हिंदी साहित्य – कथा-कहानी ☆ अतीत की खिड़की से रुपहली धूप – भाग – 1 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।)

☆ कथा-कहानी ☆ अतीत की खिड़की से रुपहली धूप – भाग – 1 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

आखिर मौका मिल ही गया। घर में और कोई नहीं था। दोपहर के भोजन के बाद सास ससुर अपनी भतीजी को एम0 ए0 पास करने की बधाई देने चाचाजी के घर गये हुए हैं। बच्चों को स्कूल से लौटने में अभी देर है। मौका देख कर दोनों बहुओं ने माताजी की ड्रेसिंग टेबुलवाली अल्मारी खोली। ननद चाँदनी भी मैके आयी हुई हैं। कहती रह गयी, ‘‘भाभी, यह ठीक नहीं कर रही हो -। छिः!’’

‘‘इसमें छिः करने का क्या है ?’’ बड़ी भौजाई पूर्णिमा मुस्कराने लगी।

‘‘अम्माजी की चिठ्ठिओं को तुम लोग पढ़ोगी?’’ चाँदनी असमंजस में है कि इस षडयंत्र में उसे भागीदार बनना चाहिए या नहीं!

छोटी अनामिका कुछ मुँहफट है, ‘‘देखें तो सही – उस जमाने की स्टाइल क्या थी। बाबूजी चिठ्ठी की शुरुआत में अम्माजी को कौन सा सम्बोधन करते थे! और चिठ्ठी के अंत में -’’

‘‘छिः! भाभी!’’चाँदनी लाल हो गई।

‘‘तू तो ऐसे शर्मा रही है, जैसे खाली गंगा नहाने से ही तू और तेरे भाई अम्माजी के पेट में आ गये थे -’’। छोटी के मुँह में कुछ नहीं अटकता।

‘‘जाओ। मैं कुछ नहीं जानती। मरे। दोनों जने मिलकर।’’ ननद भागी। मगर फिर दरवाजे से झाँक कर देखने लगी ……

आखिर अल्मारी के भीतर – माँ की दीवाली बनारसी जो एक एक परत से फटने लगी थी – उसके नीचे पीतल के पान के डब्बे के अंदर मिल गया वह गुप्तधन!

‘‘हाय रे दइया! देखें देखें!’’ छोटी ऐसे उछली कि अल्मारी के खुले हुए पल्ले से पैर पर चोट लग गयी -‘‘उफ्!’’

‘‘पाप का फल हाथों हाथ! शर्म नहीं आती सास ससुर की चिठ्ठी पढ़ते हुए ?’’ चाँदनी फिर भाभिओं के पास फर्श पर बैठ गयी।

दो रंगीन रेशमी रुमालों में लपेटे हुए चिठ्ठिओं की दो गड्डियाँ। एक जो हृदय नारायण ने अपनी पत्नी को लिखी थीं। दूसरी वें जिनमें मानिनी ने उनको अपने आवेगों से अभिसिक्त किया था। तो जासूसी शुरू हो गई। पहले – पति का प्रेमपत्र पत्नी के नाम ……

‘‘यह क्या? सिर्फ डैश -! कोई संबोधन नहीं?’’बड़ी ने पहली वाली गड्डी के नीचे से सबसे पहला खत निकाला।

‘‘न प्रिये, न डार्लिंग। कुछ नहीं?’’अनामिका झुककर देखने लगी।

‘‘उस जमाने में ऐसा ही होता रहा।’’ चाँदनी मानो खुश हो गई।

‘‘तुझे कैसे मालूम? तू क्या साठ साल की नवेली है?’’ बड़ी ने अपनी गोद में बंडिल को सँभालते हुए कहा,‘‘वैसे तेरे वाले तुझको कौन सा संबोधन करते हैं ?’’

‘‘धत्। मैं क्यों बताऊँ ? तुम ही पूछ लेना अपने नंदोई से -’’

‘‘पढ़ो न दीदी। क्या साइगल की फिल्म में तुम हिमेश रेशमिया की बात कर रही हो ?’’

‘‘होली के ठीक पहले तुम चली गयी। जरा रुक जाती तो क्या बिगड़ जाता? भैया (स्साला!) आये और लिवा गये। कुछ तो कह सकती थी। शादी के बाद पहली होली है! यहीं रहना चाहिए था। उस साले से शर्म लग रही थी तो अपनी भाभी से कहना चाहिए था।

‘‘खैर, अब यहाँ मेरी भाभी मुझे रोज ताना मार रही है,-‘बलम गयो कलकत्ता, अब केसे खेलूँ होरी ?’’

इसी तरह नव दंपति की अनर्गल बातें। कुछ दिल की, तो कुछ समस्यायें भी। फिराक साहब की दो एक पंक्तियाँ। और अन्त में –

‘‘जाते समय मैके के नाम पर तुम इतनी खुश थी कि मुझे गुस्सा आ रहा था। सोचा था कमरे से सूटकेश उठाने के पहले तुम्हे दोनों बाहों में भींच कर एक जोरदार – वो ले लूँ। मगर तुम तो माँ और भाभी को प्रणाम करने के लिए रसोई में जा खड़ी रही।’’

‘‘तो बाबूजी ने चिठ्ठी में कुछ दिया कि नहीं? ’’अनामिका झाँक कर पढ़ने गयी, तो पूर्णिमा के सिर से उसका सर टकरा गया,‘‘उई माँ !’’

‘‘अच्छा हुआ। जैसा पाप वैसा ताप!’’ चाँदनी दोनों भाभिओं को उलाहना देने लगी।

अनामिका ने पूर्णिमा के हाथ से चिठ्ठी छीन ली,‘‘छिः! नाटक का अंत ऐसा ? यह वह कुछ नहीं। सिर्फ डैश और नीचे तुम्हारा -’’

‘‘तुम्हारा क्या ?’’

‘‘दिल का राजा! हृदयेश्वर!’’

‘‘ऐ भाभी, ससुर का नाम ले रही हो ?’’

‘‘नाम कहाँ लिया ? नारायण थोड़े ही कहा। मैं ने तो सिर्फ हृदयेश्वर कहा। क्यों?’’

‘‘अम्माजी ने इसका जबाब क्या भेजा ?’’

उनकी चिठ्ठिओं की बंडल के नीचे से पूर्णिमा ने मानिनी की पहली चिठ्ठी निकाल ली, ‘‘चालीस साल हो गये – कितने करीने से इन चिठ्ठिओं को सॅँभाल कर रक्खा है’’

‘‘इनके बेटों को कुछ सीखना चाहिए। मैके जाओ तो पूछते तक नहीं। एकबार फोन क्या कर लिया, बस।’’    

‘‘आपकी चिठ्ठी मिली। चरणस्पर्श -।’’हाय रे दइया!’’ मानो अनामिका की चाय में मक्खी पड़ गई। ‘‘उस जमाने में तो गाने होते थे -‘‘पहला पहला प्यार है, जिआ बेकरार है। आ जा मोरे बालमा, तेरा इन्तजार है !’’

‘‘अरे मुई! चिठ्ठी के अंत में तो देख। दूसरे पन्ने पर -’’

‘‘अरे बाप रे! ये -?’’

‘‘क्या है भाभी?’ ’चाँदनी के मन में द्वन्द्व। नारी का स्वाभाविक कुतूहल और बेटी के फर्ज में।

पूर्णिमा ने चिठ्ठी के दूसरे पन्ने को दिखाया। आखिरी हिस्से में  – सुन्दर से होंठ के निशान। धनुष की तरह।

‘‘यानी अम्माँजी ने होठों पर लिपस्टिक लगाकर – ’’अनामिका ने ऑँचल से मुँह ढक लिया।

‘‘छिः! चुड़ैल कहीं की! तुम लोग यह क्या कर रही हो ?’’चाँदनी ने छोटकी की पीठ पर एक मुक्का जड़ दिया।

पूर्णिमा ने हॅँसते हुए पढ़ा, नीचे लिखा है -‘‘ आपने जो कहा था – बाकी रह गया। अब इसीसे जितनी बार चाहे ……..’’

