हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 52 – कहानियां – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  कथा श्रंखला  “ कहानियां…“ की  प्रथम कड़ी ।)   

☆ कथा कहानी  # 52 – कहानियां – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

सबसे ज्यादा पढ़ने का आनंद स्वंय अनुभवित कहानियों में आता है जिन्हें आत्मकथा कीै श्रेणी में भी वर्गीकृत किया जा सकता है. इसके पीछे भी शायद यह मनोविज्ञान ही है कि हम लोग दादा /दादी की कहानियां सुनकर ही बड़े हुये हैं जो अक्सर रात में बिस्तर पर लेटे लेटे सुनी जाती थीं और सुनते सुनते ही कहानियों का स्थान नींद लेती थी. कहानियां तब ही खत्म होती थीं जब ये कहानियां सुनने की उमर को छोड़कर बच्चे बड़े हो जाते थे और अपनी खुद की कहानी लिख सकें, इसकी तैयारियों में लग जाते थे. ये दौर शिक्षण के मैदान बदलने का दौर होता है जब बढ़ने का सफर प्राथमिक, माध्यमिक, उच्चतर विद्यालयों से गुजरते हुये महाविद्यालय, विश्वविद्यालय में विराम पाता है और उसके बाद नौकरी, विवाह, परिवार, स्थानांतरण, पदोन्नति के पड़ावों पर ठहरने की कोशिश करता है पर रुकता सेवानिवृत्ति के बाद ही है. जब समय मिलता है , तो समय न मिलने के कारण बंद बस्तों में जंग खा रही रुचियां पुनर्जीवन पाती हैं, साथ ही व्यक्ति धर्म और आध्यात्म, योग और पदयात्रा की तरफ भी कदम बढ़ाता है. हालांकि इसके बाद फिर वही दादा दादी की कहानियों का दौर शुरू होता है पर भूमिका बदल जाती है, सुनने से आगे बढ़कर सुनाने वाली. पर आज के बदलते दौर में, आधुनिक संसाधनों और न्यूक्लिक परिवारों ने कहानियां सुनने वालों को, सुनाने वालों से दूर कर दिया है. ये कटु वास्तविकता है पर सच तो है ही, हो सकता है कि अपवाद स्वरूप कुछ लोग कहानियां सुनाने का आनंद ले पा रहे हों पर सामान्यतः स्थितियॉ बदल चुकी हैं. पर यहां इस ग्रुप में सबको अपने अनुभवों से रची कहानियां कहने का और दूसरों की कहानियां सुनने का मौका मिल रहा है तो बिना किसी दुराग्रह के निश्चित ही इस मंच पर अपनी कहानियां कहने का प्रयास किया जाना चाहिए क्योंकि कहानियां सुनने का शौक तो हर किसी को होता ही है.

“मिलन चक्रवर्ती ” जब अपने बचपन के कोलकाता डेज़ को याद करते हैं तो उनकी फुटबाल सदृश्य गोल गोल आंखों से आँसू और दिल से एक हूक निकलने लगती है.बचपन से ही दोस्तों के मामले में लखपति और दुश्मनों के मामले में भी लखपति रहे थे और ये दोस्तियां स्कूल और कॉलेज से नहीं बल्कि फुटबॉल ग्राउंड पर परवान चढ़ी थीं. मोहनबगान के कट्टर समर्थक, मिलन मोशाय हर मैच के स्थायी दर्शक, हूटर, चियरलीडर सबकुछ थे और उनकी दोस्ती और दुश्मनी का एक ही पैरामीटर था. अगर कोई मोहनबगान क्लब का फैन है तो वो दोस्त और अगर ईस्ट बंगाल क्लब वाला है तो दुश्मन जिसके क्लब के जीतने पर उसकी पिटाई निश्चित है पर उस बंदे को घेरकर कहां मोहन बगान क्लब की हार की भड़ास निकालनी है, इसकी प्लानिंग स्कूल /कॉलेज़ में ही की जाती थी. जब भी ये टारगेट अकेले या मात्र 1-2 लोगों के साथ सपड़ में आ जाता तो जो गोल मिलन बाबू का क्लब फुटबाल ग्राउंड में नहीं कर पाया, वो एक्सट्रा टाईम खेल यहां खेला जाता और फुटबाल का रोल यही बंदा निभाता था. यही खेल मिलन मोशाय के साथ भी खेला जाता था जब ईस्ट बंगाल क्लब हारती थी. पर दोस्ती और दुश्मनी का ये खेल फुटबाल मैच के दौरान या 2-4 दिनों तक ही चला करता था जब तक की अगला मैच न आ जाय. फुटबाल मैच उन दिनों टीवी या मोबाइल पर नहीं बल्कि ग्राउंड पर देखे जाते थे और अगर टिकट नहीं मिल पाई तो ट्रांजिस्टर पर सुने जाते थे. हर क्रूशियल मैच की हार या जीत के बाद नया ट्रांजिस्टर खरीदना जरूरी होता था क्योंकि पिछला वाला तो मैच जीतने की खुशी या मैच हारने के गुस्से में शहीद हो चुका होता था. (फुटबाल में मोशाय गम नहीं मनाते बल्कि गुस्सा मनाते हैं.)आज जब मिलन बाबू पश्चिम मध्य रेल्वे में अधिकारी हैं तो अपने ड्राइंग रूम के लार्ज स्क्रीन स्मार्ट टीवी पर सिर्फ फुटबाल मैच ही देखते हैं. नाम के अनुरूप मिलनसारिता कूट कूट कर भरी है और अपने हर दोस्त को और हर उस ईस्ट बंगाल क्लब के फैन को भी जो कोलकाता से दूर होने के कारण अब उनका दोस्त बन चुका है, उसके जन्मदिन, मैरिज एनिवर्सरी पर जरूर फोन करते हैं. अगर उनकी मित्र मंडली के किसी सदस्य के या उसके परिवार के साथ कोई हादसा होता तो भी फोन पर बात करके उसके दुःख में सहभागी बनने का प्रयास करते रहते थे.जब कभी कोलकाता जाना होता तो कम से कम ऐसे मित्रों से जरूर घर जाकर मिलते थे. मिलन मोशाय न केवल मिलनसार थे बल्कि अपने कोलकाता के दोस्तों से दिल से जुड़े थे. ये उनकी असली दुनियां थी जिसमें उनका मन रमता था. बाकी तो बस यंत्रवत काम करना, परिवार के साथ शॉपिंग और सिटी बंगाली क्लब के आयोजन में परिवार सहित भाग लेना उनके प्रिय शौक थे. डॉक्टर मुखर्जी की सलाह पर उन्होंने टेबल टेनिस खेलना शुरु किया जिसमें एक्सरसाईज़ भी होती थी और मनोरंजन भी. यहां बने उनके कुछ मित्रों की सलाह पर प्रोग्रसिव जमाने के चालचलन को फालो करते हुये उन्होंने स्मार्ट फोन ले डाला और जियो की सिम के दम पर वाट्सएप ग्रुप के सदस्य बन गये.

