हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ न्यू जर्सी से डायरी… 8 ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी विदेश यात्रा के संस्मरणों पर आधारित एक विचारणीय आलेख – ”न्यू जर्सी से डायरी…”।)

? यात्रा संस्मरण ☆ न्यू जर्सी से डायरी… 8 ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ?

गांधी जयंती पर स्टेट लिबर्टी पार्क न्यू जर्सी में

9/11 मेमोरियल पर महात्मा गांधी विश्व में शांति और अहिंसा के आईकान के रूप में जाने जाते हैं। आज उनकी जयंती है । घर के निकट ही हडसन नदी के किनारे स्टेट लिबर्टी पार्क है, मात्र कोई एक किलोमीटर दूर । आज सुबह प्रकृति से मिलने यहीं चला आया ।

किंतु 9/11 मेमोरियल देख, पार्क में लकड़ी की बैंच पर बैठे हुए वैचारिक मुलाकात हो गई, सदी की उस वीभत्स आतंकी घटना से जिसने 93 देशों के लगभग 3000 निरपराध लोगों की जान ले ली थी । वर्ष 2001 की 11 सितंबर को सुबह लगभग 9 बजे, दो विमान 111 मंजिले वर्ल्ड ट्रेड सेंटर से थोड़े अंतर से टकराए और ट्विन टावर ध्वस्त हो गए। गांधी के सिद्धांत सुबक रहे थे। आतंकी हंस रहे थे । आज भी नव दुर्गा निरंतर संहार कर रही हैं पर नए नए दैत्य क्रूर हंसी हंस रहे हैं।

ठंडी हवाये दुखते जख्म सहलाने की कोशिश कर रही है, सूरज इंसानियत के दुख में शामिल, नजरो से छिपा हुआ है।

मैं मौन श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूं गांधी को और 9/11 मेमोरियल, न्यूजर्सी पार्क में बने मेमोरियल वाल पर अंकित हर नाम को जो संभावनाओं से भरा एक असमय मिटा दिया गया उपन्यास था ।

विवेक रंजन श्रीवास्तव, न्यूजर्सी

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

 

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग -5 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 5 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्वान चर्चा

विश्व में उन सभी स्थानों पर जहां मानव जाति पाई जाती है, श्वान भी साथ में ही बसते हैं। महाभारत ग्रंथ में भी युधिष्ठिर और उनके श्वान भक्ति का संदर्भ आज भी लिया जाता हैं।

महाभारत का आरंभ और अंत भी श्वान कथा से ही होता हैं।                             

प्रातः और सायं भ्रमण के समय यहां अमेरिका की धरती पर भी अपने मालिकों के साथ भ्रमण करते हुए पाए जाते हैं। हमारे देश में अमीरों के श्वान तो उनके सेवकों के भरोसे ही रहते हैं। कुछ सेवक तो उनके दूध में पानी मिला कर हेराफेरी करने में भी अग्रणी होते हैं, और उनको उद्यान में घुमाने के समय चैन को बेंच से बांध कर स्वयं व्हाट्स ऐप में हमारे जैसे फुरसतियों  के किस्से पढ़ते रहते हैं।

यहां पर श्वान को भ्रमण के समय चैन/ रस्सी बांध कर ही ले जाना अनिवार्य हैं। यहां अधिकतर श्वानोंं की चैन पतंग की चरखी नुमा यंत्र से नियंत्रित रहती हैं। ढील देने से चैन की लंबाई बढ़ जाती हैं।         

श्वानों   की नई नई नस्लें देख कर आश्चर्य  भी होता हैं। बस दिल में एक कसक है, यहां हमारे देश जैसे सड़कों पर घूमते हुए  कारों के पीछे दौड़ते हुए श्वान नहीं दिखे, शायद देसी श्वान की नस्ल को यहां की जलवायु में जीवन असंभव होगा। हमारे देश के अमीर लोग तो ठंडे प्रदेशों के श्वान के लिए पूर्णतः वातानुकूलित व्यवस्था करवा लेते हैं। हो सकता है, यहां के अमीर भी हमारे यहां के देसी श्वान पालते हो और उनके लिए गर्म जलवायु की व्यवस्था करवा लेते हों।

श्वान को घर से बाहर घुमाने लाए हुए सभी व्यक्तियों के हाथ में प्लास्टिक की थैली देखकर प्रथम तो अजीब सा प्रतीत हुआ, बाद में देखा इसका उपयोग उसके द्वारा त्यागे हुए मल को उठाने के लिए किया जाता हैं। सफाई  को बनाए रखने में ये एक महत्वपूर्ण व्यवस्था हैं। कुछ स्थानों पर मुफ्त प्लास्टिक थैली उपलब्ध भी होती हैं। हमारे देश के श्वान पालक इन सब से कब संज्ञान लेंगें?

