमारा पेट दुखता था तो मां इसी नाभि के आसपास हींग का लेप कर देती थी। पूरे शरीर का संतुलन इस नाभि पर ही होता है, यह थोड़ी भी खसकी तो समझें दूठी खसकी। इसका भी देसी इलाज था हमारी मां के पास। हम तो दहल गए थे सुनकर।।
रोटी के टुकड़े पर जलता कोयला हमारी नाभि पर रखा जाता था और फिर उसे एक ऐसे लोटे से उल्टा ढंक दिया जाता था, जिसकी किनोरें हमारे पेट को ना चुभें। थोड़ी देर में लोटा हमारे पेट से चिपक जाता, बेचारे जलते कोयले का दम घुट जाता।
कुछ ही पलों में दूठी अपनी जगह आ जाती, लोटा झटके से पेट से अलग छिटक जाता और अंगारा बुझ जाता।लेकिन आज ऐसे जानकार कहां। अतः नीम हकीम से बचें।
बिल्ली के बारे में ऐसा अंधविश्वास है कि वह अपनी नाल का किसी को पता नहीं लगने देती।
कहते हैं, जिसके पास बिल्ली की नाल हो, उसके भाग खुल जाते हैं। पुरानी दादियां, न जाने क्यों, जन्म लिए बच्चों की नाल भी सहेजकर रखती थी। जरूर , संकट के समय , वह बालक के लिए संजीवनी बूटी का काम करती होगी।।
हमारे अंधविश्वास पर कतई विश्वास ना करें, लेकिन अपनी नाभि का भी विशेष ख्याल रखें।
इस पर घी, खोपरे, अथवा सरसों का तेल , कुछ भी लगाते रहें। अगर देसी गाय का शुद्ध घी मिल जाए तो और भी बेहतर। नुकसान कुछ नहीं, फायदे हम नहीं गिनाएंगे , आप खुद जान जाएंगे।
महिलाएं, शरीर का कोई भी अंग श्रृंगार विहीन नहीं रखना चाहती। सोलह श्रृंगार में अब तक नाभि शामिल नहीं थी, अब वो भी शामिल हो गई है। नाभि दर्शन की नहीं प्रदर्शन की वस्तु हो गई है। नाभि दर्शना साड़ी तो आजकल आउट ऑफ फैशन हो गई, नाभि पर सोना नहीं, चांदी नहीं, सिर्फ डायमंड ही शोभा देता है।
शोभा दे, अथवा ना दे, इस पर क्या कहती हैं , आज की शोभा डे ..!!
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता – “मन में मायका…”।)
☆ कविता # 183 ☆ “मन में मायका…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
☆ आलेख – वृद्धाश्रम में घर से ज्यादा सेवा और सुख ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆
☆ अपनों से दूर 93 वृद्धों का परिवार ☆
आज सामाजिक सोच और परिस्थितियां ऐसी हो गईं हैं कि अधिकांश लोगों को अपने घर के बुजुर्ग बोझ लगने लगे हैं। ऐसे समय वृद्धाश्रमों की आवश्यकता और उपयोगिता बढ़ गई है। वृद्धाश्रमों में वृद्धों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। मैंने अपनी पारिवारिक मित्र श्रीमती भारती साहा से अक्सर उनके वृद्धाश्रम जाने और सुख सुविधा से रहते प्रसन्नचित्त वृद्धों के बारे में सुना। मेरा मन भी वृद्धाश्रम जाकर वहां की व्यवस्था देखने और खुशहाल वृद्धजनों से मिलने का हो गया और बीते रविवार मैं वहां पहुंच गया। भारती जी के साथ ही मेरी पत्नी श्रीमती विमला श्रीवास्तव भी मेरे साथ थीं। जिज्ञासा यह जानने की थी की एक ठिकाने पर इतने सारे बुजुर्गों की इतनी अच्छी देखरेख कैसे होती है कि वे सभी खुश और संतुष्ट रहते हैं।