जारी रहेगा…

 

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 140 – महाकाली का रंँग ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी एक स्त्री विमर्श पर आधारित भावपूर्ण लघुकथा “महाकाली का रंँग ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 140 ☆

 🔥लघु कथा – महाकाली का रंँग 🔥

कॉलेज कैंपस में गरबे का आयोजन था। नव दुर्गा का रुप बनाने के लिए कॉलेज गर्ल का चुनाव होना आरंभ हुआ। सभी की निगाह महाकाली के रोल के लिए वसुधा की ओर उठ चली।

वसुधा का रंग सामान्य लड़कियों के रंग से थोड़ा ज्यादा गहरा लगभग काले रंग का थी । रंग को लेकर सदा उसे ताने सुनने पड़ते थे। यहां तक कि घर परिवार के लोग भी कहने लगे थे… कि तुम तो इतनी काली हो तुमसे शादी कौन करेगा?

वसुधा का मन हुआ इस रोल के लिए वह मना कर दे, परंतु अपनी भावना को साथ लिए वह तैयार हो गई। परफॉर्मेंस स्टेज पर हो रहा था। दैत्य को मारने के सीन के साथ ही साथ वसुधा ने दैत्य के सिर को हाथ में लेकर अपना डायलॉग बोलना आरंभ किया…. आप सब जान ले काले गोरे रंग का भेद उसकी अपनी उपज नहीं होती। बच्चों का कोई कसूर नहीं होता। देखिए ब्लड का रंग एक ही होता है। कहते-कहते वह भाव विभोर हो नृत्य करने लगी।

उसके इस भयानक रुप को देख सभी आश्चर्य में थें कि कुछ न करने वाली लड़की अचानक इतना तेज डान्स करने लगी हैं।

तभी कालेज का खूबसूरत छात्र पुष्पों की माला लिए स्टेज पर आया। महाकाली के गले में पहना उसके चरणों पर लेट गया।

तालियों की गड़गड़ाहट से कैंपस गूंज उठा। सीने पर पांव रखते ही वसुधा की जिव्हा बाहर निकल आई…. अरे यह तो वही निखिल है!!! जिसे वह मन ही मन बहुत प्रेम करती है।

माँ काली का रुप प्रेम वशीभूत बिजली की तरह चमकने लगी वसुधा।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 158 ☆ “स्वर्ग के लिए जुगाड़” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कहानी – “स्वर्ग के लिए जुगाड़”)  

☆ कथा कहानी # 158 ☆ “स्वर्ग के लिए जुगाड़” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

बुआ चार घंटे पूजा करतीं हैं, 70 पार हो गई हैं। भगवान से अच्छी दोस्ती है तो पूजा के दौरान दो-तीन घंटे लड़के बहू की निंदा भगवान से कर लेतीं हैं, जीवन भर ससुराल वालों से चिढ़ती रहीं, मास्टरनी रहीं थीं तो पैसे का घमंड ब्याज के साथ मिला था।

चार दिन से नहाया धोया नहीं था तो भगवान को भोग भी नहीं लगा था, चार दिन भगवान भूखे थे, बुआ के चार दिन के बुखार ने तोड़ दिया था, जब ठीक हुईं तो नहा धोकर भगवान से बोलीं – मेरे सिवाय तुमको खाना देने वाला कौन है, तुम चार दिन से निर्जला बैठे हो, मुझे दुख है, पर इस बात की खुशी भी है कि इस बार तुमने मेरे कारण चार दिन का उपवास कर लिया है तो तुम्हारा स्वर्ग में जाना तय है और मुझे भी साथ ले चलोगे तो अगली बार से भूखा नहीं रहना पड़ेगा।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #163 ☆ कथा कहानी – जन्मभूमि ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक विचारणीय  कहानी ‘जन्मभूमि’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 163 ☆

☆ कथा कहानी – जन्मभूमि

गिरीश भाई को शहर में रहते बीस साल हुए, लेकिन ठाठ अभी तक पूरी तरह देसी है। कभी छुट्टी के दिन उनके घर जाइए तो उघाड़े बदन, लुंगी लगाये, कुर्सी पर पसरे, पेट पर हाथ फेरते मिल जाएँगे। सब देसी लोगों की तरह पान-सुरती के शौकीन हैं। हर दो मिनट पर गर्दन दाहिने बायें लटकाकर थूकने की जगह खोजते  रहते हैं। दाढ़ी तीन-चार दिन तक बढ़ाये रखना   उनके लिए सामान्य बात है। सोफे पर पालथी मारकर बैठना और कई बार अपने चरण टेबिल पर रख कर सामने बैठे अतिथि की तरफ पसार देना उनकी आदत में शामिल है।