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचना/Information ☆ मॉडर्न महाविद्यालय (हिंदी विभाग) में  हिंदी पखवाड़ा समापन समारोह और हिंदी विज्ञापन प्रदर्शनी संपन्न ☆ डॉ प्रेरणा उबाळे ☆

सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

☆ मॉडर्न महाविद्यालय (हिंदी विभाग) में  हिंदी पखवाड़ा समापन समारोह और हिंदी विज्ञापन प्रदर्शनी संपन्न ☆ डॉ प्रेरणा उबाळे

दिनांक 01 अक्टूबर 2022 को हिंदी विभाग द्वारा आयोजित हिंदी पखवाड़ा समापन समारोह और हिंदी विज्ञापन प्रदर्शनी में ” हिंदी भाषा और आधुनिक तकनीक” विषय पर प्रमुख वक्ता डॉ. राजेंद्र प्रसाद वर्मा जी (भारत सरकार, गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग, हिंदी शिक्षण योजना, पुणे) का अत्यंत ज्ञानवर्धक व्याख्यान रहा l संगणक और मोबाइल में  भारतीय भाषाओं में ऑफलाइन टाइपिंग,  अनुवाद, वॉयस टाइपिंग,  G-board आदि के संदर्भ में महत्वपूर्ण फीचर्स पर अत्यंत सार्थक और सारगर्भित व्याख्यान दिया। संगणक पर यूनिकोड,  हिंदी सॉफ्टवेअर , प्रोग्रामिंग आदि पहलुओं पर भी विचार अभिव्यक्त किए l

डॉ.  राजेंद्र प्रसाद  वर्मा  जी के करकमलों से विज्ञापन प्रदर्शनी का उद्घाटन हुआ तथा प्राचार्य डॉ.  राजेंद्र झुंजारराव सर के शुभ हाथों से विज्ञापन प्रदर्शनी के चार सर्वोत्तम विज्ञापन,  लिखनेवाले प्रथम वर्ष कला हिंदी के छात्र अंजली बिड़ला,  गौरव  ढमाले, बिनीता  मोनडल , कोमल वाघमारे; प्रथम वर्ष वाणिज्य,  हिंदी के सर्वोत्तम निबंध लेखक छात्र साक्षी  वाघमारे, रोशनी कांबळे; द्वितीय वर्ष कला,   हिंदी के सर्वोत्तम समाचार विश्लेषक आदित्य  पडवळ, वैभवी नलावडे तथा तृतीय वर्ष कला हिंदी के  सर्वोत्तम आत्मकथा लेखक  छात्र मजहर शेख, आफ़शा मशायक को पुरस्कृत किया गया। 

कार्यक्रम में प्राचार्य डॉ. राजेंद्र झुंजारराव सर ने सभागार में उपस्थित सभी को संबोधित किया।  प्रस्तुत कार्यक्रम की भूमिका संयोजिका, हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. प्रेरणा उबाळे ने सभी के सन्मुख रखी तथा  प्रमुख अतिथि और वक्ता डॉ.  राजेंद्र  वर्मा  जी  का परिचय दिया ।  हिंदी विभाग के प्रा. असीर मुलाणी और  प्रा.  संतोष तांबे  जी  ने  कार्यक्रम का संचालन किया l हिंदी विभाग द्वारा आयोजित हिंदी पखवाड़ा समापन समारोह में बड़ी संख्या में छात्र उपस्थित रहें। संपूर्ण कार्यक्रम अत्यंत सुचारू ढंग से संपन्न हुआ l

डॉ. प्रेरणा उबाळे

सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभागाध्यक्षा, मॉडर्न कला, विज्ञान और वाणिज्य महाविद्यालय (स्वायत्त), शिवाजीनगर,  पुणे ०५

संपर्क – 7028525378 / [email protected]

 ≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #158 ☆ खट्याळ वारा… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 158 ?

