हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ पर्यटक की डायरी से – मनोवेधक मेघालय – भाग-१० ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

☆ पर्यटक की डायरी से – मनोवेधक मेघालय – भाग-१०  ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

(षोडशी शिलॉन्ग)

प्रिय पाठकगण,

आपको हर बार की तरह आज भी विनम्र होकर कुमनो! (मेघालय की खास भाषामें नमस्कार, हॅलो!)

फी लॉन्ग कुमनो! (कैसे हैं आप?)

आपकी प्रतिक्रियाओं ने मुझे सचमुच बहुत कुछ दिया है! मित्रों, हमने जो थोड़ा बहुत मेघालय देखा, उसकी महिमा पिछले नौ भागों में मैंने बखान की है, परन्तु हमारी यह यात्रा ११ दिनों की थी, इसलिए हम फिर मेघालय यात्रा करेंगे यह तो निश्चित है ही! मेघालय की  नयनाभिराम स्मृतियाँ संजोकर लिखा हुआ यह दसवाँ और आगे के भाग मैंने खास करके षोडश वर्षीय, नवयौवना के सामान यौवन से लहराते और महकते शिलॉन्ग यानि, इस मेघालय की राजधानी के लिए आरक्षित कर रखे थे| हमने मुंबई से आसामकी राजधानी गुवाहाटी का सफर हवाई जहाज से किया। उज्ज्वलने (मेरा जमाई) मेघालय के संपूर्ण प्रवास हेतु कॅब बुक की थी| हवाई अड्डेपर आसामका एक ड्राइवर अजय हमारे स्वागत के लिए हाज़िर था| उसके साथ हमने अगले ११ दिन अत्यंत आनंद से प्रवास किया| कभी घमासान बारिश का आक्रमण, कभी कोहरे का गहरा गलीचा, कभी तंग गलियारे, कभी घुमावदार मोड़, तो कभी हमारी देरी, इन सब को धैर्यपूर्वक सहते हुए अजय अविरत गाडी चला रहा था, यातायात के सभी नियमों का सख्ती से पालन करते हुए! वह बड़े ही प्रेमपूर्वक हमारे साथ संवाद कर रहा था और कहाँ क्या देखने लायक है, इस बारे में सूचना और मार्गदर्शन भी कर रहा था| किसी भी पर्यटन स्थल के निकट पहुँचते ही मुझे तो वह “नानी आप ये कर सकता है/ नहीं कर सकता” यह प्यार भरी चेतावनी देता था। हम समूचे सफर में मधुर गीत (बंगाली या आसामी) सुनते गए| उन्हींमें से एक गाना था भूपेन हजारिका का बहुत ही मीठा तथा श्रवणीय ऐसा “ओ गंगा”! हम सबको वह बहुत ही भाया! हमारे पसंदीदा इस गाने का वीडियो आखरी में जोड़ा है| हमने गुवाहाटी से शिलॉन्ग को जाते जाते भूपेन हजारिका के सुंदर स्मारक को देखा|

शिलॉन्ग भारत के मेघालय राज्य की राजधानी और सबसे बड़ा शहर है| इसके अलावा शिलॉन्ग पूर्व खासी हिल्स जिले का प्रशासकीय केंद्र है| १९६९ तक यह शहर संयुक्त आसाम प्रांत की राजधानी था| १९७२ साल में मेघालय स्वतंत्र राज्य के रूप में प्रस्थापित होने के बाद यहीं शहर मेघालय की राजधानी बना और आसाम की राजधानी गुवाहाटी के एक उपनगर दिसपूर में स्थानांतरित की गई| आज शिलॉन्ग मेघालय की आर्थिक, सांस्कृतिक तथा वाणिज्य राजधानी है| २०२४ में इस  शहर की लोकसंख्या है अंदाजन ५०८०००, यहीं लोकसंख्या २०११ में अंदाजन १४३००० इतनी थी| यहाँ के लगभग ४७ प्रतिशत निवासी ख्रिश्चन धर्मीय तथा ४२ प्रतिशत निवासी हिंदू हैं| यहाँ की अधिकृत भाषा अंग्रेजी है और खासी, जैंतिया तथा गारो इन स्थानिक भाषाओँ को राजकीय दर्जा दिया गया है|