गिरीश भाई को अपने देस के लोगों से बहुत प्यार है। पूछने पर इस शहर में बसे उनके इलाके के लोगों की पूरी लिस्ट आपको उनके पास मिल जाएगी। हर छुट्टी के दिन देस के लोगों के साथ बैठक भी जमती रहती है, कभी उनके घर, कभी दूसरों के घर। उनकी बैठक कभी देखें तो आपको गाँव की चौपाल का मज़ा आएगा। कुर्सियों को किनारे कर, ज़मीन पर दरियाँ बिछ जाती हैं और वहीं पान-सुरती के साथ गप, ताश और शतरंज की बैठकें चलती रहती हैं। चाय के नाम से बैठकबाज़ों का मुँह बिगड़ता है। ठंडाई और लस्सी हो तो क्या कहना! गिरीश भाई और उनके देस के लोगों का मन इन बैठकों से ऊबता नहीं। कल की ड्यूटी की बात करना पूर्णतया वर्जित। बहुत होगा तो कल आधे दिन की छुट्टी ले लेंगे, लेकिन फिलहाल कल की बात उठाकर रंग में भंग न करें श्रीमान।

गिरीश भाई का गाँव उनकी रगों में हमेशा दौड़ता रहता है। वही तो उनके खान-पान से लेकर उनके जीवन की एक-एक हरकत में प्रकट होता है। जब देस के लोगों की बैठक होती है तब गाँव की स्मृतियों को खूब हरा किया जाता है। याद करके कभी ठहाके लगते हैं तो कभी स्वर भारी हो जाता है।

गाँव गिरीश भाई से छूटा नहीं। गाँव में अभी पुरखों का मकान है जिसमें माता-पिता और भाई भतीजे रहते हैं। पिताजी का मन गाँव के अलावा कहीं नहीं लगता। गिरीश कुल पाँच भाई हैं। तीन शहरों में रहते हैं और दो गाँव में। पिता-माता इच्छा और ज़रूरत के अनुसार शहर बेटों के पास आते जाते रहते हैं, लेकिन उन्हें सुकून गाँव में ही मिलता है। कहते हैं, ‘शहर में साफ हवा नहीं है। शोरगुल भी बहुत है।’ सुविधाएँ सब शहर में हैं, इसलिए कई बार जाना ज़रूरी होता है, खास तौर से तबियत बिगड़ने पर।

दिवाली पर एक हफ्ते के लिए है गाँव जाना गिरीश का नियम है जो बीस साल से बराबर निभ रहा है। एक हफ्ते खूब जश्न होता है। शहर की सारी थकान और शहर की बू-बास निकल जाती है। शरीर और मन को नयी ताकत मिलती है। कैसे वे सात दिन निकल जाते हैं, गिरीश को पता नहीं चलता। चलने के वक्त जी दुखता है। शहर और नौकरी को कोसने का मन होता है।

गाँव का यह जश्न मामूली नहीं होता। बुज़ुर्गों के आदेश पर सब भाइयों, चचेरे भाइयों को दिवाली पर गाँव में हाज़िर होना ज़रूरी होता है। दूसरी बात यह कि सबको अपनी एक एक माह की तनख्वाह इस उत्सव के लिए समर्पित करना अनिवार्य होता है। कोई हीला-हवाला नहीं चलता। इस तरह उत्सव के लिए अच्छी रकम इकट्ठी हो जाती है।
यह उत्सव गिरीश के घर में होता है, लेकिन इसकी प्रतीक्षा पूरा गाँव साल भर करता है। घर के लोगों के साथ-साथ हफ्ते भर उनका भी जश्न हो जाता है। खूब गाना-बजाना होता है और गाँव वालों के लिए प्रवेश पर प्रतिबंध नहीं होता। फुरसत के वक्त गाँव वाले वैसे ही ढोलक और मृदंग की थाप पर खिंचे चले आते हैं। गाँव की नीरस ज़िन्दगी हफ्ते भर के लिए खासी दिलचस्प हो जाती है।

यह उत्सव हर साल होने के कारण सारा कार्यक्रम जमा जमाया रहता है। इशारा करने की देर होती है और आसपास की भजन और लोकगीतों की मंडलियाँ इकट्ठी होने लगती हैं। फिर क्या दिन और क्या रात। रात चढ़ते और सुरूर आता है। सात दिन का यह जश्न वस्तुतः दिन और रात का होता है। जिन्हें नींद आ जाती है वे वहीं दरी या मसनद पर सो लेते हैं, लेकिन ऐसे लोगों की संख्या काफी होती है जिनकी पलक नहीं झपकती। सात दिन बाद यह सरिता सूख जाएगी, इसलिए जितना बने इसके जल में डुबकी लगा लो। फिर तो वही सूनापन है और वही रोज़मर्रा के ढर्रे का सूखापन।

गाँव के लोग इसलिए भी जुड़ते हैं कि सात दिन गिरीश भाई के घर खाने-पीने का भरपूर इंतज़ाम होता है। जो हाज़िर हो जाए उसे भोजन नहीं तो कलेवा-प्रसादी तो मिलेगी ही। गाँव में ठलुओं की कमी नहीं होती। कुछ फितरती ठलुए होते हैं और कुछ बेरोज़गारी से मजबूर ठलुए। ऐसे लोगों के लिए गिरीश का घर सात दिन के लिए नखलिस्तान बन जाता है। और कुछ नहीं तो घर की दीवार से पीठ टिकाए बैठे रहते हैं।

जो मांँस-मदिरा के प्रेमी होते हैं उन्हें भी आराम हो जाता है। गिरीश सात दिन के लिए सभी तरह का इंतज़ाम करते हैं। जब पूजा- अनुष्ठान के लिए व्रत-परहेज़ करना है तब व्रत-परहेज़, और बाकी समय मौज-मस्ती।