ऐसी ही चिठ्ठियॉँ …….इसी तरह अतीत की खिड़किआँ खुलती रहीं …..और ये तीनों – ननद और देवरानियाँ – अपनी अपनी मुठ्ठि्ओं में उजली धूप को उठा कर – हॅँसी ठिठोली करती हुई – एक दूसरे पर लुटाती रहीं …

क्रमशः …

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी

नया पता: द्वारा, डा. अलोक कुमार मुखर्जी, 104/93, विजय पथ, मानसरोवर। जयपुर। राजस्थान। 302020

मो: 9455168359, 9140214489

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 111 ☆ लघुकथा – लड़कियां खेलती क्यों नहीं दिखतीं ? ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक लघुकथा लड़कियां खेलती क्यों नहीं दिखतीं ?। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 111 ☆

☆ लघुकथा – लड़कियां खेलती क्यों नहीं दिखतीं ? ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

रविवार के दिन उसने साइकिल निकाली और चल पड़ा स्टेडियम की ओर। फुरसत की सुबह उसे अच्छी लगती है, हर दिन से कुछ अलहदा। ‘आज मनीष को भी साथ ले चलता हूँ’- उसने सोचा। वह तो अब तक बिस्तर में ही अलसाया पड़ा होगा। उसने आवाज लगाई – मनीष! जल्दी आ नीचे, स्टेडियम चलते हैं।

‘अरे नहीं यार! संडे की सुबह कोई ऐसे खराब करता है क्या?‘ मनीष ने बालकनी में आकर अलसाए स्वर में कहा।

तू नीचे आ जल्दी, आज तुझे लेकर ही मैं जाऊँगा। रुका हूँ तेरे लिए।

आता हूँ यार! तू कहाँ पीछा छोड़ने वाला है।

‘अरे! यहाँ तो  बहुत लोग आते हैं’ – स्टेडियम  में जॉगिंग करने और टहलने वालों की भीड़ देखकर मनीष बोला।

सब तेरी तरह आलसी थोड़े ही ना हैं। हर उम्र के लोग दिखाई देंगे तुझे यहाँ। बहुत अच्छा लगता है मुझे यहाँ आकर। ऐसा लगता है कि सब कुछ जीवंत हो गया है। लडकों को क्रिकेट खेलते देखकर अपना समय याद आ  जाता है। मजे थे यार! उस उम्र के,  साइकिल उठाई और चल दिए स्टेडियम में या कभी घर के पास वाले मैदान में क्रिकेट खेलने के लिए – वह तेज गति से चलता हुआ बोलता जा रहा था।

मनीष मानों कहीं और खोया था, उसकी नजर स्टेडियम की भीड़ को नाप – जोख रही थी। कहीं लड़के क्रिकेट खेल रहे थे तो कहीं फुटबॉल। उन्हें देखकर वह कुछ गंभीर स्वर में बोला – ‘कितने लड़के  खेल रहे हैं ना यहाँ?‘

‘हाँ, हमेशा ही खेलते हैं, इसमें कौन सी नई बात है?’ 

‘हाँ, पर लड़कियां खेलती हुई क्यों नहीं दिखाई दे रहीं? रविवार की सुबह है फिर भी?’

उसकी नजर पूरे स्टेडियम का चक्कर लगाकर खाली हाथ लौट आई।

©डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – स्रष्टा- ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

हम श्रावणपूर्व 15 दिवस की महादेव साधना करेंगे। महादेव साधना महाशिवरात्रि तदनुसार 18 फरवरी तक सम्पन्न होगी।

💥 इस साधना में ॐ नमः शिवाय का मालाजप होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ भी करेंगे 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – स्रष्टा-  ??

“विचित्र अवस्था हो गई है मेरी। हर कोई दिगम्बर दिखाई देने लगा है। हरेक अपनी प्राकृतिक अवस्था में। किसी तरह का कोई आवरण नहीं”, साधक ने अपनी समस्या और जिज्ञासा एकसाथ रखीं।

…” जो आवरण तक रहा, उसे हरि कब दिखा? अब इस निरावरण प्रकृति को यों देख, जैसे माँ, संतान को देखती है। अपलक निहार ममता से। स्थूल में सूक्ष्म देखने लगा है तू।..सृष्टि से स्रष्टा होने की यात्रा पर है तू…” कहकर गुरुजी ने शिष्य को गले से लगा लिया।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – झाड़ू झाड़ू मारूंगी ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।  आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं। आज प्रस्तुत है आपकी कोरोना महामारी के समय की एक लघुकथा ‘‘झाड़ू झाड़ू मारूंगी )

☆ लघुकथा – झाड़ू झाड़ू मारूंगी ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल 

(संदर्भ-कोरोना)

‘बचाओ-बचाओ, मुझे कोरोना से बचाओ अर्ध रात्रि में सोनू डर से भयभीत होकर बुरी तरह चीख रहा था।

दादी अम्मा अपने पलंग से गिरती पड़ती सोनू के कमरे की ओर दौड़ पड़ी। कोरोना के डर से सोनू काफी डरा सहमा सा था। वह  सपने में डर से जोर-जोर से चिल्ला रहा था।

– मुझे कोरोना डायनासोर बनकर अपने पंजों में जकड़ कर पहाड़ी की ओर उड़ रहा है।

उधर सोनू के दादाजी हांफते हुए कहते हैं – भाग्यवान, लड़का बहू के आने तक मेरा राम नाम सत्य हो गया तो!

एक अकेली दादी और उनके हिस्से में हलाकान करने वाले दादा पोता, वह स्वयं बुरे बुरे सपनों से भयभीत है। उन्हें लाशें ही लाशें दिखाई देती हैं। कुत्ते, गिद्ध लाशें नोच कर खाते दिखाई देते हैं। घर-घर में लाशें बिछी है, उन्हें मरघट तक ले जाने वाले नहीं हैं।

दरवाजे खुले पड़े हैं, पर उन्हें ताले लगाने वाली नहीं है। सुबह-सुबह आने वाले यह सपने सच हो गए तो!

लड़का बहू किसी दूसरे शहर में फंसे हुए हैं, उनके आने तक दोनों वृद्ध कोरोना से चल बसे तो! तो के आगे दादी सोच नहीं पाती है।

सोनू अभी बच्चा ही है, गहरे सदमे का शिकार हो गया तो!

यह ‘तो’ दादी माँ के दिमाग की खिड़की पर हथौड़ी से ठकठकाता रहता है। इस भीषण त्रासदी में उन्हें दूर-दूर तक मदद करने वाला कोई भी दिखाई नहीं देता है। कैसा समय है यह?

पूरी दुनिया मौत के बढ़ते आंकड़े से भयभीत है। इसका कोई तोड़ नहीं है रे। ससुरा कोरोना मुझे मिल जाए तो झाड़ू झाड़ू मारूंगी।

दस मारूंगी फिर एक गिनूंगी। नासपीटा कहीं का, मुंह जला कहीं का।

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ वेलेन्टाइन डे विशेष – लघुकथा – तेरी-मेरी कहानी ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ वेलेन्टाइन डे विशेष – लघुकथा – तेरी-मेरी कहानी ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

(बीते कल के वेलेंटाइन डे की अप्रतिम लघुकथा)  

“हैप्पी वेलेन्टाइन डे, माय डियर,एंड आय लव यू।” कहते हुए सुनील ने एक रेडरोज अपनी पत्नी रत्ना के हाथ में दे दिया। 

“आय लव यू टू, माय लाइफ।” कहते हुए रत्ना ने अपनी खुशी व्यक्त की। 

 इस पर दोनों ठीक चार दशक पहले की कॉलेज की यादों में खो गए। 

“सुनील जी! क्या आपके पास यूरोपियन हिस्ट्री की बुक है?”

“हां! जी है।”

“मुझे कुछ दिन को देंगे, क्या?”

“जी ज़रूर।”

और सुनील ने यूरोपियन हिस्ट्री की किताब एम ए प्रीवियस की उसकी क्लास में आई नवप्रवेशित सुंदर,आकर्षक और शालीन लड़की रत्ना को दे दी।

फिर रत्ना ने नोट्स बनाने में सुनील की मदद की। सहपाठी तो वे थे ही,आपस में दोनों का मेलजोल बढ़ता गया। 

कक्षा में दोनों ही सबसे होशियार थे, इसलिए दोनों के बीच स्पर्धा भी थी, पर पूरी तरह स्वस्थ। धीरे-धीरे दोनों एक-दूसरे के दिल में समाते गए। रिजल्ट आया तो दोनों के ही नाम यूनीवर्सिटी की मेरिट लिस्ट में थे। 

और आज दोनों एक-दूसरे के जीवन की मेरिट लिस्ट में भी हैं।

अचानक उनकी तंद्रा टूटी, वे वर्तमान में वापस लौट आये, और एक-दूसरे की ओर देखकर मुस्कराने लगे। सुनील ने कहा, “तुम्हारी-मेरी कहानी भी ख़ूब है, डियर।”

“हां! है तो माय हार्ट।” रत्ना ने शरारती अंदाज़ में कहा।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – “कायर” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

श्री कमलेश भारतीय जी की लघुकथा “कायर” को सुप्रसिद्ध अभिनेता आदरणीय श्री राजेंद्र  गुप्ता जी के प्रभावशाली एवं ओजस्वी स्वर में सुनने के लिए कृपया निम्न लिंक पर क्लिक कीजिये 👇🏻

  ☆ कथा–कहानी ☆ लघुकथा – “कायर” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

प्रेम के दिनों में एक रंग यह भी…

सहेलियां दुल्हन को सजाने संवारने में मग्न थीं। कोई चिबुक उठा कर देखती तो कोई हथेलियों में रचाई मेंहदी निहारने लगती। कोई आंखों में काजल डालती और कोई

ठोडी उठा कर तारीफ कर गयी और एक कलाकृति को रूप दर्प देकर सभी बाहर निकल गयीं। बारात आ पहुंची थी।

तभी राजीव आ गया। थका टूटा। विवाह में जितना सहयोग उसका था, उतना सगे भाइयों का भी नहीं। वह उसके सामने बैठ गया। चुप। मानों शब्द अपने अर्थ  खो चुके हों और भाषा निरर्थक लगने लगी हो।

– अब तो जा रही हो, आनंदी ?