नेताजी सुभाषचंद बोस मेडिकल कालेज, जबलपुर के पास स्थित निराश्रित वृद्धाश्रम में हम लोग संध्या 5 बजे के आसपास पहुंचे। वृद्धाश्रम के अहाते का द्वार खोलकर जैसे ही हमने अंदर प्रवेश किया तो लगा जैसे हम शहर के कोलाहल, आपाधापी, राजनीति, स्वार्थ और आपसी खींचतान की दुनिया से निकलकर एक ऐसी दुनिया में पहुंच गए हैं जहां सिर्फ अपनापन है, शांति है, सद्भाव है। वृद्धाश्रम के मुख्य प्रवेश द्वार के अंदर ही दाहनी ओर एक मंदिर बना है यहां अनेक वृद्ध पुरुष/महिलाएं बैठे हुए शांतचित्त से ईश्वर की आराधना में लीन थे। आश्रम के अत्यंत साफ सुथरे अहाते के बड़े छायादार वृक्ष और बगीचे में लगे सुंदर पौधे वहां के वातावरण को सकारात्मक ऊर्जा से भर रहे थे। आश्रमवासी अनेक वृद्ध नर/नारी अहाते में रखी बैंचों और कुर्सियों में बैठे या तो आपस में वार्तालाप कर रहे थे अथवा आत्म चिंतन में लीन थे, कुछ लोग चहल कदमी करते हुए भी नजर आए। लगा जैसे इन वृद्धों को यहां मिले सेवा, सुख और संतोष ने उनके तमाम दुखों को हर लिया है।
भारतीय रेडक्रास सोसायटी द्वारा 2 अप्रैल 1988 में स्थापित एवम संचालित इस निराश्रित वृद्धाश्रम की अधीक्षिका श्रीमती रजनीबाला सोहल हैं। उन्होंने हमारा अभिवादन स्वीकारते हुए हमें सम्मान से बैठाया। अत्यधिक सुशिक्षित, सुसंस्कृत, विनम्र रजनीबाला जी ने वार्ता के दौरान बताया कि वृद्धाश्रम के पदेन अध्यक्ष जिला कलेक्टर एवम सचिव श्री आशीष दीक्षित हैं। नगर के विभन्न क्षेत्रों में सक्रिय समाज सेवा से जुड़े 24 व्यक्ति यहां के सम्माननीय सदस्य हैं। ये सभी पूरी चिंता और जिम्मेदारी के साथ समय समय पर वृद्धाश्रम पहुंचकर यहां की व्यवस्थाओं व आवश्यकताओं पर नजर रखते हैं और उन्हें बिना विलंब पूरा करने तत्पर रहते हैं।
एक प्रश्न पर रजनीबाला जी ने बताया कि 96 लोगों के निवास की क्षमता वाले इस वृद्धाश्रम में वर्तमान में 93 वृद्ध हैं जिनमें 36 पुरुष और 57 महिलाएं हैं। यहां रह रहीं रामकली शर्मा सर्वाधिक 92 वर्ष की हैं। शांति साहू आश्रम में विगत 21 वर्षों से रह रही हैं। यहां के पुरुष निवासियों में कुछ सर्वाधिक 75 वर्ष के हैं। रजनी जी के अनुसार वृद्धाश्रम में धर्म जाति जैसा कोई बंधन नहीं है। व्यक्ति जबलपुर का निवासी हो, 60 वर्ष की उम्र हो और निराश्रित व निशक्त हो तभी उसे यहां रहने की पात्रता प्राप्त होती है। यहां रहने का कोई शुल्क नहीं किंतु पेंशन प्राप्त बुजुर्गों से कुछ सहयोग राशि ली जाती है। वृद्धाश्रम में साफ सुंदर विशाल भोजन कक्ष है जहां भोजन करने टेबिल कुर्सी लगी हैं। कार्यक्रमों आदि के लिए एक बड़ा हाल भी है।आश्रम की व्यवस्थाओं हेतु कार्यालय में 3, वृद्धों की देखरेख के लिए 4, भोजन बनाने 3, भोजन कक्ष की सफाई हेतु 1, स्वीपर 1, चौकीदार 1 और 1 एम्बुलेंस चालक है।