इसीलिए गाँव में साल भर गिरीश भाई और उनके बंधु-बांधवों के लिए पलक-पाँवड़े बिछे रहते हैं। गिरीश खर्चे को लेकर किचकिच नहीं करते। खर्चा कुछ ज़्यादा हो जाए तो बेशी खर्चा गिरीश भाई वहन करते हैं। परिणामतः गाँव में गिरीश भाई की जयजयकार होती है।

गिरीश भाई को गाँव आने में एक ही बात से तकलीफ होती है। जब भी गाँव आते हैं, दो-चार लड़के घेर कर बैठ जाते हैं। उनके चेहरे पर आशा भरी नज़र जमा कर कहेंगे, ‘भैया, अब की बार हम आपके साथ चलेंगे।’

गिरीश इन लड़कों को जानते हैं। दसवीं बारहवीं तक पढ़ कर खेती-किसानी और मेहनत- मज़दूरी से विमुख हो गये, अब बेकार बैठे कुंठित हो रहे हैं। ‘तनक पढ़ा तो हर (हल) से गये, बहुत पढ़ा तो घर से गये ‘ वाली कहावत चरितार्थ होती है। अब शहर में उन्हें अपने दुख की दवा दिखायी देती है। साधन नहीं हैं, इसलिए जो भी हैसियत वाला गाँव में आता है उसे घेरते हैं। गिरीश के लिए यह प्रसंग तकलीफ देने वाला है।

इस बार भी उत्सव के सुख के बीच में ऐसे ही लड़के आ आ कर गिरीश के पास बैठने लगे। गिरीश उनसे बचने की कोशिश करते, लेकिन कहाँ तक बचते? फिर वही अनुरोध, वही आजिज़ी। गिरीश ‘हाँ हूँ ‘ में जवाब देकर टाल देते, लेकिन लड़के बार-बार उन्हें घेर लेते थे। वे उनका रसभंग कर रहे थे। सात दिन के लिए सब चिन्ताओं से मुक्त रहने और मौज करने के लिए आये हैं, यह ज़हमत कौन उठाये? फिर शहर में कौन सी इनके दुख की दवा मिलती है? शहर में आदमी की कैसी फजीहत हो रही है, यह इन्हें क्या मालूम।

रामकृपाल काछी का बेटा नन्दू कुछ ज़्यादा ही पीछे पड़ा है। बारहवीं पास है। सवेरे- शाम धरना देकर बैठ जाता है। एक ही रट है, ‘भैया, इस बार आपके साथ चलना ही है। दो साल हो गये। कब तक फालतू बैठे रहें?’

गिरीश बचाव में कहते हैं, ‘मैं वहाँ पहुँच कर खबर दूँगा, तब तुम आ जाना। वहाँ जमाना पड़ेगा। ऐसे आसानी से काम थोड़इ मिलता है।’

नन्दू कुछ नहीं सुनता। कहता है, ‘मैं आपके यहाँ पड़ा रहूँगा। यहाँ भी तो फालतू ही पड़ा हूँ। दिन भर दद्दा बातें सुनाते हैं।’

गिरीश परेशानी महसूस करते हैं। कहते हैं, ‘सबर करो। मैं जल्दी कुछ न कुछ करूँगा।’

जैसे-जैसे गिरीश भाई के रवाना होने के दिन करीब आते हैं, नन्दू की रट और उसकी घेराबन्दी बढ़ती जाती है। वह चाहता है कि किसी भी कीमत पर शहर चला जाए तो कुछ न कुछ रास्ता निकल ही आएगा। जिस दिन गिरीश भाई को रवाना होना था उसकी पिछली शाम भी वह चलने की रट लगाये रहा और गिरीश उसे समझाते रहे।
अगली सुबह चलने के लिए गिरीश भाई ने टैक्सी बुलवा ली थी। उन्होंने आशंका से इधर-उधर देखा। नन्दू कहीं दिखायी नहीं पड़ा। उन्होंने राहत की साँस ली। घर के लोगों और गाँव वालों से विदा लेकर भारी मन से वहाँ से निकले। गाँव वालों ने अगले साल फिर आने का वादा लेकर उन्हें विदा किया।

टैक्सी करीब एक किलोमीटर गयी होगी कि किसी पेड़ के पीछे से निकलकर नन्दू हाथ ऊँचा किये रास्ते के बीच में खड़ा हो गया। टैक्सी रोकनी पड़ी। फिर वही रट— ‘भैया, मुझे ले चलिए।’ उसके कपड़ों-लत्तों  और हाथ के थैले से स्पष्ट था कि वह जाने के लिए तैयार होकर आया था। गिरीश का दिमाग खराब हो गया।

उन्होंने खिड़की से सिर निकाल कर कहा, ‘मैं खबर दूँगा। जल्दी खबर दूँगा।’ लेकिन लगता था उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा है। गिरीश भाई ने ड्राइवर को गाड़ी बढ़ाने का इशारा किया। गाड़ी चली तो नन्दू खिड़की पर हाथ रखे साथ साथ दौड़ने लगा, साथ ही इसरार— ‘भैया मुझे ले चलिए।’

गिरीश ने जी कड़ा करके उसका हाथ खिड़की से अलग किया। वह दौड़ते दौड़ते रुक कर बढ़ती हुई गाड़ी को देखता रहा।

कुछ आगे बढ़ने पर गिरीश भाई ने देखा, वह अपना थैला सिरहाने रख कर पास ही बनी पुलिया पर लंबा लेट गया था। इसके बाद धूल के ग़ुबार में सब कुछ नज़र से ओझल हो गया।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 110 – हुनर और परिश्रम की कीमत ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #110 🌻 हुनर और परिश्रम की कीमत 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