☆ खट्याळ वारा… 

दुसऱ्यासाठी भरून माझं मन येईल का ?

नभासारखं मातीत ते विरून जाईल का ?

 

कधीतरी या देहाच माझ्या झाड होईल का ?

तरूसारखी शीतल छाया देता येईल का ?

 

माझ्यामधला खट्याळ वारा श्वास होईल का ?

हृदयी थोडीशी जागा मज घेता येईल का ?

 

दीन दुबळ्यांची भूक समजून घेईल का ?

जात्यामधली भरड थोडी होता येईल का ?

 

पार करुनी दगड धोंडे जाता येईल का ?

शुद्ध वाहते तशीच माझी नदी होईल का ?

 

कोकिळ गातो तसेच मला गाता येईल का ?

लता, रफीचा आवाज मला होता येईल का ?

 

डबक्यातून बाहेर मला जाता येईल का ?

मिठीत सागरा तुझ्या मला येता येईल का ?

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ डोळ्यांतले पाणी…भाग 10 ☆ सौ. अमृता देशपांडे ☆

सौ. अमृता देशपांडे

 

? विविधा ?

☆ डोळ्यांतले पाणी…भाग – 10 ☆ सौ. अमृता देशपांडे  

” श्यामची आई ” या साने गुरुजींच्या पुस्तकाच्या प्रस्तावनेत आचार्य प्र.के.अत्रे लिहितात,” साने गुरुजींनी श्यामची आई हे पुस्तक आपल्या आसवांनी लिहून काढले. त्यातले प्रत्येक अक्षर न् अक्षर गुरुजींनी गहिवरल्या अंतःकरणाने आणि डबडलेल्या डोळ्यांनी लिहिले आहे. त्यातले प्रत्येक वाक्य गळ्यातून अन् दाबून ठेवलेल्या हुंदक्यातून निर्माण झाले आहे.

गुरुजींच्या जीवनाचा झरा शक्य तितका निर्मळ ठेवण्याची आटोकाट काळजी तिने घेतली. मन कशाने स्वच्छ करता येईल ? अश्रूंनी…म्हणून अश्रूंचे हौद परमेश्वराने डोळ्यांजवळ भरून ठेवले आहेत.’ असुवन जल सींच सींच प्रेमवेलि बोई ‘ हा अश्रूंच्या पाण्याने मन शुध्द करून त्यात प्रेम आणि भक्ती ची वेल वाढवण्याचा मीराबाईचा मंत्र गुरूजींना त्यांच्या आईनेच शिकवला. आपल्या जीवनवेलीला आत्मशुद्धीच्या आसवांचे शिंपण घालावयाला आईने गुरुजींना लहानपणापासून शिकवले. अश्रूंचा इतका उदात्त आणि सुंदर अर्थ कालातीत आहे,
” मिळतिल कवने, मिळतिल दुर्मिळ तत्त्वांचे बोल
दिव्य अश्रूंनो! तुम्हांपुढति परि
ते सगळे फोल……

समाप्त 🙏🏻

© सौ. अमृता देशपांडे 

पर्वरी – गोवा

9822176170

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ भूकंप – भाग 1 ☆ सौ अंजली दिलीप गोखले ☆

सौ अंजली दिलीप गोखले

? जीवनरंग ❤️

☆ भूकंप – भाग 1 ☆ सौ अंजली दिलीप गोखले

आज कितीतरी वर्षांनी, मला कितीतरी जण भेटणार आहेत. किती म्हणजे किती वर्ष झाली बरं?  दहा-बारा वर्ष तरी अगदी सहज. हो, सहजच. एमबीबीएस ची चार वर्ष, त्यानंतर एमडी साठी एंट्रन्स ची तयारी करून ती तीन वर्ष आणि नंतर या हॉस्पिटल मधली चार-पाच वर्ष. खरंच ही सगळी वर्षं आपण फक्त काम आणि काम अन काम, अभ्यास एके अभ्यास करत राहिलो.  बाकी कशाचाही विचार केला नाही. केला नाही, म्हणून तर इथपर्यंत येऊन पोहोचलो ना!