खासी और जैंतिया हिल्स यह भूभाग पारंपारिक काल से खासी जनजाति के आधिपत्य में था| यहाँ की राजधानी सोहरा (चेरापुंजी) हुआ करती थी| परंतु सिल्हेट से आसाम तक रास्ता निर्माण करने हेतु ईस्ट इंडिया कंपनी को यहाँ की जमीन की आवश्यकता महसूस हुई| इसके कारण युद्ध हुआ और ब्रिटिशों का पलड़ा भारी रहा| १८३३ साल में यह भूभाग ब्रिटिशों ने जीत लिया। परंतु चेरापुंजी यह स्थान सुविधाजनक न होने से ब्रिटिशों ने १८६० के दशक में शिलॉन्ग शहर की स्थापना की| १८७४ में ब्रिटिश सरकार ने नवनिर्वाचित आसाम प्रांत की स्थापना की तथा शिलॉन्ग आसाम की राजधानी का शहर बन गया| यहाँ के पहाड़ी प्रदेश व् सौम्य मौसम के कारण ब्रिटिशों को यह शहर पूर्व के स्कॉटलँड जैसा प्रकृतिसंपन्न और सुंदर लगता था| मात्र एक लोकप्रिय पर्यटनस्थल होने के बावजूद यहाँ मार्गिकाओं और रेल्वेमार्गों का विकास नहीं हो पाया, इसलिए शिलॉन्ग की प्रगति मंदगति से होती रही|

यहाँ आए ख्रिश्चन मिशनरियों ने इस भाग में ख्रिश्चन धर्म का प्रसार किया| साथ ही बच्चों की शिक्षा हेतु स्कूल शुरू किये| इस भाग को प्रकृति की अनमोल विरासत का वरदान है। ब्रिटीश उपनिवेशवाद की विरासत का संदेश देनेवाले घरों की रचना तथा कॅफे में बजाया जाने वाला संगीत यह इस शहर की अलग विशेषता है| यहाँ पर्यटन के दृष्टिकोण से हर जगह प्रकृति की सम्पन्नता दृष्टिगोचर होती है| यह प्रदेश सुन्दर तो है ही, साथ ही प्रदूषणमुक्त भी है| शिलॉन्ग पहाड़ी के उतरन पर बसा हुआ है| यहाँ के शिलॉन्ग व्यू पॉइंट से आप समूचा शहर देख सकते हैं| आसमान में फैला हुआ घना कोहरा और उसमें खोया हुआ  शिलॉन्ग शहर अलग ही अनुभूती देकर जाता है| (हम यह पॉईंट देख नहीं पाए, क्यों कि उस वक्त वह बंद किया गया था)

शिलॉन्ग हवाईअड्डा शहर से ३० किलोमीटर उत्तर में स्थित है| यहाँ से दिल्ली, कोलकाता, साथ ही ईशान्य के दिमापूर, गुवाहाटी, सिलचर, इम्फाल, अगरतला इत्यादि प्रमुख शहरों के लिए सीधी विमान यात्रा उपलब्ध है| राष्ट्रीय महामार्ग क्रमांक ६ शिलॉन्ग को गुवाहाटी और अन्य महत्वपूर्ण शहरों के साथ जोड़ता है | दुर्भाग्य से आज भी शिलॉन्ग भारतीय रेल के नक़्शे पर नहीं है| परन्तु भविष्य में गुवाहाटी से मेघालय रेलमार्ग का निर्माण होगा यह आशा की जा रही है| आज की तारीख में गुवाहाटी रेल्वे स्टेशन शिलॉन्ग से १०५ किलोमीटर दूर है|

           मित्रों, अब हम शिल्लोन्ग के(अर्थात हमने देखे हुए) सुन्दर स्थलों का सफर करेंगे!

उमियम सरोवर (Umiyam Lake)

शिलॉन्गकी ओर जाने वाले हमारे रास्ते पर एक अति लावण्यमय, जैसे किसी चित्रप्रतिमा को बड़े प्रयास और प्रेम से चित्रित किया हो, ऐसा उमियम सरोवर दिखाई दिया| मानवनिर्मित होकर भी उसका प्राकृतिक नैसर्गिक सरोवर समान भासमान होने वाला सौंदर्य बिलकुल अनायास ही सिनेमास्कोपिक और  फोटोजेनिक था! कहीं भी कैमरा फिक्स कीजिये और क्लिक करिये, उस चित्र की मोहिनी मन मोहने लगेगी ही! दीवाना बनाने वाले इस सरोवर को घेरा है, वृक्षलताओं की हरितिमा और विशाल पूर्व खासी पर्वत श्रृंखलाओंने! शिलॉन्ग के मध्यबिंदु से यह स्थल १६ किलोमीटर दूर है| उमियम नदीको पाट कर बनाया हुआ यह विशाल और विलक्षण मानवनिर्मित आरस्पानी (आईने की तरह दमकता) सरोवर देखते ही हम उस पर लुब्ध हो बैठे! स्थानीय लोग इसे “बडापानी” कहते हैं| अगर आप सैरसपाटे के लिए गाँव से बाहर जाना चाहते हैं, तो यह जगह उसके लिए एकदम सही है! इसीलिये यहाँ पर्यटकों का कभी खत्म न होने वाला जमघट लगा रहता है, खास कर छुट्टियों के दिनों में! यहाँ का सूर्यास्त नयनाभिराम नारंगी, गुलाबी और लाल रंगों की आभा बिखेरते हुए रंगावली अंकित करने के पश्चात ही ही रात्रि के आगोश में विराम लेता है! बारिश के बाद के विहंगम इंद्रधनुषी रंग देखना है तो यहीं रुकिए, क्योंकि, ये सारे रंग इस सरोवर में अपना राजसी रुप निहारते रहते हैं!