आश्रम का रखरखाव एवम खर्च सामाजिक न्याय विभाग से प्राप्त अनुदान से होता है। यहां निवासरत लोगों को भोजन, इलाज, दवा, वस्त्र, मनोरंजन सभी प्राप्त होता है। नगर के समाज सेवी तथा सहृदय लोग भी वृद्धाश्रम में सेवा सहयोग हेतु तत्पर रहते हैं। अनेक लोग अपने परिजनों की स्मृति में आश्रमवासियों को भोजन, चाय नाश्ता अथवा अन्य वस्तुओं का वितरण करते रहते हैं। संपन्न लोगों से आश्रम के लिए उपयोगी वस्तुएं भी प्राप्त होती रहती हैं। समय समय पर आश्रम में भी मनोरंजक, ज्ञानवर्धक कार्यक्रम होते हैं। आश्रमवासियों को नगर में आयोजित विशिष्ट समारोहों में भी ले जाया जाता है। यहां रहने वाले स्वेच्छा से जब तक चाहें अथवा अंत समय तक रह सकते हैं। रजनी जी ने बताया कि डॉ. मुकेश अग्रवाल यहां के स्थाई चिकित्सक हैं जो हफ्ते में दो दिन स्वास्थ्य परीक्षण हेतु आते हैं। एक प्रश्न पर अधीक्षिका जी ने बताया कि समाज से आए लोगों से मिलकर आश्रमवासी प्रसन्न होते हैं और उनसे खुलकर बात करते हैं। यहां रहने वाले 70 प्रतिशत लोगों से मिलने उनके रिश्तेदार/परिचित आते रहते हैं किंतु कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनसे मिलने कभी कोई नहीं आया। आपको इनके बीच कैसा लगता है पूछने पर 13 वर्षों से यहां कार्यरत रजनी जी ने कहा मैं तो सभी बुजुर्गों में अपने माता पिता के दर्शन करती हूं। उनके दुखी, परेशान अथवा बीमार होने पर उनके पास आत्मीयता से बैठकर बातें कर उन्हें राहत पहुंचाने का प्रयास करती हूं। उन्होंने बताया की जबलपुर में 4/5 वृद्धाश्रम और भी हैं। रेडक्रास द्वारा मध्यप्रदेश में 81 वृद्धाश्रम संचालित किए जा रहे हैं। देशभर में बढ़ते वृद्धाश्रमों की संख्या वृद्धों की चिंताजनक स्थिति प्रगट करने पर्याप्त हैं। आवश्कता है वृद्धों की सेवा सुरक्षा के लिए परिवारों के साथ ही सम्पूर्ण समाज को जाग्रत करने और शिक्षा जगत के माध्यम से भी बच्चों में बुजुर्गों के प्रति आदर व प्रेम भाव भरने की। अपने परिजनों की उपेक्षा से दुखी किंतु वृद्धाश्रम की व्यवस्था और अधीक्षिका रजनी जी के स्नेह से तृप्त बुजुर्गों को देखकर हम सुख और दुख के मिश्रित भाव लिए वृद्धाश्रम से बाहर निकलते हुए सोच रहे थे कि क्या फिर ऐसा समय आएगा जब हर वृद्ध सुख शांति से अपने ही घर में रहेगा। वृद्धाश्रम बंद हो जाएंगे।
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# मुक्ति दाता… #”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 125 ☆
☆ # मुक्ति दाता… # ☆
(बाबासाहेब डॉ आंबेडकर की जयंती के अवसर पर समर्पित रचना)
‘स्वामी विवेकानंद’ यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका ‘विचार–पुष्प’.