– हूँ।

– एक बात बताएगी?

– हूँ।

–  लोग तो  यह  समझते हैं कि हम भाई-बहन हैं।

– हूँ।

– पर तुम तो जानती हो, अच्छी  तरह समझती रही हो कि मैं तुमहें बिल्कुल ऐसी हीइसी रूप में पाने की चाह रखता हूँ?

– हूँ।

– पर क्या तुमने कभी,  किसी एक क्षण भी मुझे भी उस रूप में देखा  है?

– लाल जोडे में से लाल लाल आंखें घूरने लगीं जैसे मांद में कोई शेरनी तडप उठी हो।

– चाहा था पर तुम कायर निकले। मैं चुप रही कि तुम शुरूआत करोगे। तुम्हें भाई कह कर मैंने जानना चाहा कि तुम मुझे  किस रूप में चाहते हो पर तुमने भाई बनना ही स्वीकार कर लिया । और आज तक दूसरों को कम खुद को  अधिक धोखा देते रहे। सारी दुनिया, मेरे  मां  बाप तुम्हारी   प्रशंसा  करते  नहीं थकते पर मैं थूकती हूँ तुम्हारे  पौरुष पर जाओ कोई  और बहन ढूंढो।

वह भीगी बिल्ली बना बाहर निकल आया।

बाद में कमरा काफी देर तक सिसकता रहा।

यह लघुकथा मेरे मित्र  रमेश बत्रा को  प्रिय थी।

रमेश  ने  इसे निर्झर के  लघुकथा विशेषांक व सारिका में प्रकाशित किया। आज उसे भी याद कर लिया।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ वैलेंटाइन डे विशेष – “एक-दूजे के लिए” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल☆

श्री घनश्याम अग्रवाल

(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है आपकी एक लघुकथा   – “एक- दूजे के लिए”)

☆ लघुकथा ☆ वैलेंटाइन डे विशेष “एक- दूजे के लिए” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆

🌹 मुहब्बत ताजमहल की मोहताज नहीं होती 🌹

जब भी, जिसे भी, जैसा भी  प्यार करो, आपके लिए वही “वैलेंटाइन डे” है। भरोसा नहीं हो तो पढ़िए, ये लघुकथा…

भूख, गरीबी,  बेकारी और झोंपडपट्टी के बीच घिरी होने पर भी निसार और शब्बो की मुहब्बत  बड़ी अमीर थी। अनपढ़ निसार रोज काम की तलाश में भटकता रहता। मिला तो कुछ खा-पीकर मुहब्बत की बातें करते और सो जाते, नहीं मिला तो सिर्फ बातें करते और भूखे ही सो जाते। 

आज शब्बों की सालगिरह है, कुछ मिल जाए तो वह शब्बो के लिए मिठाई ले जाएगा। निसार यही सोचता  भटकता रहा। उसे काम तो नहीं,  पर रमदू मिल गया। पूछने पर रमदू ने बताया कि -” जब उसे काम नहीं  मिलता और पैसे की जरूरत होती है तो वह अपना  एक शीशी खून बेच देता है। अरे, कुएँ में जिस तरह पानी आता रहता है न, डाॅक्टर बोलते हैं कि आदमी के जिस्म में खून भी वैसे ही बनता रहता है। “

रमदू के साथ जब वह डिस्पेंसरी से निकला तो उसकी जेब में तीन सौ रूपये थे। उसने पचास रुपयों की मिठाई खरीदी, खून देने की कमजोरी शब्बों की सालगिरह के उत्सव में दब गई। मिठाई का टुकड़ा शब्बो की ओर बढ़ाते हुए बोला-” सालगिरह मुबारक  हो।” दूसरे ही पल शब्बो उसकी  बाँहों में थी।

“आज का दिन कितना मुबारक है, देखो मुझे कितना काम मिल गया।”

निसार की बातें सुन शब्बो महसूस करने लगी कि इस सालगिरह पर वह एक साल छोटी हो गई। निसार की बाँहों का कसाव बढ़ने लगा। और साँसों की गर्माहट भी।

अब जब भी जरूरत होती,  निसार अपना खून बेचकर पैसे ले आता। धीरे-धीरे शब्बो महसूस करने लगी कि निसार की बाँहों में अब न पहले जैसा कसाव है और न ही साँसों में गर्माहट।  इस बार तो उसे निसार की बाँहें काफी बेजान-सी लगीं । एक लम्हे के लिए वह डर ही गई। इसके पहले कि वह सँभलती, निसार वही चक्कर खाकर गिर गया। वह जोर से चीख पड़ी। आसपास के दो- चार लोग जमा हो गए। बेहोश निसार को पास के अस्पताल ले गए। डाॅक्टर ने एक नजर निसार के पीले चेहरे पर डाल गुस्से से कहा “खून बेचते हो न ?”

निसार को अब तक कुछ होश आ चुका था। उसने स्वीकृति में अपनी गर्दन हिलाई। ” जानते हो खून कितना कीमती होता  है। खून देने के भी अपने कुछ नियम होते हैं। इस तरह खून बेचते रहोगे तो…एक दिन…”

” नहीं-नहीं- डाक्टर साब, इन्हें बचा लीजिए, ” करीब-करीब उसके पैरों पर झुकते  हुए , रूआँसी आवाज में शब्बो बोली।

” घबराओ  मत, एक महीने तक इलाज कराते रहे तो ये बिलकुल ठीक हो जाएँगे। ” नरम  स्वर में  डाॅक्टर ने कहा।

शब्बो के साथ घर लौटकर निसार फटी-फटी  आँखों से देखता रहा, फिर बोला-”  मुझे खैराती अस्पताल ले जाती। एक महीने के इलाज के लिए  कहाँ से आएगा पैसा ? और ये बता, अभी ये दवा और फीस के पैसे कहाँ से लाई ? “

” मुझे काम मिल गया था। “

” काम, कैसा काम ? “

” देखो, वो अपना ठेले वाले सिन्धी था न, जब वह नहीं  रहा तो  उसकी बीबी ठेले पर वही सामान बेचने लगी। और वो चौथी झोंपड़ी के रहीम पर जब फालिज पड़ा तो अब उसकी बीबी उसकी जगह कारखाने जाती है। अब, जब तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं,  तो क्या मैं नही जा सकती  रमदू के  साथ ? “

” तो तुम खून बेचकर पैसा लाई हो ? नहीं-नहीं, तुमने सुना नहीं डाॅक्टर क्या कह रहा था ?  खून बड़ी कीमती चीज है, उसे यूँ नहीं बेचना चाहिए। मैं मरता हूँ तो मरने दे। ” निसार कुछ तेज स्वर में बोला।

” मगर उसने ये भी तो कहा कि एक महीने में तुम बिलकुल ठीक हो जाओगे । “

” हाँ,  मैं  एक महीने में अच्छा हो जाऊँगा, मगर तब तक तुम्हारा क्या होगा ? एक महीने बाद तुम्हारी क्या  हालत हो जायेगी  ? तब…? “

” तब तुम मुझे बचा लेना । अगले महीने मैं तुम्हें बचा लूँगी। “

” फिर तुम मुझे,  फिर मैं तुम्हें ….”

” फिर तुम, फिर मैं….”

”  फिर …” निसार और शब्बो की आँखें भीग गई। वहीं किसी झोंपड़ी में गीत बज रहा था, ‘ हम बने,  तुम बने एक-दूजे के लिए ….’