पिता ने बेटे से कहा, “तुमने बहुत अच्छे नंबरों से ग्रेजुएशन पूरी की है। अब क्यूंकि तुम नौकरी पाने के लिए प्रयास कर रहे हो, मैं तुमको यह कार उपहार स्वरुप भेंट करना चाहता हूँ, यह कार मैंने कई साल पहले हासिल की थी, यह बहुत पुरानी है। इसे कार डीलर के पास ले जाओ और उन्हें बताओ कि तुम इसे बेचना चाहते हो। देखो वे तुम्हें कितना पैसा देने का प्रस्ताव रखते हैं।”

बेटा कार को डीलर के पास ले गया, पिता के पास लौटा और बोला, “उन्होंने 60,000 रूपए की पेशकश की है क्योंकि कार बहुत पुरानी है।” पिता ने कहा, “ठीक है, अब इसे कबाड़ी की दुकान पर ले जाओ।”

बेटा कबाड़ी की दुकान पर गया, पिता के पास लौटा और बोला, “कबाड़ी की दुकान वाले ने सिर्फ 6000 रूपए की पेशकश की, क्योंकि कार बहुत पुरानी है।”

पिता ने बेटे से कहा कि कार को एक क्लब ले जाए जहां विशिष्ट कारें रखी जाती हैं।

बेटा कार को एक क्लब ले गया, वापस लौटा और उत्साह के साथ बोला, “क्लब के कुछ लोगों ने इसके लिए 60 लाख रूपए तक की पेशकश की है! क्योंकि यह निसान स्काईलाइन आर34 है, एक प्रतिष्ठित कार, और कई लोग इसकी मांग करते हैं।”

पिता ने बेटे से कहा, “कुछ समझे? मैं चाहता था कि तुम यह समझो कि सही जगह पर ही तुम्हें सही महत्व मिलेगा। अगर किसी प्रतिष्ठान में तुम्हें कद्र नहीं मिल रही, तो गुस्सा न होना, क्योंकि इसका मतलब एक है कि तुम गलत जगह पर हो।

सफलता केवल अपने हुनर और परिश्रम से नहीं मिल जाती, लोगों के साथ मिलती है, और तुम किन लोगों के बीच में हो, कुछ समय में तुमको स्वतः ही ज्ञात हो जाएगा। तुम्हें सही जगह पर जाना होगा, जहाँ लोग तुम्हारी कीमत जानें और सराहना करें।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – रावण दहन ☆ श्री सदानंद आंबेकर ☆

श्री सदानंद आंबेकर

(श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है। भारतीय स्टेट बैंक से स्व-सेवानिवृत्ति के पश्चात गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार   के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर योगदान के लिए आपका समर्पण स्तुत्य है। आज प्रस्तुत है श्री सदानंद जी  की पितृ दिवस की समाप्ति एवं नवरात्र के प्रारम्भ में समसामयिक विषय पर आधारित एक विशेष कथा “रावण दहन”। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्री सदानंद जी की लेखनी को नमन।

☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – रावण दहन ☆ श्री सदानंद आंबेकर ☆ 

दशहरे के दूसरे दिन सुबह,  चाय की चुस्कियों के साथ रामनाथ जी ने अखबार खोल कर पढना आरंभ किया। दूसरे ही पृष्ठ  पर एक महानगर  में कुछ व्यक्तियों के द्वारा एक अवयस्क लडकी के  सामूहिक शीलहरण का समाचार बडे़ से शीर्षक  के साथ दिखाई दिया। पूरा पढ़ने के बाद उनका मन जाने कैसा हो आया। दृष्टि  हटाकर आगे के पृष्ठ  पलटे तो एक  पृष्ठ पर समाचार छपा दिखा – नन्हीं नातिन के साथ नाना ने अपने धर्म की शिक्षा देने के बहाने शारीरिक हमला किया, गुस्से के मारे वह पृष्ठ बदला ही था कि चौथे पन्ने पर बाॅक्स में समाचार छपा था – एक बडे नेता को लडकियों की तस्करी के आरोप में पुलिस ने दबोचा। वाह रे भारतवर्ष !! कहते हुये वे अगले पृष्ठ को पढ रहे थे कि रंगीन फोटो सहित समाचार सामने पड़ गया – मुंबई पुलिस ने छापा मार कर फिल्म जगत की बडी हस्तियों को गहरे नशे  की हालत में अशालीन अवस्था में गिरफ्तार किया- हे राम, हे राम कहकर आगे नजर दौडाई कि स्थानीय जिले का समाचार दिखाई दिया, नगर में एक बूढे दंपति को पैसों के लिये नौकर ने मार दिया और नगदी लेकर भाग गया। यह पढकर वे कुछ देर डरे रहे फिर लंबी सांस भर कर अखबार में नजर गड़ा दी। सातवें पृष्ठ का समाचार पढ़ कर उन्हें अपने युवा पोते का स्मरण हो आया, लिखा था- राजधानी में चंद पैसों और मौज-मस्ती के लिये युवा छात्र चेन झपटने, और मोटरसायकिल चोरी के आरोप में पुलिस द्वारा पकड़े गये। इन युवाओं के आतंक की गतिविधियों में जुडे़ होने का संदेह भी व्यक्त किया गया था।

अंतिम पृष्ठ पर दशहरे पर अनेक स्थानों पर रावण दहन की बड़ी बड़ी तस्वीरें छपी थीं जिन्हें देखकर रामनाथ जी सोचने लगे कि- कल हमने किसे जलाया था ????

©  सदानंद आंबेकर

भोपाल, मध्यप्रदेश 

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #121 – बाल कथा – “जबान की आत्मकथा” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक ज्ञानवर्धक बाल कथा – “जबान की आत्मकथा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 121 ☆

☆ बाल कथा – जबान की आत्मकथा ☆ 

“आप मुझे जानते हो?” जबान ने कहा तो बेक्टो ने ‘नहीं’ में सिर हिला दिया. तब जबान ने कहा कि मैं एक मांसपेशी हूं.