सर्व धर्म परिषदेला विवेकानंद येण्यापूर्वी भारतात ते परिव्राजक म्हणून फिरले होते आणि आता अमेरिकेत सगळीकडे परिव्राजक म्हणूनच फिरत होते. पण दोन्ही कडचे परिव्राजकत्व खूप वेगळे होते. दोन्हीकडील लोक, शिक्षण, परंपरा, तत्वज्ञान, धर्म, अध्यात्म ,विचार व मूल्य ,आर्थिक परिस्थिति सगळच वेगळं. इथे वैयक्तिक भेटीतून त्यांनी तळागाळातील भारत समजून घेतला तसा आता दीड वर्षापासून ते अमेरिकेत फिरत होते तेथेही भेटी घेणे,विविध चर्चा, भाषणे, सार्वजनिक ठिकाणची व्याख्याने, तिकडच्या विद्वान लोकांच्या भेटी ,नामवंतांशी झालेल्या चर्चा यामुळे तिकडची संस्कृती, ते लोक याचा जवळून परिचय होत होता. अनेक कुटुंबे विवेकानंद यांच्याशी पर्यायाने हिंदू तत्वज्ञानशी जोडले गेले होते. तिथल्या वृत्तपत्रातून विवेकानंद यांच्या विषयी अनेक वर्णने छापून आल्यामुळे लोकांना परिचय व्हायचा. त्यांच्या भेटीनंतर आणि ओळख पटल्यानंतर पाश्चात्य संस्कृतीतल्या स्त्रिया सुद्धा विवेकानंद यांच्याकडे मातृभावाने बघू लागल्या होत्या. भारतात जसे त्यांचे शिष्यगण तयार झाले होते तसे आता अमेरिकेत सुद्धा लोकांचा यातला रस वाढू लागला होता.त्यातून अनेक शिष्य ही तयार झाले.
सुरूवातीला सर्व धर्म परिषदेपर्यंत त्यांना कोणी ओळखतही नव्हते, नंतर मात्र ते तेंव्हापासून आणि नंतरही विद्वानात सुद्धा चांगलेच परिचित झाले. एक मानाचे स्थान त्यांना प्राप्त झाले होते. सुरूवातीचे विषय सुद्धा हिंदू धर्माचे प्रतींनिधी याच नात्याने असत. खरा हिंदू धर्म समजून सांगणे, गैरसमज दूर करणे, हेच त्यांनी उद्दिष्ट्य ठेवलेले दिसते.
स्वामीजींनी अमेरिकेचा आता निरोप घेऊन पुढच्या कार्याला लागायचे ठरवले होते, अनेक जणांना पत्र लिहून निरोप दिला. पंधरा एप्रिलला न्यूयोर्क हून लिव्हरपुल ला निघाले. बरेच जण जहाजावर निरोप द्यायला आले होते. आधी भारतात अडीच वर्षे परिव्राजक म्हणून ते फिरले, तसे अमेरिकेत सुधा जवळ जवळ ते अडीच वर्षे फिरले. आता ते इथून इंग्लंड ला निघाले होते. एस.एस. जर्मनीक जहाजणे किनारा सोडून अमेरिकेचा भूप्रदेश दिसेनासा होई पर्यन्त ते बाहेर उभे होते. या अमेरिकेच्या भूमिने आपल्याला काय काय दिले याचा लेखा जोखा मांडत.
स्वामीजी इंग्लंड ला पोहोचले. इथे एक आनंदाच प्रसंग स्वामीजींनी अनुभवला तो म्हणजे पाच वर्षांनंतर सारदानंद यांची इंग्लंड मध्ये भेट. भारत भ्रमण सुरू होताना ते भेटले त्यानंतर स्वामीजींनिना अमेरिकेतील वास्तव्यात आलेले अनुभव, मिळालेले यश आणि किर्ती हे सारे बघून सारदानंद केव्हढे आनंदी झाले असतील याची कल्पना आपण करू शकतो. स्वामीजींना खूप वर्षानी आपल्या मातृभाषेत बंगालीत बोलायला मिळाले याचाही आनंद होता, पत्रव्यवहार होत असला तरी अनेक गोष्टी आता प्रत्यक्षात एकमेकांशी बोलायला मिळत होत्या त्याचे एक समाधान होते दोघांना. ही भेट झाल्यानंतर स्वामीजींनी आपल्या सर्व गुरु बंधूंना उद्देशून सविस्तर पत्र लिहिले ,त्यात मठातील दैनंदिन व्यवहार कसं असावा, त्याचे नियम काय असावेत, मी भारतात परत आल्यानंतर आपल्याला एक संस्था उभी करायची आहे ती कशी असेल, त्याचे ध्येय काय असेल, ती कशी चालवायची, याचे चिंतन यात होते. ही संस्था म्हणजेच रामकृष्ण मिशन ची तयारी होय.रामकृष्ण मिशन चे काम पुढे कसे वाढले आणि त्याचा प्रसार कसं झाला हे आज आपण रामकृष्ण मठ आणि मिशन चे कार्य बघितले की कळते.