और शब्बो अपनी भीगी आँखों से फक् से हँसती हुई निसार की बाँहों में समा गई। शब्बो महसूस करने लगी कि निसार की बाँहों का कसाव बढ़ता जा रहा है। साँसों की गर्माहट भी।

© श्री घनश्याम अग्रवाल

(हास्य-व्यंग्य कवि)

094228 60199

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 151 – वेलेंटाइन तोहफा ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय एवं स्त्री विमर्श पर आधारित एक हृदयस्पर्शी एवं भावप्रवण लघुकथा वेलेंटाइन तोहफा”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 151 ☆

🌹 लघुकथा 🌹 वेलेंटाइन डे विशेष – वेलेंटाइन तोहफा ❤️

मालती इस दिन को कैसे भूल सकती है। आज वह अपना 25वां जन्मदिन मना रही है। आज ही के दिन किसी ने गुलाब से भरी टोकरी में मालती को लिटा कर अनाथ आश्रम के द्वार पर रख कर चला गया था।

धीरे-धीरे मालती बड़ी हुई। अपने रूप गुण और सरल स्वभाव के कारण सभी की आंखों का तारा बन चुकी थी। अनाथ आश्रम में कई कर्मचारी काम करते थे। सभी मालती को बहुत पसंद करते थे क्योंकि वह बाकी अन्य बच्चों से बिल्कुल अलग थी।

दिन बीतते गए। मालती पढ़ने लिखने में भी बहुत होशियार थी। वहां के एक कर्मचारी को वह बिटिया भा गई थी क्योंकि उसका अपना बेटा भी बहुत ही शांत स्वभाव और होनहार था। पवन मालती के सपने देख रहा था। जब भी उसका आना होता, उसकी सुंदरता उसे आकर्षित करती थी।

उसकी इच्छा को समझ पापा ने कहा… पहले थोड़ा पढ़ लिख जाओ, उसे भी पढ़ने दो और फिर उसकी इच्छा का मान रखो।

मालती इन सब बातों से अनभिज्ञ थी। वहीं पर उसने पढ़ाई कर प्राइवेट कंपनी में जॉब करना शुरू कर दिया। आज जब वह अपने जन्मदिन की खुशियां मना रही थी। दुल्हन की तरह सजी हुई थी। उसने देखा आश्रम गुलाब के फूलों से सजा हुआ है और पास में ही बहुत बड़ी डलिया फूलों से भरी रखी है।

उसकी खुशी का ठिकाना ना रहा। वह अपने जन्मदिन को लेकर मंत्रमुग्ध हुए जा रही थी। उसी समय वह कर्मचारी अपने बेटे और पत्नी परिवार के साथ आया। शहनाई की धुन बजने लगी। मालती ने सोचा हैप्पी बर्थडे की जगह शहनाई क्यों बजाई जा रही है। तभी सुपरवाइजर मैडम ने मालती को हाथों से पकड़ लिया और डलिया पर बिठा दिया। कर्मचारी और उसकी पत्नी और उनके बेटे पवन को देखकर मालती सारा मामला समझ चुकी थी और शर्म से लाल हो गई।

मैडम ने कहा… आज वैलेंटाइन डे पर तुम फूलों के साथ आई थी आज तुम्हें फूलों सहित विदा कर रहे हैं अपने नए जीवन और नए घर पर बड़े प्यार से रहना। यही वैलेंटाइन उपहार है। सभी की आंखें खुशी से नम हो रही थी। आज मालती को अपना घर मिल गया।

कुछ लोग उसे उठा कर चलने लगे मैडम ने कहा… ये तुम्हारा अपना घर है। आते जाते रहना। उसका हाथ पवन के हाथों में देते हुए बोली… आज से इसका ख्याल रखना। सुपरवाइजर मैडम की आंखों में आंसू थे। मालती दोनों अंजलि से फूलों की पंखुड़ियां उछाल रही थी। फूलों की डलिया में बैठ मालती धीरे-धीरे विदा हो रही थी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #179 ☆ कथा-कहानी – पापा का बर्डे ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक हृदयस्पर्शी कहानी पापा का बर्डे । इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 179 ☆

☆ कथा – कहानी ☆ पापा का बर्डे

गोपू की आँख सवेरे ही खुल गयी। पापा और बड़ा भाई अनिल अभी सो रहे थे। मम्मी उठ गयी थीं। आधी आँखें खोल कर थोड़ी देर इधर उधर देखने के बाद उसने उँगलियों पर कुछ हिसाब लगाना और धीरे-धीरे कुछ बोलना शुरू कर दिया। उसकी आवाज़ सुनकर बगल में दूसरे पलंग पर सोये नीरज ने आँखें खोल कर उसे देखा, बोला, ‘चुप रह। सोने दे।’

वह सोने के लिए सिर पर चादर खींचने लगा, लेकिन गोपू ने उसकी चादर अपनी तरफ खींच ली। बोला, ‘पापा उठो, सवेरा हो गया।’

नीरज ने झूठे गुस्से से उसकी तरफ देखा। गोपू उसके अभिनय पर हँस कर बोला, ‘पापा, आज कौन सी डेट है?’

नीरज बोला, ‘ट्वंटी-फस्ट।’

गोपू बोला, ‘ट्वंटी-फिफ्थ को कितने दिन बचे?’

नीरज बोला, ‘चार दिन। मैं जानता हूँ तू क्यों पूछ रहा है। शैतान।’

गोपू ताली बजाकर बोला, ‘अब आपके बर्डे को चार दिन बचे।’

नीरज उठते उठते बोला, ‘चाट गया लड़का। जब देखो तब पापा का बर्डे। इस लड़के को पता नहीं कितना याद रहता है।’

गोपू छत की तरफ देख कर बोला, ‘हम ट्वंटी-फिफ्थ को पापा का बर्डे मनाएंगे।’

आठ दस दिन से गोपू का यही रिकॉर्ड बज रहा है। हर एक-दो दिन में याद कर लेता है कि पापा के बर्डे के कितने दिन बचे हैं। उसे किसी ने बताया भी नहीं। अपने आप ही उसे पापा का बर्डे याद आ गया। पाँच साल का है, लेकिन उसकी याददाश्त ज़बरदस्त है। अपने सब दोस्तों के बर्थडे उसे कंठस्थ हैं।

आज इतवार है, स्कूल की छुट्टी है। इसलिए गोपू को आराम से अपनी योजनाएँ बनाने का मौका मिल रहा है। मम्मी से कहता है, ‘हम पापा के लिए कार्ड बनाएँगे। मम्मी, मैं नीरू दीदी के घर जाऊँगा। वे खूब अच्छा कार्ड बनाती हैं।’

दिव्या उसकी बात सुनकर कहती है, ‘हाँ, चले जाना। पापा के बर्थडे की सबसे ज्यादा फिक्र तुझे ही है।’

गोपू पूछता है, ‘मम्मी, केक मँगाओगी?’

दिव्या कहती है, ‘केक बच्चों के बर्थडे में कटता है। बड़ों के बर्थडे में ‘हैप्पी बर्थडे टु यू’ कौन गायेगा?’

गोपू मुट्ठी उठा कर कहता है, ‘मैं गाऊँगा। आप केक तो मँगाना। केक के बिना मजा नहीं आएगा।’

उसकी भोली बातें सुनकर नीरज की समझ में नहीं आता कि वह क्या करे। बच्चों को समझाया भी नहीं जा सकता। चार-पाँच दिन से उसका मन किसी भी काम में नहीं लगता। पाँच दिन पहले उसकी कंपनी ने उससे इस्तीफा ले लिया है। पाँच दिन से वह सड़क पर है। बारह साल की नौकरी पाँच मिनट में खत्म हो गयी। कंपनी अपने निर्णय का कारण बताना ज़रूरी नहीं समझती। गुपचुप कर्मचारियों की सेवाओं की नापतौल होती रहती है, और फिर किसी भी दिन बुलाकर इस्तीफा ले लिया जाता है। इस वजह से कर्मचारी सब दिन सूली पर लटके रहते हैं। इस्तीफा एक कर्मचारी से लिया जाता है, लेकिन चेहरे सबके सफेद पड़ जाते हैं।

अब नीरज के सामने गृहस्थी और बच्चों के भविष्य की चिन्ता है। नौकरी आसानी से मिलती कहाँ है? अब असुरक्षा-बोध और बढ़ गया है। जब बारह साल पुरानी नौकरी नहीं टिकी, तब नयी नौकरी की क्या गारंटी? अब तो हमेशा यही लगेगा जैसे सर पर तलवार लटकी है। उसे सोच कर आश्चर्य होता है कि अधिकारियों के चेहरे एक मिनट में कैसे बदल जाते हैं।

दिव्या को बहुत चिन्ता होती है क्योंकि नौकरी छूटने के बाद से नीरज ज़्यादातर वक्त कमरे में गुमसुम बैठा या लेटा रहता है। लाइट जलाने के लिए मना कर देता है। नौकरी खत्म होने से समाज में आदमी का स्टेटस खत्म हो जाता है। परिचितों की आँखों में सन्देह और अविश्वास तैरने लगता है। जल्दी ही न सँभले तो बाज़ार में साख खत्म हो जाती है। इसीलिए नीरज चोरों की तरह पाँच दिन से घर में बन्द रहता है। किसी का हँसना- बोलना उसे अच्छा नहीं लगता। बच्चों पर भी खीझता रहता है। उसकी मनःस्थिति समझ कर दिव्या का चैन भी हराम है।

लेकिन गोपू को इन सब बातों से क्या लेना देना? उसे तो पापा का बर्डे मनाना है। खूब मस्ती होगी। खाना-पीना होगा।

अगले दिन मम्मी से कहता है, ‘मम्मी, नीरू दीदी के यहाँ कब चलोगी? फिर कार्ड कब बनेगा?’