मी अशी डॉक्टर बनू शकेन याचा विचार काय, स्वप्नही पाहिले नव्हते. त्या वयात असे स्वप्न आणि मी?  शक्यच नव्हते. कारण माझी स्वप्नं टोटली वेगळी अन छान होती ना! पंख फुटून आकाशात भरारी मारण्याची होती ती स्वप्नं! सुखद संसाराची होती ती स्वप्नं! त्या माझ्या स्वप्नात खराखुरा राजकुमार होता. नुसता स्वप्नात नव्हता तर मला खरंच भेटला होता. त्याच्यामुळेच तर मी मोरपंखी स्वप्नांमध्ये बुडून गेले होते.

किती सोपे, सरळ, सुखद होते आयुष्य! मी संख्याशास्त्र घेऊन बीएससी झाले आणि माझ्या स्वप्नांचा मार्ग आणखीन सुकर झाला. कारण त्याच वर्षी माझ्या दादाबरोबर तोही इंजिनियर झाला. गलेलठ्ठ पगाराचा जॉबही त्याला मिळाला. दादामुळे त्याची ओळख होतीच,  आता तर काय दोन्ही घरच्या संमतीने आमचं लग्न ही पक्क झालं. एकमेकांच्या घरची ओळख होती, माहिती होती, सगळ नक्की झालं होतं. त्यामुळे दादा जॉईन झाल्यावरही आम्ही दोघं भेटत होतो. फिरत होतो. स्वप्न रंगवत होतो.

तो, त्याच्या नोकरीच्या ठिकाणी जाण्यापूर्वीच आमच्या लग्नाची तारीख ठरवली. दोन्ही घरांमध्ये आनंद नुसता ओसंडून वहात होता. आई-बाबांना कशाची म्हणजे कशाची काळजी नव्हती. मलाही फार नवखं, फार परकं, असं काही नव्हतच. त्याची लहान बहिण, तिही माझी मैत्रिण झाली होती.

दोन्हीकडे लग्नाच्या तयारीला उधाण आलं होतं. दोघांकडची घरं रंगवून झाली, पत्रिका छापल्या, वाटूनही झाल्या. पै पाहुणे यायला सुरुवात झाली होती. माझ्या साड्या खरेदी, दागिने खरेदी, नवनवीन ड्रेस, पर्सेस बॅग… सगळं नवीन कोरं. दादाची नवीनच नोकरी असल्यामुळे तो अगदी आदल्याच दिवशी आला. घर पाहुण्यांनी भरून वाहत होतं. चिवडा लाडू घरीच बनवून त्याच्या पिशव्या भरून तयार होत्या. झाडून सगळ्या पै – पाहुण्यांना, मैत्रिणींना, आईच्या माहेरच्यांना भरभक्कम आहेर घेऊन ठेवला होता. गप्पा, हास्यविनोद, चिडवा चिडवी याला उधाण आलं होतं.

आमच्या घराला रोषणाई केली होती. दारात मोठा मंडप घातला होता, तिथं खुर्च्या ठेवून गप्पाटप्पा, चहापाणी मजे-मजेत सुरू होतं. हॉलमध्ये, स्वयंपाक घरात फुलांच्या माळा सोडल्या होत्या. आनंदाला कसं भरतं आलं होतं.

आमच्या घरच्या रिवाजाप्रमाणे आदल्या दिवशी हळदीचा कार्यक्रम झाला. सगळ्यांनी मला चिडवून चिडवून बेजार केलं होतं. मेंदीनं हात भरून रंगले होते. दोन्ही हातांमध्ये हिरवा कंच चुडा खुलून दिसत होता. माझं मलाच आरशात बघताना लाजायला होत होतं. काहीतरी वेगळीच संवेदना सर्वांग फुलवून टाकत होती. त्यात मैत्रिणींचं चिडवणं, सगळं कसं हवं हवंसं, सुखावून टाकणार होतं. आई-बाबा, मैत्रिणी सगळ्यांना सोडून जायची कल्पना डोळ्यात पाणी आणत होती, पण त्याचवेळी त्याची आठवण गुदगुल्या करत होती. त्याची नजर त्याच्याकडे येण्यासाठी खुणावत होती..