बेक्टो चकित हुआ. बोला, ” तुम एक मांसपेशी हो. मैं तो तुम्हें जबान समझ बैठा था.” 

इस पर जबान ने कहा, ” यह नाम तो आप लोगों का दिया हुआ है. मैं तो आप के शरीर की 600 मांसपेशियों में से एक मांसपेशी हूं. यह बात और है कि मैं सब से मजबूत मांसपेशी हूं. जैसा आप जानते हो कि मैं एक सिरे पर जुड़ी होती हूं. बाकी सिरे स्वतंत्र रहते हैं.”

जबान में बताना जारी रखो- मैं कई काम करती हूं. बोलना मेरा मुख्य काम है. मेरे बिना आप बोल नहीं सकते हो. अच्छा बोलती हूं. सब को मीठा लगता है. बुरा बोलती हूं. सब को बुरा लगता है. इस वजह से लोग प्रसन्न होते हैं. कुछ लोग बुरा सुन कर नाराज हो जाते हैं.

मैं खाना खाने का मुख्य काम करती हूं. खाना दांत चबाते हैं. मगर उन्हें इधरउधर हिलानेडूलाने का काम मैं ही करती हूं. यदि मैं नहीं रहूं तो तुम ठीक से खाना चबा नहीं पाओ. मैं इधरउधर खाना हिला कर उसे पीसने में मदद करती हूं.

मेरी वजह से खाना स्वादिष्ट लगता है. मेरे अंदर कई स्वाद ग्रथियां होती है. ये खाने से स्वाद ग्रहण करती है. उन्हें मस्तिष्क तक पहुंचाती है. इस से ही आप को पता चलता है की खाने का स्वाद कैसा होता है?

जब शरीर में पानी की कमी होती है तो मेरे द्वारा आप को पता चलता है. आप को प्यास लग रही है. कई डॉक्टर मुझे देख कर कई बीमारियों का पता लगाते हैं. इसलिए जब आप बीमार होते हो तो डॉक्टर मुंह खोलने को कहते हैं. ताकि मुझे देख सकें.

मैं दांतों की साफसफाई भी करती हूं. दांत में कुछ खाना फंस जाता है तब मुझे सब से पहले मालूम पड़ता है. मैं अपने खुरदुरेपन से दांत को रगड़ती रहती हूं. इस से दांत की गंदगी साफ होती रहती है. मुंह में दांतों के बीच फंसा खाना मेरी वजह से बाहर आता है.

मेरे नीचे एक लार ग्रंथि होती है. इस से लार निकलती रहती है. यह लार खाने को लसलसा यानी पानीदार बनाने का काम करती है. इसी की वजह से दांत को खाना पीसने में मदद मिलती है. मुंह में पानी आना- यह मुहावरा इसी वजह से बना है. जब अच्छी चीज देखते हो मेरे मुंह में पानी आ जाता है.

कहते हैं जबान लपलपा रही है. या जबान चटोरी हो गई. जब अच्छी चीजें देखते हैं तो जबान होंठ पर फिरने लगती है. इसे ही जबान चटोरी होना कहते हैं. इसी से पता चलता है कि आप कुछ खाने की इच्छा रखते हैं.

यदि जबान न हो तो इनसान के स्वाभाव का पता नहीं चलता है. वह किस स्वभाव का है? इसलिए कहते हैं कि बोलने से ही इनसान की पहचान होती है. यदि वह मीठा बोलता है तो अच्छा व्यक्ति है. यदि कड़वा या बेकार बोलता है तो खराब व्यक्ति है. 

यह सब कार्य मस्तिष्क करवाता है. मगर, बदनाम मैं होती हूं. मन कुछ सोचता है. उसी के अनुसार मैं बोल देती हूं. इस कारण मैं बदनाम होती हूं. मेरा इस में कोई दोष नहीं होता है. 

जबान इतना बोल रही थी कि तभी बेक्टो जाग गया. जबान का बोलना बंद हो गया. 

‘ओह! यह सपना था.’ बेक्टो ने सोचा और आंख मल कर उठ बैठा. उसे पढ़ कर स्कूल जाना था. मगर उस ने आज बहुत अच्छा सपना देखा था. वह जबान से अपनी आत्मकथा सुन रहा था. इसलिए वह बहुत प्रसन्न था.

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

28/03/2019

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – ईडेन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ नवरात्र  साधना कल सम्पन्न हुई 🌻

 

देह में विराजता है परमात्मा का पावन अंश। देहधारी पर निर्भर करता है कि वह परमात्मा के इस अंश का सद्कर्मों से विस्तार करे या दुष्कृत्यों से मलीन करे।

परमात्मा से परमात्मा की यात्रा का प्रतीक हैं श्रीराम। परमात्मा से पापात्मा की यात्रा का प्रतीक है रावण।

आज के दिन श्रीराम ने रावण पर विजय पाई थी। माँ दुर्गा ने महिषासुर का मर्दन किया था।भीतर की दुष्प्रवृत्तियों के मर्दन और सद्प्रवृत्तियों के विजयी गर्जन के लिए मनाएँ विजयादशमी।

त्योहारों में पारंपरिकता, सादगी और पर्यावरणस्नेही भाव का आविर्भाव रहे। अगली पीढ़ी को त्योहार का महत्व बताएँ, त्योहार सपरिवार मनाएँ।

🙏 विजयादशमी की हृदय से बधाई🍁

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – लघुकथा – ईडेन ??