दिव्या का मन कहीं जाने का नहीं होता। उसे लगता है लोग नीरज की नौकरी को लेकर सवाल पूछेंगे। अब शायद लोग उससे पहले जैसे लिहाज से बात न करें। उसने तो किसी को नहीं बताया, लेकिन बात फैलते कितनी देर लगती है! नीरज के कंपनी के साथी तो इधर-उधर चर्चा करेंगे ही।

गोपू ने मम्मी को अनिच्छुक देखकर भाई अनिल को पकड़ा। ‘चलो भैया, नीरू दीदी के घर चलें। पापा का बर्डे-कार्ड बनवाना है। मम्मी नहीं जातीं।’

अनिल को खींच कर ले गया। बड़ी देर बाद लौटा तो खूब खुश था। बोला, ‘नीरू दीदी ने कहा है कल या परसों दे देंगीं। खूब अच्छा बनाएँगीं।’

फिर उसने माँ से पूछा, ‘मम्मी, आप पापा को क्या गिफ्ट देंगीं?’

दिव्या बुझे मन से बोली, ‘मैं क्या गिफ्ट दूँगी! कुछ सोचा नहीं है।’

गोपू बोला, ‘मैं पापा के लिए एक पेन खरीदूँगा। बटन दबाने से उसमें लाइट जलती है। आप मुझे गिफ्ट खरीदने के लिए पैसे देना।’

दिव्या ने कहा, ‘तुझे गिफ्ट देना है तो पैसे मुझसे क्यों माँगता है?’

गोपू मुँह फुलाकर बोला, ‘ठीक है, मुझे आपके पैसे नहीं चाहिए। मैं अपनी गुल्लक के पैसों से खरीदूँगा।’

दिव्या ने हार कर कहा, ‘बड़ा आया गुल्लक वाला! ठीक है, मैं पैसे दे दूँगी।’

चौबीस तारीख की शाम को गोपू ने भाई के साथ जाकर पापा के लिए गिफ्ट खरीदी, फिर कार्ड लाने के लिए नीरू दीदी के घर गया। नीरू दीदी के घर से लौटा तो उसके हाथ में एक पॉलीथिन का बैग था। बैग को पीठ के पीछे पकड़े घर में घुसा। ज़ाहिर था बैग में पापा का बर्थडे-कार्ड था, लेकिन अभी किसी को देखने की इजाज़त नहीं थी। बोला, ‘अभी कोई नईं देखना। कल पापा को दूँगा, तभी सब को दिखाऊँगा।’

गोपू ने पॉलिथीन बैग को बड़ी गोपनीयता से अपने स्कूल-बैग में छिपा दिया। उसमें  यह समझ पाने की चालाकी नहीं थी कि स्कूल-बैग में ताला नहीं था और उसके सो जाने पर कार्ड की गोपनीयता भंग हो सकती थी।

उसके सो जाने पर अनिल ने उसके बैग से कार्ड निकाल लिया। नीरू ने खूब अच्छा कार्ड बनाया था। सामने फूलों के बीच में ‘हैप्पी बर्थडे, डियर पापा’ लिखा था। भीतर पापा का बढ़िया कार्टून था। नीरू अच्छी कलाकार है। कार्टून के नीचे लिखा था ‘पापा,ऑफ ऑल द पापाज़ इन द वर्ल्ड, यू आर द बैस्ट। आई लव यू वेरी मच।’ नीचे लिखा था ‘गोपू’, और उसके नीचे गोपू का कार्टून था।

दूसरे दिन सुबह नींद खुलने पर गोपू ने आँखें मिचमिचाकर पापा को देखा, फिर बोला, ‘हैप्पी बर्डे पापा।’ सुनकर नीरज का दिल भर आया। इस बेरोज़गारी के सनीचर को भी अभी लगना था!

फिर उठकर लटपटाते कदमों से गोपू अपने स्कूल-बैग तक गया, उसमें से कार्ड और पेन निकालकर पापा को दे कर अपनी लाख टके की मुस्कान फेंकी।

अनिल उसे चिढ़ाने के लिए पीछे से बोला, ‘ऑफ ऑल द पापाज़ इन द वर्ल्ड, यू आर द बैस्ट।’ गोपू ने पलट कर देखा। समझ गया कि उसका कार्ड रात को देख लिया गया। मुँह फुला कर भाई से बोला, ‘मेरा कार्ड चोरी से देख लिया। गन्दे।’

अनिल ताली बजाकर हँसा।

थोड़ी देर में गोपू की फरमाइश आयी, ‘मम्मी, आपने मिठाई नहीं मँगायी? बर्डे पर मिठाई मँगाते हैं।’

दिव्या ने जवाब दिया, ‘मँगाती हूँ,बाबा। दूकान तो खुलने दे।’

स्कूल जाते वक्त बोला, ‘अच्छा खाना बनाना। खीर जरूर बनाना।’

नीरज और दिव्या संकट में हैं। बच्चे को खुश रखने के सिवा और किया भी क्या जा सकता है?

एक दिन उसके मन की कर दी जाए, फिर चिन्ता करने को ज़िन्दगी पड़ी है। तय हुआ कि शाम को खाना लेकर किसी पार्क में हो लिया जाए। वहीं खाना-पीना हो जाएगा और बच्चों को मस्ती करने के लिए जगह मिल जाएगी। होटल में जाना वर्तमान स्थिति में बुद्धिमानी की बात नहीं होगी।

शाम को वे खाना लेकर बच्चों को शिवाजी पार्क ले गए। साफ सुथरी जगह, अच्छा लॉन और बच्चों के खेलने के लिए झूले, फिसलपट्टी और मेरी-गो-राउंड। गोपू मस्त हो गया। झूले में झूलते और फिसलपट्टी में फिसलते खूब हल्ला-गुल्ला मचाता। माँ-बाप उसकी सुरक्षा की फिक्र में आसपास मुस्तैद रहे। फिर दोनों भाइयों ने घास में खूब धींगामुश्ती की। पार्क से गोपू खूब खुश लौटा।

नीरज और दिव्या भी कुछ अच्छा महसूस कर रहे थे। पाँच दिन से मन पर बैठा विषाद कुछ हल्का हो गया था। घर से बाहर निकले, प्रकृति का सामीप्य मिला और बच्चों के साथ दौड़-भाग हुई तो लकवाग्रस्त पड़ी बुद्धि में कुछ चेतना लौटी। नीरज को लगा नौकरी खत्म होने के साथ ज़िन्दगी खत्म नहीं होती। अभी सब दरवाजे़ बन्द नहीं हुए।

उसके पास अपना अनुभव और योग्यता है। दस्तक देने पर शायद कोई और दरवाज़ा खुल जाए।

उसने विचार किया। अभी उसके पास बहुत पूँजी है। प्यारे बच्चे हैं। समझदार पत्नी है। काम का अनुभव है। मुसीबत के वक्त ये बड़ी नेमत हैं। उसने अपने सिर को झटका दिया। मुसीबत आयी है, लेकिन उदासी में डूबे रहना समझदारी की बात नहीं है। गाँठ की कार्यक्षमता में दीमक लगनी शुरू हो जाएगी।

बच्चे सो गये तो उसने दिव्या की ठुड्डी पकड़कर उसके चिन्ताग्रस्त चेहरे को उठाया, कहा, ‘मैं बेवकूफ था जो इतने दिन फिक्रमन्द होकर बैठा रहा। परेशान मत हो। मैं दूसरी नौकरी ढूँढ़ूँगा। जल्दी ही कोई रास्ता निकलेगा। चिन्ता करने से कुछ नहीं होगा।’

पति की बात सुनकर दिव्या की आँखें भर आयीं। चिन्ता के बादल छँट गये। चेहरे पर आशा का भाव छा गया। उसने एक बार फिर पति की आँखों में झाँका और आश्वस्त होकर पाँच दिन बाद शान्ति की नींद में डूब गयी।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ पुरस्कृत कथा – शून्य के भीतर ☆ डॉ. हंसा दीप ☆