क्रमशः – 1

© सौ अंजली दिलीप गोखले 

मोबाईल नंबर 9272496385/8482939011

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ नवरात्र आणि रत्नागिरीच्या किल्ल्यावरील भगवती देवी… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

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☆ नवरात्र आणि रत्नागिरीच्या किल्ल्यावरील भगवती देवी… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

बालपणीच्या काही आठवणी या कायमच्या मनामध्ये रुतून राहतात. आज पेठ किल्ल्यावरील भगवती मंदिराचा फोटो पाहिला आणि रत्नागिरीच्या आठवणी जाग्या झाल्या. नवरात्र सुरू झाले की हमखास भगवती देवीची यात्रा आठवते. या देवीचे मंदिर ज्या किल्ल्यावर आहे. त्याचे  ऐतिहासिक नाव जरी ‘रत्नदुर्ग’ असले तरी आमच्या लेखी तो ‘पेठ किल्ला’ आहे. एरवी शांत निवांत असलेल्या त्या किल्ल्यावर वर्दळ दिसे ती नवरात्रातच! त्या किल्ल्याच्या एका टोकावर दीपग्रह होते.तिथून समुद्राचे दर्शन होई.समुद्रातील दीपग्रह, त्यावरील पडाव, मोठ्या बोटी आणि निळा आसमंत पाहताना खूपच छान वाटत असे. किल्ल्याच्या दुसऱ्या टोकावर भगवती देवीचे मंदिर होते. या ठिकाणी यात्रेनिमित्त लहानपणी जाणे होत असे.

गाभूळलेल्या चिंचेसारख्या आंबट गोड आठवणी ! शाळेत असताना नवरात्रात भगवतीच्या यात्रेला जाणे हा एक कार्यक्रम असे. पूर्वी वाहने कमी होती आणि रस्ता ही साधा होता. किल्ल्यावर चढून जायचे म्हणजे बराच वेळ लागत असे. नवरात्रात सकाळी लवकर उठून घरातील मोठ्या मंडळींबरोबर चालत जाऊन भगवती देवीचे दर्शन आणि तेथील जत्रा अनुभवात होतो. जरा मोठे झाल्यावर मैत्रिणींबरोबर जाण्यात अधिक मजा येई. जाताना वाटेत काकड्या घेणे, कोरडी भेळ घेणे आणि गप्पा मारत हसत खेळत किल्ला चढणे अशी मजा असे.

त्यावेळची एक आठवण म्हणजे बुढ्ढी के बाल ! गुलाबी रंगाचे ‘बुढ्ढी के बाल’ एका मोठ्या काचेच्या पेटीत घेऊन तो बुढ्ढी के बाल वाला फिरत असे, पण घरचे लोक ते चांगले नसते म्हणून घेऊ देत नसत आणि ते देत नसत म्हणून जास्त अप्रूप वाटत असे. किल्ल्यावर एक सिनेमावाला चौकोनी खोके समोर घेऊन उभा असे आणि तो सिनेमातील काही फिल्म दाखवत फिरत असे. अर्थात तिथेही आम्ही कधी गेलो नाही ! आम्ही फक्त मंदिरात दर्शन आणि भेळेची गाडी या दोनच गोष्टी पाहिल्या होत्या.

किल्ला चढताना वाटेत भागेश्वराचे मंदिर होते. त्याचा जिर्णोद्धार भागोजी कीर यांनी केला होता. थांबण्याचा पहिला टप्पा तिथेच असे. ते मंदिर आधुनिक पद्धतीने छान बांधलेले होते. तिथून पुढे मोठा चढ चढून देवीच्या मंदिरापर्यंत जाता येई. रत्नदुर्ग किल्ल्याला ऐतिहासिक महत्त्व होते. पण गावापासून लांब असल्याने फक्त नवरात्रातच आवर्जून जाणे होई. पावसाचे चार महिने संपल्यावर सगळीकडे भरभरून हिरवागार निसर्ग दिसत असे. जांभळी पिवळी रान फुले किल्ल्यावर पसरलेली दिसत. सूर्याची किरणे अजून तरी तापायला लागलेली नसत. त्यातच तिथल्या पावसाची एक गंमत असे. नवरात्राच्या पहिल्या एक-दोन दिवसात पाऊस पडला की तो माळेत सापडला असेच म्हणत. त्यामुळे नऊ दिवस आता रोज थोडा तरी पाऊस पडणारच असे म्हटले जाई. अर्थात पाऊस आता बेभरवशाचा झाला आहे. तो कधी कुठे येईल सांगता येत नाही. आम्हाला अर्थातच त्या रिमझिम  पावसात भिजायला आवडत असे. किल्ल्यावर जत्रेमध्ये हौशे,नवसे आणि गवसे असे सगळ्या प्रकारचे लोक भगवतीला येत असत. गावची जत्रा असल्यामुळे खेळण्याचे स्टॉल्स, खाऊची दुकानं, नारळ, उदबत्ती, बत्तासे, साखरफुटाणे, यांची दुकाने अशी अनेक प्रकारची तात्पुरती दुकाने असत.