इंग्लंडला जशी सारदा नंदांची भेट झाली तशीच अचानक स्वामीजींचे लहान भाऊ महेंद्रनाथ यांची पण अनपेक्षित भेट झाली, ही बंधुभेट फार फार महत्वाची होती, कारण संन्यास घेतल्यापासून नरेंद्र ने घर सोडले होते ,त्यानंतरची घरातली परिस्थिति, आर्थिक विवंचना, त्यांच्या आईना झालेला अत्यंत क्लेश, आणि आलेले सर्व वाईट अनुभवाचे महेंद्रनाथ दत्त साक्षीदार होते. म्हणून अनेक स्थित्यंतरांनंतर ही दोन भावांची भेट याला महत्व होते.महेंद्र नाथ वकिलीचा अभ्यास करायला इंग्लंडला आले होते. महेंद्र नाथांनी लिहीलेल्या ‘लंडने स्वामी विवेकानंद’या पुस्तकात या बंधुभेटीचा वृत्तान्त लिहिला आहे, महेंद्रनाथ दत्त हे पुढे ग्रंथकार म्हणून ओळखले जाऊ लागले. नरेंद्रचे (स्वामीजींचे) सर्वात धाकटे भाऊ भुपेंद्रनाथ दत्त बंगाल मधील सशत्र क्रांतिकारक चळवळीत सहभागी झाले. युगांतर मासिकाचे ते संपादक होते. अमेरिकेत ते पी एच डी झाले. त्यांनीही अनेक ग्रंथ लिहिले. नंतर ते साम्यवादी विचारांचे खंदे कार्यकर्ते आले, स्वामीजींचे चरित्र पण त्यांनी लिहिले आहे आणि द्रष्टा देशभक्त म्हणून स्वामीजींची प्रतिमा त्यातून त्यांनी उभी केली आहे. भुवनेश्वरी देवी आणि विश्वनाथ दत्त यांची तीन मुले एक अन्यासी, एक ग्रंथकार, आणि एक साम्यवादी असे तीन दिशांनी कार्य करणारे कीर्तीवंत पुत्र होऊन गेले.
लंडन मध्ये स्वामीजींनी वर्ग सुरु केला होता. तिथे सीसेम क्लब नुकताच वर्षभरापूर्वी स्थापन झाला होता. बुद्धिजीवी आणि विचारवंत स्त्रिया आणि पुरुष असा दोघांचा हा क्लब होता. शिक्षणाचा सर्वांगीण विचार असा त्याचा उद्देश होता. आठवड्यातून एक दिवस साहित्य विषयक चर्चा होत असे. ठरलेले वक्ते येऊ शकणार नव्हते म्हणून स्वामी विवेकानंद यांना व्याख्यानासाठी अचानक बोलवण्यात आले. तिथे त्यांनी मांडलेले विचार फार महत्वचे होते. ‘शाळेत दिले जाणारे भौतिक विद्येच्या क्षेत्रातील शिक्षण शेवटपर्यंत थेट पोहोचले पाहिजे. कारण स्वामीजींच्या मते समाजातील अज्ञान दूर करण्याची ही पहिली पायरी होती. आणि मानवामध्ये सुप्त असलेले पूर्णत्व प्रकाशात आणणे ही शिक्षणाची फलश्रुति होती. धर्माईतकेच शिक्षणाला महत्व आहे आणि धर्माचा जसा व्यापार होता कामा नये तसाच, शिक्षणाचा बाजार होता कामा नये,असा स्वामी विवेकानंद यांचा दृष्टीकोण होता. भारतातील प्राचीन गुरुकुल पद्धती त्यांना आदर्श वाटत होती.