डॉ. हंसा दीप

संक्षिप्त परिचय

यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत। पूर्व में यॉर्क यूनिवर्सिटी, टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर एवं भारतीय विश्वविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक। तीन उपन्यास व चार कहानी संग्रह प्रकाशित। गुजराती, मराठी व पंजाबी में पुस्तकों का अनुवाद। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित। कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार 2020।

आप इस कथा का मराठी एवं अङ्ग्रेज़ी भावानुवाद निम्न लिंक्स पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं। 

मराठी भावानुवाद 👉 ढासळत चाललय काळीज सौ. उज्ज्वला केळकर 

अङ्ग्रेज़ी भावानुवाद 👉 Broken Heart Translated by – Mrs. Rajni Mishra

☆ कथा कहानी ☆ पुरस्कृत कथा – शून्य के भीतर ☆ डॉ. हंसा दीप 

(पुरवाई कथा सम्मान पुरस्कार से पुरस्कृत रचना)  

शहर के पास एक पशु-पक्षी विहार था जिसकी बहुत तारीफ सुना करते थे। भारत से एक मित्र का आगमन हुआ तो सोचा उन्हें घुमाने ले जाने की शुरुआत यहीं से की जाए। सुबह का नाश्ता करके जब हम वहाँ पहुँचे तो गेट पर एक बड़े-से बोर्ड पर यह नियम लिखा हुआ नज़र आया कि “पशु-पक्षियों को कुछ भी न खिलाया जाए। प्रवेश के लिये कोई टिकट नहीं है। अगर आप स्वयं दान के इच्छुक हैं तो करिए मगर इस पशु-पक्षी विहार की कहानी पढ़िए या सुन लीजिए।”

हम गेट से अंदर दाखिल होकर आगे बढ़ने लगे। बीच में बने लंबे गोलाकार रास्तों से गुजरते हुए कई जीवों की एक अलग दुनिया दिखी। दायीं ओर तारों के अंदर की तरफ़ विचरते कई अलग-अलग तरह के पशु दिखाई दिए। अपने-अपने समूहों में अपनी-अपनी सीमाओं में। रास्ते के बायीं ओर कई पेड़ों पर बैठे अनगिनत परिंदे थे जो अपने लिये बनाए गए उस जंगल में प्राकृतिक जीवन जी रहे थे। इन पंछियों की चहचहाहट के साथ ही तमाम अलग-अलग तरह की आवाजों से माहौल प्रतिध्वनित हो रहा था।

पशु-पक्षियों की मस्ती देखकर लग रहा था कि उनकी यहाँ पर बहुत देखभाल की जाती है। हर तरह के पशुगृह थे। बिल्लियों के लिये अलग घर था, कुत्तों के लिये अलग और रैकून के लिये अलग। इस अनुपम प्राकृतिक स्थल पर अलग-अलग प्रजाति के इतने जानवरों को एक साथ देखना एक अलग ही तरह का अनुभव था।

थके-हारे एक जगह बैठे और अपने साथ लाए नाश्ते के सामान को खत्म किया। हालाँकि यहाँ विचरना बहुत ही खुशनुमा अनुभव था लेकिन घूमते-घामते अब थकने लगे थे। यह पहले ही निश्चित कर लिया था कि वह कहानी पढ़ने के बाद ही वहाँ से निकलना है। कुछ लोग ऑडियो सुनने में व्यस्त थे तो कुछ लोग बैठकर पढ़ते हुए बातें भी कर रहे थे। मेरे मित्र ने ऑडियो सुनना शुरू किया और मैं पढ़ने लगी। 

***

कुमुडी कहते थे सब उसे। सुनने में तो कुमुडी बड़ा अजीब सा लगता है पर नाम किस तरह बिगड़ कर नया रूप ले लेते हैं इसका यह अच्छा उदाहरण था। यह कुमुडी श्रीलंका में पैदा हुई, बचपन में ही माता-पिता के साथ न्यूज़ीलैंड में बस गयी थी और नौकरी मिलने पर आ पहुँची थी कैनेडा के टोरंटो शहर में।

कहाँ से निकला बीज, कहाँ जाकर उगा और फिर कहाँ जाकर इसका विस्तार हुआ!

देशों की विविधता के अनुरूप ही उसके नाम ने भी विविध रूप लिए। कौमुदी से कोमुडी, कुमुड़ी और फिर कुमुडी। उसकी जड़ें श्रीलंका से जुड़ी थीं अत: यह जानना आसान था कि उसके घर में तमिल बोली जाती होगी। यह नाम तमिल, संस्कृत या फिर हिन्दी से आया, यह तो भाषा विज्ञान जाने पर उसका परिवार मूलत: तमिल भाषी ही था। कई भाषाओं और संस्कृतियों के मेलजोल से बने इस प्यारे-से नाम ने अनेक देशों की सीमाओं को पार करते हुए नया आयाम ले लिया था। हिन्दी-तमिल भाषियों की अंग्रेजी बोलने की शैली थोड़ी अलग होती है जिसे सुनकर कुछ लोग हँसते हैं, कुछ उसका मजाक बनाते हैं लेकिन ऐसे नामों का कचरा करने में अंग्रेजी भाषियों का कोई सानी नहीं। कौमुदी का नाम अब कुमुडी था।

खैर इस बात से कुमुडी को कोई आपत्ति नहीं थी क्योंकि स्कूल से लेकर अब तक, कैरियर की उच्च पायदान तक उसे कुछ इसी तरह अलग-अलग नाम से बुलाया जाता रहा। नाम में रखा भी क्या था! वह तो हमेशा अपने काम से जानी जाती रही। उसका व्यक्तित्व कौमुदी नाम को सार्थक करता था। बेहद शालीन, सौम्य, सहज, सरल होने के साथ ही, बहुत ही समर्पित, निष्ठावान डॉक्टर। जो भी करती पूरे मन से। अपनी खास शैली में दस मिनट के काम में तीस मिनट तक खर्च कर देती। फिर अगला काम, फिर अगला काम, इस तरह उसके कई काम उसकी प्रतीक्षा करते रहते। एक के बाद एक पेंडिंग कामों की सूची बढ़ती जाती।

इसमें उसकी कोई गलती नहीं मानी जाती थी क्योंकि जब वह काम खत्म होता तो परिपूर्ण होता था। उसके सारे मरीज बहुत खुश रहते। वह सदैव अपना सर्वश्रेष्ठ देती और इस प्रक्रिया में उसे जो तृप्ति मिलती वह अमूल्य थी। समय की इस मारामारी से निपटने में देर रात तक जाग कर काम करना पड़ता। शरीर थक जाता, दिमाग सोचने की क्षमता गँवाने लगता तब कहीं जाकर वह सोती। तिस पर उसकी तबीयत, शरीर का अंग-अंग विद्रोह कर देता, लेकिन उसके काम पूरे नहीं हो पाते थे। उसके अपने विभाग में “आज कुमुडी नहीं आयी”, “फिर से नहीं आयी” “अजीब बात है, इतनी बीमार कैसे हो जाती है” “बीमार है, बताया तो था” जैसे जुमले प्राय: सुनाई पड़ते। 

अस्पताल के स्टाफ वाले एक समर्पित डॉक्टर के लिये “यह हर रोज कैसे बीमार हो जाती है” जैसे सवाल उठाते तो ये सवाल ही रह जाते क्योंकि जवाब सबको मालूम था। सब उसके प्रशंसक ही थे। उसके काम करने की धीमी गति सहकर्मियों को चुभती जरूर किन्तु इसके बावजूद वे उसे पसंद करते थे। उसका समर्पण स्वयं बोलता था, एकदम नि:स्वार्थ एवं निश्छल। सब उससे प्यार करते। वे मदद का एक हाथ उसकी ओर बढ़ाते तो वह दोनों हाथों से उनकी मदद में लग जाती। तकनीक तेजी से बदल रही थी। उसे कई बार अपने युवा मातहतों से बहुत कुछ पूछना पड़ता परन्तु सीखने में कभी उसे संकोच नहीं हुआ।