आम्ही जत्रेत फिरून थोडाफार खाऊ घेत असू.  बरोबर आणलेले डबे खाल्ले जात ! बाहेर विकत घेऊन खाण्याचे ते दिवस नव्हते. सातव्या माळेच्या जत्रेचे विशेष महत्त्व असे. त्यादिवशी शाळा लवकर सुटायची, तोच मोठा आनंद असे. पुढे कॉलेजला गेल्यावर आनंदाचे विषय बदलले. किल्ल्यावर जाता येताना पिपाण्या वाजवणे, टिकटिकी घेणे, फुगे घेणे, दंगा करणे, यासारखे तरुणाईचे उद्योग चालू असत ! तेव्हा ती पण एक मोठी मजा होती. आज भगवती मंदिराचा फोटो व्हाट्सअप वर पाहिला आणि पुन्हा एकदा त्या जत्रेतील पाळण्यातून वर- खाली वेगाने माझे मन भूतकाळात फिरून आले.

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ रोज थोडाथोडा मरतोय – कवयित्री : सुश्री रश्मी  त्रिवेदी – मुक्तानुवाद :श्री सॅबी परेरा ☆ प्रस्तुति – सुश्री दीप्ती गौतम ☆

? वाचताना वेचलेले ?

☆ रोज थोडाथोडा मरतोय – कवयित्री : सुश्री रश्मी  त्रिवेदी – मुक्तानुवाद :श्री सॅबी परेरा ☆ प्रस्तुति – सुश्री दीप्ती गौतम ☆

मी कधी कधी अंधाऱ्या रात्री

माझ्या अंतरात्म्याच्या नाकासमोर सूत धरतो

आणि खात्री करतो त्याचा श्वासोच्छवास सुरु असल्याची

कारण मला शंका आहे की . .

तो रोज थोडाथोडा मरू लागलाय

 

तारांकित हॉटेलात मी जेवणाचं बिल भरतो

मला दिसतो जवळच उभा असलेला द्वारपाल

त्याचा महिन्याचा पगार या बिलाइतका तरी असेल काय?

कॉलरवर बसलेल्या नाकतोड्यासारखा,

हा विचार मी बोटाच्या टिचकीने झटकतो

माझा अंतरात्मा तेव्हा किंचितसा मरतो

 

मी रस्त्याकडेच्या भाजीवालीकडून भाजी घेतो

तिचा मुलगा छोटू, कांदे निवडून देतो

छोटू शाळेत का जात नसेल?

फुकट घेतलेल्या कढीपत्त्या बरोबर

हा प्रश्नही मी पिशवीतल्या भाजीखाली कोंबतो

माझा अंतरात्मा तेव्हा किंचितसा मरतो

 

डिझायनर कपडे चढवून मी गाडीतून जात असतो

बसल्या बसल्या गुटखा खात असतो

सिग्नलवर मळक्या, फाटक्या वस्त्रातली भिकारीण दिसते

थुकण्यासाठी खाली केलेल्या काचेतून ती हात पुढे करते

खिशात चिल्लर न सापडल्याने मी गाडीची काच वर करतो

माझा अंतरात्मा तेव्हा किंचितसा मरतो

 

मी मुलींसाठी महागडी खेळणी घेऊन येत असतो

खपाटीला गेलेल्या पोटाचा अन मलूल चेहऱ्याचा

एक पोरगा रस्त्यात खेळणी विकताना दिसतो

सद्सदविवेकाच्या टोचणीपायी

एक खेळणे त्याच्याकडूनही घेतले जाते, तरीही ..