युरोप मध्ये प्रवास चालू होता, आता टीआर अभेदानंद हे गुरुबंधु पण स्वामिजिना भेटले. मुलर यांच्या कडे विवेकानंद राहत होते तिथे अभेदानंद आलेले पाहताच स्वामीजींना कोण आनंद झाला होता. जूनलाच स्वामीजींचा भारतात निरोप गेला होता की “कालीला ताबडतोब पाठवून द्या”. एमजी काय स्वामीजी आणि काली पुढचे पंधरा दिवस वेदान्त विचाराच्या प्रसाराचे कार्य आणि फक्त त्याचीच चर्चा, असे आनंदात दिवस गेले. अभेदानंद सर्व वेद ग्रंथ, शतपथ ब्राह्मण, काही सूत्र ग्रंथ, असे अनेक ग्रंथ घेऊन आले होते. ही सर्व पुढच्या कामाची तयारी होती. सार्या मानव जातीला एक नवी दिशा द्यायची आहे असे स्वप्न स्वामीजींनी बघितले होते.आता विवेकानंद यांचे परदेशातील वास्तव्य संपत आले होते.इंग्लंड मध्ये अभेदानंद आणि अमेरिकेत सारदानंद पुढचे काम बघणार होते. स्वामी विवेकानंद आता आपल्या मातृभूमिकाडे परत येणार होते ते जवळ जवळ साडे तीन वर्षांनंतर, त्यांना निरोप द्यायला सगळे जमले होते. १६ डिसेंबर १८९६ रोजी स्वामीजींनी इंग्लंड चा किनारा सोडला. मातृभूमी त्यांना बोलवत होती.
बॅंकेतील एक्केचाळीस वर्षाच्या सेवेनंतर असिस्टंट जनरल मॅनेजर पदावरून सेवानिवृत्त. मातृभाषा तेलुगु. शिक्षण मराठी माध्यमातून. मूळ सोलापूर. सध्या बेंगलुरू येथे वास्तव्य व वकिली व्यवसाय.
श्रीकृष्णदेवराय रचित ‘आमुक्तमाल्यदा’ ह्या तेलुगु काव्यप्रबंधाचा मराठी व हिंदी गद्यानुवाद, साहिती समरांगण सार्वभौम- श्रीकृष्णदेवराय (चरित्र ग्रंथ), राजाधिराज श्रीकृष्णदेवराय (ऐतिहासिक कादंबरी) व ‘इंद्रधनु’ आणि ‘स्वानंदी’ (लघुकथासंग्रह) प्रकाशित.
जीवनरंग
☆ इच्छापूर्ती…– भाग- १☆ श्री व्यंकटेश देवनपल्ली ☆
दरवर्षीप्रमाणे यंदाही प्रभू रामचंद्रांच्या जन्मोत्सव सोहळ्यानिमित्त राघव आणि जानकी पुण्यात हजर होते. श्रीराम, लक्ष्मण, सीता यांच्या छोटेखानी देवळातल्या दर्शनासाठी भाविकांनी सकाळपासूनच गर्दी केली होती. मंदिरात अखंड रामनाम जप सुरू होता. दुपारी बारा वाजता श्रीरामजन्माचा सोहळा भाविकांच्या जयघोषांत संपन्न झाला.
श्रीरामास अभ्यंगस्नान घातल्यानंतर पाळण्यात घालण्यात आले. ‘राम जन्मला गं सखे.., राम जन्मला!’ हे गीत उपस्थित स्त्रियांनी मोठ्या उस्त्फूर्तपणे गायलं. पुरोहितांनी विधीवत पूजा आणि पौरोहित्य विधी संपन्न केला. प्रभू श्रीरामांच्या जयघोषांत व गुलालात सगळेच भाविक पूर्णपणे न्हाऊन गेले.