….उस रास्ते मत जाना, आदम को निर्देश मिला। आदम उस रास्ते गया। एक नया रास्ता खुला।

….पानी में खुद को कभी मत निहारना। हव्वा ने निहारा खुद को। खुद के होने का अहसास जगा।

….खूंखार जानवरों का इलाका है। वहाँ कभी मत जाना।….आदम इलाके में घुसा, जानवरों से उलझा। उसे अपना बाहुबल समझ में आया।

….आग से हमेशा दूर रहना, हव्वा को बताया गया। हव्वा ने आग को छूकर देखा। तपिश का अहसास हाथ और मन पर उभर आया।

….उस पेड़ का फल मत खाना। आदम और हव्वा ने फल खाया। सृष्टि का जन्म हुआ, ईडेन धरती पर उतर आया।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 51 – Representing People – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  कथा श्रंखला  “Representing People …“ की अगली कड़ी ।)   

☆ कथा कहानी  # 51 – Representing People – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

सत्तर के दशक में ऋषिकेश मुखर्जी निर्देशित फिल्म आई थी, “नमकहराम” राजेश खन्ना,अमिताभ बच्चन,ए.के.हंगल और रेखा की.राजेश खन्ना उस वक्त के सुपर स्टार थे और अमिताभ नये उभरते सितारे.फिल्म में दो किरदार थे,दोनों बहुत गहरे मित्र,कॉलेज के सहपाठी, एक के पिता अमीर उद्योगपति और दूसरा हमारी सत्तर के दशक की फिल्मों का नायक जो आमतौर पर गरीब परिवार का ही होता था और इस फिल्म में पिता से भी वंचित. फिल्म के अंत में इस पात्र की मृत्यु हो जाती है. फिल्म आनंद के आनंद भी राजेश खन्ना ही थे जो फिल्म के क्लाइमेक्स में मरकर भी किरदार को अमर कर गये थे.अमिताभ बच्चन के अंदर छुपे भावी महानायक के पांव ,पालने में  यानी इस फिल्म से ही नज़र आने लगे थे.कुछ फिल्में थियेटर से बाहर निकलने के बाद भी दिलोदिमाग से निकल नहीं पातीं.आनंद और डॉक्टर भास्कर के पात्रों ने फिल्म आनंद को अपने युग की अविस्मरणीय फिल्म बना दिया.नायक ने मृत्यु का वरण किया पर पात्र और फिल्म दोनों ही अमर हो गये. जब ऋषिकेश मुखर्जी फिल्म नमकहराम बना रहे थे तो उन्होंने सुपर स्टार राजेश खन्ना को दोनों भूमिकाएं ऑफर की ,राजेश खन्ना ने “आनंद ” की सफलता से प्रभावित होकर ,गरीब युवक की भूमिका चुनी जो अंत में नियोजित दुर्घटना में काल कलवित हो जाता है.ये फिल्म भी बहुत सराही गई, अमिताभ बच्चन ने अपने उद्योगपति पुत्र के किरदार को अपने कुशल अभिनय से जीवंत कर दिया और दर्शकों की पसंद बन गये.फिल्म नमकहराम एक फिल्म नहीं आहट थी एक सुपर स्टार के उदय होने और दूसरे सुपर स्टार के जाने की.ये कहानी थी उम्मीदों के परवान चढ़ने की और अहंकार के कारण एक सुपर स्टार के शिखर से पतन की ओर बढ़ने की. नमकहराम फिल्म की कहानी का उत्तरार्द्ध एक छद्म मज़दूर नेता के हृदय परिवर्तन पर केंद्रित था.शिक्षा पूर्ण करने के बाद जब अमिताभ अपने पिता की फैक्ट्री संभालने आते हैं तो उनके उग्र स्वभाव का सामना होता है मज़दूर नेता ए.के.हंगल से जो अपने साथियों की मांगों के संदर्भ में अमिताभ को संगठन की ताकतका एहसास करा देते हैं उद्योगपति पुत्र का अहम् ये बरदाश्त नहीं कर पाता और एक कुटिल नीति के तहत राजेश खन्ना को एक उभरते हुये मज़दूर नेता के रूप में प्रत्यारोपित किया जाता है जो रहता तो मज़दूरों की बस्ती में है पर यारी निभाने के कारण बैठता है पूंजीपतियों की गोद में.जो मांगे हंगल लेकर आते हैं वो नामंजूर और फिर वही इस प्लांटेड नेता की छद्म उग्रता के कारण मान ली जाती हैं.कुछ पाना,भले ही षडयंत्र हो पर इस राजेश खन्ना के पात्र को लोकप्रिय बनाता है जो अंततः हंगल को यूनियन के चुनावों में पराजित कर देता है.ये प्रायोजित विजय,लगती तो है पर वास्तविक जीत नहीं होती क्योंकि इसका आधार ही व्यक्तिगत स्वार्थ और षडयंत्र होते हैं.पर समय के साथ जब राजेश खन्ना, मज़दूर बस्ती में रहकर उनकी जिंदगी, उनकी समस्याओं से रूबरू होते हैं तो न केवल उन्हें मजदूर नेता हंगल की निष्ठा, समर्पण और मेहनत का अहसास होता है बल्कि उनके पात्र का हृदय परिवर्तन होता है.हंगल उन्हें सच्चाई का रास्ता दिखाते हैं और ये नकली नेता,एक संवेदनशील प्रतिनिधित्व की ओर कदम दर कदम सफर तय करता है.जब अमिताभ अभिनीत पात्र का इस संवेदनशील प्रतिनिधि से सामना होता है तो आक्रोश और आहत अमिताभ, राजेश खन्ना के लिये जो शब्द प्रयुक्त करते हैं वो होता है “नमक हराम” पर हम और आप जिन्होंने बहुत कुछ अनुभव किया है,अच्छी तरह समझते हैं कि निष्ठा और समर्पण क्या है और छद्म प्रतिनिधित्व क्या है.सवाल तो हमेशा यही रहता है कि चाहे वो फिल्म हो या वास्तविकता, कि ये नमक रूपी ऊर्जा और शक्ति कहां से मिलती है.इस ऊर्जा और शक्ति के स्त्रोत की उपेक्षा ही है नमक रूपी विश्वासघात. अंतहीनता ही इसकी विशेषता है क्योंकि युद्घ काल की संभावना कभी समाप्त नहीं होती. ये शायद अंत नहीं है.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर ≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 157 ☆ “गांधी का भूगोल” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कहानी – “गांधी का भूगोल”)  