माझा अंतरात्मा तेव्हा किंचितसा मरतो

 

मोलकरणीच्या ऐवजी एक दिवस तिची शाळकरी मुलगी येते

माझ्या घरच्या कामासाठी तिने शाळा बुडविलेली असते

तिला शाळेत पाठवावं असं क्षणभर माझ्या मनात येते

मग मला उष्ट्या भांड्यांनी भरलेलं सिंक दिसतं

एकदोन दिवसाचा तर मामला आहे, मी मलाच समजावतो

माझा अंतरात्मा तेव्हा किंचितसा मरतो

 

रोज सकाळी एखादी ब्रेकिंग न्यूज येते

अल्पवयीन मुलीवरील बलात्काराची किंवा हत्येची

वाईट वाटते खूप, तरीही मी देवाचे आभार मानतो

कि ती अभागी अत्याचारग्रस्त,

माझी मुलगी नाहीये

आरशामध्ये स्वतःच्या नजरेला नजर द्यायलाही मी घाबरतो

माझा अंतरात्मा तेव्हा किंचितसा मरतो

 

जातीपातीवरून, आरक्षणावरून होणारे झगडे रोजचेच

अधूनमधून होणाऱ्या दंगलींनी मी अस्वस्थ होतो

कुठे नेऊन ठेवलाय देश माझा?

मी उद्वेगाने म्हणतो

सर्व दोष राजकारण्यांवर टाकून, हात झटकून मी मोकळा होतो

माझा अंतरात्मा तेव्हा किंचितसा मरतो

 

प्रदूषित हवा शहराचा गळा घोटत असताना

विकासाचा भार शहराला सोसत नसताना

मी रोज कार घेऊन ऑफिसला जातो

बस, ट्रेन, मेट्रो, कारपूल हे पर्याय असतीलही कदाचित,

एका कारने काय फरक पडतो असा विचार मी करतो

माझा अंतरात्मा तेव्हा किंचितसा मरतो

 

किट्ट काळोख्या रात्री जेव्हा मी

माझ्या अंतरात्म्याच्या नाकासमोर सूत धरतो

त्याचा श्वासोच्छवास सुरु पाहून मलाच आश्चर्य वाटतं

 

मग मी नव्याने, स्वतःच्या हाताने, नवनव्या मार्गाने

त्याला रोज थोडंथोडं मारू लागतो, पुरु लागतो

मूळ इंग्रजी कविता : It dies a little.

कवयित्री : सुश्री रश्मी  त्रिवेदी

मुक्तानुवाद :श्री सॅबी परेरा

संग्राहिका : सुश्री दीप्ती गौतम

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 108 – सुमित्र के दोहे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके सुमित्र के दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 108 – सुमित्र के दोहे  ✍

 

हे ! चेतन हे! ज्योतिर्मय, परम शक्ति के रूप ।

कितनी संज्ञा,विशेषण, कितने विविध स्वरूप।।

*

राम रूप में पधारे, कृष्ण रूप अवतार ।

राधा, मीरा, जानकी, रूपों का विस्तार।।

*

कठिन ज्ञान की साधना, निर्गुण का संधान ।

रूप लुभाता ह्रदय को , करुणा कृपा निधान।।

*

राघव माधव तुम्हीं हो, सृष्टि चेतना केंद्र ।

तुम ही विराजे प्रलय में, करुणा जगत गजेंद्र।।

*

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 110 – “इस अतृप्ति के महासमर में…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत –इस अतृप्ति के महासमर।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 110 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “इस अतृप्ति के महासमर के” || ☆

सभी सदस्यों को इस घर के

बोझ पिता जी थे

मन बहलाने को बच्चों का-

रोज, पिता जी थे i

 

सब के तानों का हुजूम

उन पर टूटा करता

सदा ठीकरा अगर बुरा

उन पर फूटा करता

 

अपनी आँखों में उदासियाँ

और हँसी मुख पर

इस घर की सारी खुशियों

की खोज पिता जी थे

 

बाहर के कमरे में लेटे

रहते खटिया पर

दरवाजे, चबूतरे के

पत्थर के पटिया पर

 

रहें खाँसते भोजन की

अनवरत प्रतीक्षा में

इस अतृप्ति के महासमर

के भोज पिता जी थे

 

चौथा चरण डसे जाता

सम्मान प्रतिष्ठा को

किन्तु कभी कम नहीं किया

घर के प्रति निष्ठा को

 

और सूर्य सा आभा-मंडल

थे बिखेर देते

पूरे घर की गरिमाओं का

ओज पिता जी थे

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

29-09-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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