रात्रीच्या भजन-कीर्तनाने रामनवमीच्या महोत्सवाची सांगता होणार होती. वामन शास्त्रीबुवांचे कीर्तन, भजन ऐकणे ही एक मोठी पर्वणी असायची. त्यांच्या कीर्तनात सगळंच असायचं. उत्तम वक्तृत्व, संगीत, काव्य-नाट्य-विनोद यांचा अंतर्भाव असायचा. धर्मशास्त्रातला त्यांचा दांडगा व्यासंगच सर्व श्रोत्यांना बांधून ठेवायचा. कीर्तनाला खचाखच गर्दी असायची. त्यांचं निरूपणही तसंच गहन गंभीर असायचं. परंतु क्षणभरात एखादी विचारज्योत पेटवून, ते मिट्ट काळोखात हरवलेल्या श्रोत्यांच्या अंत:करणात प्रसन्न प्रकाश पसरवत असत. राघवला आज बुवांच्या कीर्तनासाठी थांबता येणार नव्हते. जानकीला दुसऱ्या दिवशी सकाळी शाळेत हजर व्हायचं होतं. रात्री साडेआठच्या सुमारास ते दोघे कारने पुण्याहून कोल्हापूरकडे निघाले. रस्त्यात शुकशुकाट होता. घुप्प अंधारातून गाडी वेगाने निघाली होती. काहीतरी बोलावं म्हणून जानकीनं विचारलं, “राघवा, आज काय मागितलंस श्रीरामाकडे?” गीतरामायणातील गदिमांची अलौकिक शब्दकळा आणि बाबूजींचे स्वर्गीय सूर यात हरवलेला राघव क्षणभरात भानावर आला आणि स्मितहास्य करीत म्हणाला, “जानकी, तुला ठाऊक आहे. मी श्रीरामाकडे कधीच काही मागितलं नाही. मागणारही नाही. मी आज जो काही आहे, तो श्रीरामामुळेच आहे. मी फक्त त्याचे आभार मानतो. माझा राम अंतर्यामी आहे. मला काय हवंय, ते त्याला पक्कं ठाऊक असतं. असो. आपण निम्म्या रस्त्यावर आलो आहोत. पुढचा रस्ता थोडा कच्चा आहे. थोडे सावकाश जावे लागेल.”
का कोण जाणे, जानकीला आज थोडंसं अस्वस्थ वाटत होतं. तिच्या मनात उलटसुलट विचार येत होते. अशा किर्र अंधारात गाडी बंद पडली तर… आसपास कुणी मदतीला धावून येणार नव्हता. तिच्या मनात शंकाकुशंका घोळत होत्या आणि अचानक कारच्या एका बाजूला खडखडल्यासारखं झालं.
राघवनं गाडी बाजूला घेतली. पाहिलं तर काय, समोरच्या एका चाकाचं टायर पंक्चर झालं होतं. अवतीभवती काहीच दिसत नव्हतं. तितक्यात पावसाची भुरभुरही सुरू झाली. डिक्कीतून जॅक आणि स्पॅनर काढून मोबाईलच्या फ्लॅश लाईटमध्ये राघव टायर काढण्याचा प्रयत्न करत होता. बोल्ट घट्ट झाले होते. काही केल्या फिरत नव्हते. तितक्यात मोटारसायकलवरून जाणारे दोघे आडदांड युवक येऊन थांबले. त्यांनी विचारलं, “काय झालं काका?”
टायर पंक्चर झाल्याचं राघवनं सांगितलं. ते आपणहून म्हणाले, “आम्ही काही मदत करू शकतो का?”
जानकीला मात्र मनातून भीती वाटत होती. कोणी चोर दरोडेखोर असतील तर काय करायचं? ती हळूच बाहेर आली. त्या मुलांनी सांगितलं, “काकू तुम्ही आतच बसा. तुमच्या हातातला मोबाईल द्या. त्या उजेडात लगेच स्टेपनी लावून देऊ.”
‘मोबाईल आणि तो कशाला?’ या विचारानं जानकीच्या मनात धडकीच भरली. तिने नाईलाजाने मोबाईल दिला. त्या दोघा बलदंड युवकांनी घट्ट झालेले बोल्ट ढिले केले. काही वेळातच स्टेपनी बदलली आणि मोबाईल परत केला. जानकीने त्यांना देण्यासाठी पर्समधून आधीच पाचशेची नोट काढून ठेवली होती. युवकांनी पैसे घेण्यास नकार दिला.
“आम्हाला काही द्यायची तुमची इच्छा असेल तर इथे देवळात चाललेल्या कीर्तनाला थोडा वेळ तरी हजेरी लावून जा.” असं म्हणताच राघवने जानकीकडे पाहिलं आणि त्यांची कार निमूटपणे त्या मोटरसायकलच्या पाठोपाठ निघाली. लगतच असलेल्या रामाच्या देवळाजवळ जाऊन पोहोचले. राघव आणि जानकी आत गेले.
