डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं । अब हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है  उनकी  लघुकथा  “बालवर्ष का लाभ”।  यदि हमारे भीतर मानवता जीवित है तो हम आज ऐसे  परजीवी न होते . यह  भी मत भूलिए  कि  जरूरतों और समय ने बच्चों को समय पूर्व ही वयस्क बना दिया है.)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 14 ☆

 

☆ लघुकथा – बालवर्ष का लाभ ☆

 

और फोटोग्राफर भरी दुपहरिया में पसीना-पसीना हुए घूम रहे थे। उद्देश्य था बालवर्ष के सिलसिले में कुछ खस्ताहाल, संघर्षशील बच्चों के इंटरव्यू और चित्र छापना। ढाबे में काम करने वाले एक छोकरे का इंटरव्यू लेकर लौटे थे और दूसरे की तलाश में थे। दूसरा भी मिल गया, चौराहे पर बूट-पॉलिश करता हुआ।। लेखक का चेहरा खिल गया।

लेखक ने उसके सामने बैठकर अपना खाता खोला, दुनिया-भर के प्रश्न पूछ डाले। नाम? उम्र? कहाँ से आये हो? कहाँ रहते हो? कैसे रहते हो? कितना कमा लेते हो? माँ-बाप की याद आती है? भाई-बहन की याद आती है? घर की याद आती है?

लड़का निर्विकार भाव से सवालों के जवाब देता रहा। माँ-बाप और भाई-बहन के बारे में पूछते हुए लेखक ने उसकी आँखों में झाँका कि शायद गीली हो गयीं हों। लेकिन लड़के की आँखें रेत जैसी सूखी और चेहरा सपाट था।

लेखक ने हाथ बढ़ाया, ‘अच्छा भई श्यामलाल, चलते हैं।’

लड़का वैसे ही निर्विकार भाव से बोला, ‘एक बात कहना है साहब।’

लेखक उत्साह से बोला, ‘बोलो, बोलो।’

लड़का बोला, ‘साहब, इसी तरह पाँच छः बाबू लोग हमसे बातचीत करके हमारा फोटो खींच ले गये। हर बार हमारा आधे घंटे का नुकसान होता है। इतनी देर में दो आदमियों को निपटा देता।’

लेखक का मुँह उतर गया। उसने जेब से बीस रुपये का नोट निकालकर बढ़ाया, कहा, ‘यह लो श्यामलाल अपना हर्जाना।’

लड़के ने नोट मोड़कर लापरवाही से कान पर खोंस लिया।

लेखक जाने के लिए मुड़ने लगा कि लड़का बोला, ‘एक बात और साहब।’

लेखक बुझे-बुझे स्वर में बोला, ‘कहो।’

लड़का बोला, ‘साहब, यह बाल बरस किसके कल्यान के लिए मनाया जा रहा है?’

लेखक ने जवाब दिया, ‘बच्चों के कल्याण के लिए, तुम्हारे कल्याण के लिए।’

लड़का बोला, ‘पर साहब, यह जो आप लिख लिखकर छपवा रहे हैं, उससे तो आपका कल्यान हो रहा है। हम तो जहाँ के तहाँ बैठे हैं।’

अब लेखक और फोटोग्राफर लड़के की तरफ पीठ करके जल्दी-जल्दी ऑटो को आवाज़ दे रहे थे।

 

©  डॉ. कुन्दन सिंह परिहार , जबलपुर (म. प्र. )

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डॉ भावना शुक्ल

बढ़िया