☆ कथा कहानी # 157 ☆ “गांधी का भूगोल” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हूबहू एकदम गांधी की शक्ल, गांधी जैसा माथा, गांधी जैसी चाल, चश्मा तो बिल्कुल गांधी जैसा ओरिजनल, गांधी जैसी नाक, चलता ऐसे जैसे साक्षात गांधी चल रहे हों,उसका उठने बैठने के तरीके में मुझे गांधी जी दिख जाते। वह अक्सर गांधी जैसी लाठी लिए मेरे आफिस के सामने से गुजरता, गांव भर के गाय बैल भैंस लेकर जंगल की ओर चराने रोज ले जाता। जब वह लाठी टेकते यहां से निकलता तो स्कूल जाते गांव के बच्चे उसे देखकर गांधी.. गांधी.. कहकर चिढ़ाते और वह भी खूब चिढ़ता, बच्चों को पत्थर मारने दौड़ता, गाली बकते हुए उन्हें डराने की कोशिश करता, गांव की नई उमर की बहू बेटियां लोटा लेकर खेतों तरफ जाते हुए उसकी इस हरकत से हंसती, मुझे भी यह सब दृश्य देखकर मजा आता। 

दूर दराज के गांव में गांधी जैसा हमशक्ल,या अमिताभ बच्चन जैसा हमशक्ल चलता फिरता दिख जाए तो बाहरी आदमी का  रोमांचित हो जाना स्वाभाविक है जिसने फिल्म में गांधी को देखा हो,या गांधी की जीवनी पढ़ी हो।

मेरे लिए यह गांव नया था,दो तीन महीने पहले शहर से इस गांव में ट्रांसफर हुआ था,रुरल असाइनमेंट करने के लिए। बियाबान जंगल के बीच मुख्य सड़क से दूर छोटा सा गांव था, और ऐसे गांव में गांधी जैसे हमशक्ल के दर्शन हो जाएं तो मेरे लिए अजूबा तो था। वह सुबह सुबह जानवरों को लाठी से हांकता रोज दिख जाता जब हम आफिस खोलकर बाहर बैठते।बच्चे गांधी.. गांधी.. चिल्लाने लगते, वह भरपूर चिढ़ता, मारने को पत्थर उठाता,गाली बकते हुए आगे बढ़ जाता। बच्चों के साथ मुझे भी मजा आता, असली गांधी याद आ जाते। वैसे मैंने भी ओरिजनल गांधी को जिन्दा या चलते फिरते नहीं देखा, कैसे देखता जब गांधी को गोली मारी गई थी उसके बीस साल बाद हम धरती पर आये थे।पर बचपन से दिल दिमाग में गांधी जी छाये रहते, जहां भी उनके बारे में कुछ पढ़ने मिलता बड़े चाव से पढ़ते और दूसरों को भी बताते।

एक दिन बड़ा अजीब हुआ,जब वह आफिस के सामने से गुजर रहा था बच्चे दौड़ दौड़ कर गांधी.. गांधी…चिल्लाने लगे,वह भरपूर चिढ़ रहा था,गाली बक रहा था, मैं बहुत ज्यादा रोमांचित हो उठा और मैं भी बच्चों के साथ गांधी.. गांधी.. चिल्लाने लगा।

अचानक वह आश्चर्य के साथ रुक गया, मुड़कर मेरी तरफ उसने ऊपर से नीचे तक कई बार देखा फिर हताशा और निराशा के साथ मेरे पास आकर बोला – बाबू आप तो पढ़े लिखे और समझदार इंसान हैं मैं अपढ़,गंवार,मूर्ख और गरीब हूं। पिछले कुछ सालों से गांव भर के बच्चे जबरन गांदी…गंधी… गंदी कह कहकर मुझे चिढ़ाते हैं,मेरा जीना हराम किए रहते हैं अपमान के घूंट पी पी कर मैं चुप रहता हूं,ऐसा मुझमें क्या गंदा है जो ये लोग गांदी..गंधी… गन्दी कहकर मुझे चिढ़ाते रहते हैं और आज आप भी बड़े मजे लेकर मुझे चिढ़ाने की शुरुआत कर रहे हैं।

मेरे अंदर करुणा की नदी फूट गई थी, मैं समझ गया कि ये आदमी गांधी से परिचित नहीं हैं, कैसे होता, पढ़ा लिखा कुछ था नहीं, बचपन से गांव के जानवरों को लेकर जंगल चला जाता रहा और रात को थका हारा झोपड़ी में सो जाता रहा होगा। मैंने उससे माफी मांगते हुए बताया कि बच्चे उसे जो गांधी गांधी कहकर चिल्लाते हैं उसका कारण जानते हो ?

वह लपककर बोला -बाबू जी ये गांधी क्या बला है? मैंने उसे बताया कि गांधी का मतलब होता है वह महान व्यक्तित्व जिसने देश को आजादी दिलाई थी, गांधी का मतलब होता है ईमानदारी, निष्ठा, लगन….

गांधी का मतलब होता है त्याग, बलिदान, देशभक्ति…..

अचानक मैंने देखा वह मूर्ति की तरह अकड़ गया था, उसे छूकर देखा वो बर्फ की तरह ठंडा पड़ गया था, और जब तक मैं उसे संभालता वह गिर कर मर चुका था…..। फिर थोड़ी देर मेरे अन्दर पछतावे का लावा बहता रहा, मुझे लगा कि उसे गांधी का असली मतलब नहीं बताना चाहिए था।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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