कीर्तनकार बुवांनी नुकतीच सुरूवात केलेली होती. गुराखी कसं चुकार गुरांना चुचकारत घराकडे वळवत असतो, तसं श्रोत्यांना धार्मिक प्रवचनाकडं वळवायचं होतं म्हणून बुवांनी सगळ्यांना भजनात ओढलं.
“म्हणा, रघुपति राघव राजाराम। पतितपावन सीताराम… सुंदर विग्रह मेघश्याम गंगा तुलसी शालग्राम ॥” सगळे श्रोते गाण्यात तल्लीन होऊन गेले.
त्यानंतर बुवा बोलायला लागले, “ज्या श्रीरामचंद्रांनी त्यांच्या जीवनातून जगण्याचा आदर्श निर्माण केला, त्यांच्या जन्मोत्सवाच्या निमित्ताने आपण जमलो आहोत. श्रीरामभक्ती आणि श्रीरामकथा ही आपल्यासाठी जगण्याची एक ताकद देते….”
बुवा श्रोत्यांच्या अंतरंगाला हात घालत होते. एक एक ओवी बुलंद आवाजात ऐकवत होते. पाठोपाठ निरूपणही करीत होते. हळूहळू गर्दी वाढत होती. विशेष म्हणजे त्यात युवकांचीही संख्या मोठी होती. पण त्यात ते दोघे युवक मात्र कुठेच दिसत नव्हते.
समोर बसलेल्या एका आजोबाने मधेच विचारलं, “बुवा, श्रीरामाचं दर्शन होतं का हो?”
त्यावर बुवा हसून म्हणाले, “आमचे कीर्तनकार गुरू वामनशास्त्री म्हणतात की जवाहिऱ्याचं दुकान थाटायचं असेल तर भक्कम भांडवल लागतं. त्यासाठी चणेदाणे, लाह्या करून विकणाऱ्या भडभुंजाचं भांडवल असून चालत नाही. काया-वाचा-मनसा रामाला भेटण्याची अनिवार ओढ, तळमळदेखील तेवढीच भक्कम असावी लागते. फार कशाला, तुम्ही आपल्या छातीवर हात ठेवून सांगा. या रामाच्या देवळात वर्षभरात दर्शनासाठी किती वेळा आलात? मला वाटतं, आजच रामनवमीच्या दिवशी आलात! जागोजागी असलेली मारूतीरायांची देवळे बघा. कशी वर्षभर तुडुंब भरलेली असतात. कशासाठी? तर प्रत्येकाच्या मनात एक अनामिक भीती घर करून बसलेली आहे. भीतीचं निर्मूलन फक्त मारूतीरायाच करू शकतात, या श्रद्धेपोटी लोक त्यांच्या देवळात जातात. प्रभू श्रीरामचंद्र म्हणजे मर्यादापुरुषोत्तम. त्यांनी धैर्य, शौर्य, स्नेह, त्याग, संयम, कर्तव्यनिष्ठेचं महत्व दाखवून दिलं. जिथे श्रीराम आहेत तिथे मारूतीराया निश्चित असतात. समर्थ रामदासस्वामी, भद्राचलमचे भक्त रामदासु आणि तुलसीदासजी यांच्या ठायी ती ओढ, ती तळमळ होती म्हणूनच त्यांना श्रीरामचंद्र प्रभूंचे दर्शन झाले.
समर्थ रामदासस्वामी त्यांच्या एका हिंदी रचनेत म्हणतात, “जित देखो उत रामहि रामा। जित देखो उत पूरणकामा।” तर भद्राचलमचे भक्त रामदासु म्हणतात की “अंता राममयम, जगमंता राममयम अंतरंगमुना आत्मारामुडु। अंता राममयम..” तुलसीदासजींनी “सिय राममय सब जग जानी, करहु प्रणाम जोरी जुग पानी॥“ ही चौपाई लिहिली. या प्रभृतींना संपूर्ण विश्वच श्रीराममय झाल्याचे जाणवत होते, तेव्हा कुठे त्यांना श्रीरामचंद्रप्रभू भेटले. यावरून तुलसीदासजींची एक गंमतीशीर गोष्ट आठवलीय. ऐका तर.