उसके स्टाफ को एक ही दु:ख था कि वह कभी कुछ कहती नहीं थी, जबकि नितांत अकेली थी। जीवन के लगभग पच्चीसवें बसंत से पचासवें बसंत तक अपने कंधों पर सबका बोझ उठाए चलती रही। घर में बड़ी होने से घर का सारा दायित्व उसने अपने ऊपर ले लिया था। बूढ़े माता-पिता के साथ-साथ युवा होते भाई-बहनों की भी चिन्ता थी। टोरंटो से न्यूज़ीलैंड की उड़ान कई दफा महीने में दो बार हो जाती। वह चाहती तो उसे न्यूज़ीलैंड में भी नौकरी मिल जाती किन्तु उसे कैनेडा से, कैनेडियन सिस्टम से बहुत लगाव हो गया था। इतनी जुड़ गयी थी इस जमीन से कि इसे जीवन भर के लिये अपनी कर्मभूमि स्वीकार कर लिया था। यह देश उसके लिये जैसे सुविधाओं की बरसात लेकर आया था। वह इसे छोड़ना नहीं चाहती थी। परिवार के प्रति उसकी चिंता देखकर सब हैरान होते। एक पैर टोरंटो में और दूसरा पैर ऑकलैंड में। एक वरिष्ठ डॉक्टर होने के नाते अच्छी कमाई के बावजूद उसके पास पैसों की कमी ही रहती क्योंकि उसके वेतन का एक बड़ा हिस्सा कैनेडा से न्यूज़ीलैंड की उड़ान में जाया हो जाता। कई बार उसके कंधे इस शारीरिक और आर्थिक बोझ को उठा पाते, कई बार न उठा पाते। कंधों की क्षमता से बेखबर वह एक के बाद एक तमाम जिम्मेदारियाँ उठाती गई और हर कदम के साथ शरीर को भार से बोझिल होते देखकर भी उपेक्षा करती रही। माता-पिता की मृत्यु के बाद दोनों भाई बहनों को सेटल करने में पाँच साल तक लगे। अब भाई-बहन अपने-अपने बच्चों के साथ अपने परिवार में व्यस्त हैं।

इसी सब में वह कब पचपन के पड़ाव तक आ पहुँची, पता ही न चला। पचपन साल की उम्र में ही पैंसठ के ऊपर की दिखने लगी है। युवावस्था में अच्छे रिश्ते आते रहे। लड़के डेट पर बुलाते पर उन दिनों जिम्मेदारियों की लंबी फेहरिस्त होती थी उसके पास। उसकी दुनिया में माता-पिता, भाई-बहन के अलावा कोई और अपनी जगह ही न बना पाया। माता-पिता अब रहे नहीं, भाई-बहन अपनी जिंदगी में आगे बढ़ गए। सच पूछा जाए तो आज भी वह उनकी छोटी से छोटी परेशानी को अपने माथे लेने में नहीं हिचकती और कई घंटों का सफर करके उनके पास पहुँच जाती। वे चाहें, न चाहें उनकी मदद करती, शारीरिक-मानसिक के साथ आर्थिक भी। बहन से हमेशा मिलने वाली मदद के कारण भाई-बहन हर छोटी बात पर उसकी सलाह लेते और वह उस समस्या को स्वयं ही हल कर देती। नेकी और पूछ-पूछ! भाई-बहन को फायदा उठाना आता था, सो उठाते रहे। यह सब करते-करते कितने बरस बीत चले।

दुनिया आगे की तरफ़ दौड़ती रही और उस दौड़ में वह बिल्कुल अकेली पड़ती गयी। अपने बारे में सोचने का समय नहीं मिला कभी। इधर स्वास्थ्य ने भी संकेत देने शुरू कर दिए। वह अपने शहर टोरंटो में ही काम करती रही। अस्पताल के कई विभागों से संबद्ध थी। नौकरी के दौरान जितनी व्यस्त लोगों के साथ रहती घर में उतना ही अकेलापन होता। सिर्फ वह और घर की दीवारें। अब वह उम्र के उस मोड़ पर थी जहाँ उसकी मदद के लिए किसी को होना चाहिए था। लेकिन कौन करता मदद? जिनकी मदद वह करती रही, वे सब बहुत दूर थे। वे यूँ भी कभी आए नहीं उसके पास। वही मदद का हाथ बढ़ाए दौड़ी चली जाती थी। वे कभी फोन भी नहीं करते। अमूमन इस उम्मीद से वही फोन करती कि उसके अकेलेपन को समझकर शायद कभी वे कहें कि– “दी, यहीं आ जाओ।”

“आ जाओ दी अब, आपकी बहुत याद आती है।”

“अब आपको इतनी दूर रहकर नौकरी करने की जरूरत ही नहीं।” 

मगर ऐसा कभी हुआ ही नहीं। भाई-बहनों में किसी को भी उसने इस बात का अहसास नहीं होने दिया कि उसके मन में क्या चल रहा था। यह भी नहीं कि अब उसे भी किसी की मदद की जरूरत है। अंदर ही अंदर मन मसोस कर रह जाती। उनसे बात करने के बहाने ढूँढती लेकिन “कैसे हैं”, “क्या चल रहा है” जैसी बातों से आगे कोई बात ही न हो पाती। फोन रखने के बाद देर तक वह फोन को घूरती रहती। मानो फोन ने साजिश की हो कि जो वह सुनना चाहती है, न सुन पाए।

दिन बीतते रहे, तबीयत कुछ ज़्यादा ही खराब हुई तो लंबी छुट्टी ले ली लेकिन किसी को बताया नहीं कि वह इस कदर बीमार है। अब धीरे-धीरे उसके घुटने जवाब देने लगे। कंधों में लगातार दर्द रहने लगा। लंबी छुट्टी के बाद भी ठीक होने के आसार नजर नहीं आ रहे थे। अब उसे सिक लीव लेकर घर पर रहना अपनी गैरजिम्मेदारी लगने लगी थी। वह जानती थी कि काम पर उसकी अनुपस्थिति से और लोगों को कितनी तकलीफ हो रही होगी। जब तक वह छुट्टी पर रहेगी तब तक वे किसी को उसकी जगह भी नहीं दे सकते। सोच-विचार के बाद उसे अपनी कर्तव्यपरायणता इसी में दिखी कि कंपलसरी रिटायरमेंट ले ले। इससे उसे अच्छी-खासी पेंशन तो मिलेगी ही व एक पैकेज भी मिलेगा जो उसकी आगे की जिंदगी के लिये पर्याप्त होगा। इस फैसले के क्रियान्वित होने में कोई परेशानी नहीं हुई। सब कुछ आसानी से हो गया। उसके अपने भीतरी दरवाजे तो बंद ही थे। अब दरवाजे से बाहर की दुनिया के तमाम लोगों के दरवाजे भी उसके लिये बंद होते गए। एकाकीपन में खुद अपने लिये अजनबी-सी हो गयी थी वह। जैसे जानती ही न हो कि वह कौन है और कहाँ है। सर्वत्र मौन पसरा रहता। बोलता भी कौन! टीवी जरूर चिल्लाता रहता। पर उसे सुनने का जी नहीं करता। चुप्पियों में रहना अब एक अनिवार्यता थी।

जल्दी ही उसे लगने लगा कि अब उसकी दुनिया शून्य हो चुकी है। सिर्फ वह है और उसके भीतर एक खाली घेरा है जिसमें सिर्फ शून्य ही शून्य भरे पड़े हैं। एक के बाद एक, एक दूसरे को लीलते हुए।  

एक सहकर्मी ने कुछ सालों पहले सुझाया था कि उसे एक बच्चा गोद ले लेना चाहिए। तब वह अपने भाई-बहन के परिवारों को बसाने में इतनी व्यस्त थी कि उसे ऐसा कुछ सोचने की जरूरत भी नहीं पड़ी। आज जब जरूरत है तो बच्चा पालने की उम्र नहीं रही। बहुत सोच-विचार के बाद उसने एक बिल्ली पालने का निर्णय लिया। प्यारी सी चितकबरी बिल्ली जल्द ही उसके ध्यान का केंद्र बिन्दु बन गयी। अब वह बिल्ली की चिंता में घुली रहती। सुबह-शाम एक ही ख्याल रहता कि “बिल्ली ठीक तो है।” यह मूक जानवर उसके अकेलेपन का साथी तो था मगर उसे मदद भी तो चाहिए थी। वह बिल्ली भला कुमुडी की क्या मदद कर सकती थी?

“बिल्ली ने ठीक से खाया नहीं।”

“वह रात में ठीक से सोयी नहीं।”

“उसे डॉक्टर के पास ले जाना है।”

बस इन्हीं चिंताओं में अब वह स्वयं को व्यस्त रखने लगी। कई रातों तक बिल्ली के टहलने पर वह उठ जाती, कुछ खिलाती, थर्मामीटर लगाकर चैक करती कि कहीं उसे बुखार तो नहीं। रात में न सोने के कारण कई बार दिन में झपकी लग जाती और उसी समय फोन की घंटी घनघनाती। सोचती शायद भाई या बहन ने फोन किया होगा। बड़ी आशा से फोन उठाती तो वह कॉल मेडिकल चेकअप के लिये होता या फिर कोई प्रमोशन कॉल होता। 

ऐसा नहीं था कि भाई-बहन की उदासीनता से वह बेखबर थी। कभी-कभी उसे ये लगता कि काश, अपने बारे में भी कभी सोचा होता! ये सारी बातें मन में आतीं किन्तु इन्हीं के साथ यह ख़याल भी विचारों में चला आता कि भाई-बहन खुश हैं। उन्हें कोई परेशानी नहीं है इसीलिये उसे भी खुश ही रहना चाहिए। अपने लिखे को मिटाने में असमर्थ पाती। उसकी सोच अब पूरी तरह बिल्ली के साथ थी। इस तनहाई में बिल्ली से बातें करती। अपनी सुनाती, उसकी भी सुनती। दोनों का खाने का समय एक था, सोने का भी। बिल्ली तो बिल्ली ठहरी। बीच-बीच में उठकर चल देती, वह बेचैन हो जाती। सोचती, कुछ गलत तो नहीं हो रहा जो बिल्ली भी मेरा साथ नहीं दे रही! बहरहाल, कहीं तो किसी की उपस्थिति थी जो उसे कुछ करने के लिये ऊर्जा दे जाती।

एक दिन सुबह का नाश्ता प्लेट में था पर खाने का मन नहीं था। फेंकने के बजाय ब्रेड के टुकड़े बाहर डाल आयी ताकि भूखे प्राणियों को कुछ खाना मिल सके। पलट कर दो कदम ही चली थी कि कुछ चिल्लपों सुनायी दी। देखा तो सामने से एक फुर्तीली गिलहरी किलकते हुए उस तरफ आ रही थी जहाँ ब्रेड के टुकड़े रखे थे। चौड़ी-सी मुस्कान आ गयी कुमुडी के चेहरे पर। यह ऐसी खुशी थी कि अंदर तक उस गिलहरी की किलकारी गूँज रही थी। वह अपनी चोंच में जितने ब्रेड के टुकड़े दबा सकती थी, दबा कर भागी। फिर लौट कर आयी और अपनी चोंच में कुछ टुकड़े दबा कर भागी। जब तक वह वापस आती, एक छोटा-सा, सहमा-सा रैकून का बच्चा आया डरते-डरते। बड़े रैकून लोगों को डराते थे, डरते नहीं थे। यह बच्चा रैकून था। किसी को डराने की कला अभी इसने सीखी नहीं थी। कुमुडी ने अंदर आकर फ्रिज में पड़े चावल निकाले और एक प्लास्टिक के कटोरे में डाल दिए उसके लिये। वह मुंडेर पर आकर बैठा और खाकर चला गया।

अगले दिन वे दोनों ठीक उसी समय आए। कुमुडी को लगा कि दिन में एक बार खाना देना, यह तो न्याय नहीं है उनके साथ। अब, जब भी वह कुछ खाती उनके लिये वहाँ डाल देती। वे कहीं से सहसा ऐसे प्रकट हो जाते मानो उसके दरवाजा खोल कर बाहर आने की प्रतीक्षा ही कर रहे हों। यह सिलसिला अब दिन में तीन बार बिना नागा चलता। अब खाने के लिए उससे कुछ पाने की उम्मीद लगाए तीन ऐसे प्राणी थे जो प्यार से उसे एकटक निहारते थे। कुछ इस तरह चले आते थे जैसे आमंत्रित अतिथि हों और खाकर उछलते हुए वापस लौट जाते। वह बिल्ली को अपने साथ ले आती और उनके साथ खेलने की कोशिश करती। बातें करती, इतना ध्यान देती कि इनकी दूसरी माँ बन जाती। इन दो दिनों में उसे बहुत अच्छे से नींद आयी। तीसरे दिन उसकी अपनी खिड़की से झाँकता हुआ एक प्यारा-सा पपी दिखा। शायद अपने घर से भटक कर उसके पिछवाड़े से अंदर चला आया था।

वह उसे नहीं देखना चाहती थी पर वह खिसका नहीं वहाँ से, भूखा जो था। 

“तुम जाओ। मैं तुमसे प्यार नहीं कर सकती। तुम मुझे छोड़ कर चले जाओगे जब तुम्हारे घर वाले आ जाएँगे।”

लेकिन वह वहीं अड़ियल की तरह डटा रहा। हिला ही नहीं।

“वादा करो कि तुम नहीं जाओगे, दस्तखत करते हो तो आ जाओ।”

सचमुच कुमुडी ने दरवाजा खोलकर एक पेपर रख दिया पपी के सामने। वह जल्दी से अंदर आया और उस पेपर पर अपना पैर रख दिया। वह खुश हो गयी, मानो किसी ने उसकी आत्मीयता को स्वीकार कर लिया हो। यह पपी घर से बाहर नहीं जाना चाहता था। शायद जिस घर से बिछड़ा था वह कुछ ऐसा ही दिखता होगा। बिल्ली को अच्छा नहीं लगा उसका आना। वह दौड़-दौड़ कर कुमुडी से चिपट रही थी। लेकिन कुमुडी उसे समझाती जा रही थी- “तुम उसके साथ खेलना, वह तुम्हारा दोस्त बनेगा।” वह गेंद उछालती तो पपी दौड़ कर ले आता। बिल्ली भी धीरे-धीरे खेलने लगी।

अब कुमुडी थी और ये चारों प्राणी थे। गिलहरी रोज दिन में तीन बार उसी समय आ जाती। पहला समय वही था जब उसने पहली बार वहाँ ब्रेड के टुकड़े फेंके थे और घूमते-घामते उसने आकर उन्हें खाया था। कैसी घड़ी फिट होगी उसके मस्तिष्क में। रैकून वैसे तो कचरों के डिब्बों से खाना खाता था पर ठीक उसी समय आता जिस समय पहली बार कटोरे में चावल डाले थे उसके लिये। न तो उन्हें घड़ी के काँटों की पहचान थी, न समय की, लेकिन खाना देने वाले की पहचान उन्हें थी। मनुष्यों से अधिक वफादार जानवर होते हैं, सुना तो था, उन चारों के अपनेपन के कारण देख भी लिया।

वे अपने-अपने समय पर आते, उससे आँखें मिलाते, अपना तोहफा लेते और आवाजें निकालते हुए लौट जाते। मानो उसे दुआ दे रहे हों। कम से कम एहसान फरामोश हरगिज नहीं थे वे। वह सोच रही थी कि जब कभी उसकी मृत्यु होगी, कम से कम ये चार आँसू तो उसे कंधा दे ही देंगे। बिल्ली, रैकून, गिलहरी और पपी इन सबका एक परिवार बन गया था यह। दो घर में रहते थे, दो मेहमान की तरह आते व चले जाते। 

अब न्यूज़ीलैंड की यात्रा बंद थी। पेंशन के पैसों से गुजारा हो रहा था लेकिन फिर भी बचत काफी थी। उसके मन में इस परिवार की चिंता थी कि अगर उसे कुछ हो गया तो इनका क्या होगा। वह वसीयत बनाना चाहती थी कि जब वह न रहे तो उसका जमा पैसा, इतना बड़ा घर, गाड़ी सब कुछ इनके पालन-पोषण के लिये खर्च हो। उन्हें एक घर देना चाहती थी, ठीक वैसा ही जैसा अपने भाई-बहन को दिया था। ये कम से कम उसकी अनुपस्थिति को महसूस करेंगे तो उसका अपना जीवन सफल हो जाएगा। उन सबकी आँखों में एक दूसरे के लिये प्यार ही प्यार था। कुमुडी में उन बेजुबानों के लिये और उन बेजुबानों में कुमुडी के लिये।

प्रथम पशु-पक्षी विहार की शुरुआत हुई तो इस कहानी को सुनकर बहुत डोनेशन मिलने लगा। आज “कुमुडी” नाम से ऐसे कई पशु-पक्षी गृह खोले जा चुके हैं जिनमें कई जीवों को शरण मिली है। इन अपनों से बतियाती कुमुडी अब बेजुबान है। तस्वीरों में कैद, मगर इन सबके लिये आज भी वह बोलती है, उन्हीं की अपनी भाषा में। उसका अपना शून्य का घेरा अब बहुत बड़ा हो चुका है। शायद कह रहा है कि शून्य का घेरा हमेशा शून्य नहीं होता, भीतर से फैलता है तो एक नयी दुनिया बसा लेता है।

कहानी खत्म होते ही मेरे अंदर कुछ कुलबुलाने लगा। मेरे हाथ बरबस सामने रखे डोनेशन बॉक्स की ओर बढ़ गए। सामने बैठे मेरे मित्र का ऑडियो भी खत्म हो चुका था और हाथ अपने वालेट को ढूँढ रहे थे।

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© डॉ. हंसा दीप

संपर्क – Dr. Hansa Deep, 22 Farrell Avenue, North York, Toronto, ON – M2R1C8 – Canada

दूरभाष – 001 + 647 213 1817

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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