हम यहाँ पहुंचे तो देखा कि हरित पन्नों की माला में जैसे नीलम गूंथा हो, वैसे ही सदाहरित वनश्री में यह सरोवर चमक रहा था| आकाश के बदलते रंग इस जलाशय के जल के रंगों को भी बदल रहे थे। कभी धवल, कभी नीलकांती, तो कभी मेघवर्णम शुभांगम! मैं तो इस परिसर में जैसे खो गई| मित्रों, आप भी यहाँ ऐसे ही खो जाएंगे! यहाँ का नौकानयन यानि इस जल की नीलिमा को निकट से देखने का स्वर्णिम अवसर ही समझिये, अर्थात यह अपरिहार्य ही है! नौकानयन करते हुए हमारी नौका (मोटरबोट) छोटे से शंकू के आकार के पन्नों जैसे प्रतीत होने वाले द्वीपों को घेरा डालते हुए विहार कर रही थी| हमारा भाग्य अच्छा था, क्योंकि, हमें ले जाने वाली नौका का ईंधन बीच में ही ख़त्म हो गया और उसके आने तक हम आसपास के सौंदर्य का आनंद लेते रहे, जैसे कोई बोनस मिला हो! वह आये ही नहीं यह आशा कर रहे थे, कि वह आ ही गया! इस सरोवर में वॉटर स्पोर्ट्स की सुविधा भी उपलब्ध है (kayaking, boating, water cycling, scooting, canoeing इत्यादि)| अर्थात इसके लिए आसमान और सरोवर का शांत और सौम्य रहना आवश्यक है! आप को अगर ऐसा कुछ भी नहीं करना है, तो मजे से चहलकदमी करें और बस इस खूबसूरत क्षेत्र को देखने का आनंद लें! अगर हो सके तो इस झील के पास किसी होटल में ठहरें और प्रकृति की सुंदरता का जी भर कर आनंद अनुभव करें|

मित्रों, अगले भाग में शिलाँग में और उसके आसपास चहल कदमी करेंगे! तब तक थोड़ा इन्तजार करना होगा!

आज की मुलाकात बस इतनी!

तो अभी के लिए खुबलेई! (khublei) यानि खास खासी भाषा में धन्यवाद!)

  टिप्पणी

*लेख में दी जानकारी लेखिका के अनुभव और इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी पर आधारित है| यहाँ की तसवीरें व्यक्तिगत हैं!

*गाने और विडिओ की लिंक साथ में जोड़ रही हूँ| (लिंक अगर न खुले तो, गाना/ विडिओ के शब्द यू ट्यूब पर डालने पर वे देखे जा सकते हैं|)

“ओ गंगा तुमी” अल्बम-“गंगोत्सव”

गायक और संगीतकार: भूपेन हजारिका

(इसी गाने का हिन्दी संस्करण भी यू ट्यूब पर उपलब्ध है|)

 

The Sounds of Meghalaya – #GOLDEN by MEBA OFILIA | Meghalaya Tourism Official

© डॉ. मीना श्रीवास्तव

८ जून २०२२     

ठाणे 

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मी प्रवासिनी ☆ मनोवेधक मेघालय…भाग – ८ ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

? मी प्रवासिनी ?

☆ मनोवेधक  मेघालय…भाग – ८ ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆

(षोडशी शिलॉन्ग)

प्रिय वाचकांनो,

आपल्याला दर वेळी प्रमाणे आजही लवून कुमनो! (मेघालयच्या खास खासी भाषेत नमस्कार, हॅलो!)

फी लॉन्ग कुमनो! (कसे आहात आपण?)

आपल्या प्रतिसादाने मला खरंच खूप काही दिलंय! मित्रांनो, आम्ही जे थोडके मेघालय बघितले त्याची महती मागील सात भागात गायली, मात्र आमचा प्रवास ११ दिवसांचा होता, त्यामुळे आम्ही परत मेघालय बघणार हे निश्चित आहेच! हा मेघालायच्या नयनरम्य आठवणी जपत लिहिलेला आठवा आणि पुढील भाग मी खास करून षोडश वर्षीय, नवयौवनेसम तारुण्याने सळसळत्या अशा शिलॉन्ग या मेघालयच्या राजधानी करता राखून ठेवले होते. आम्ही मुंबई ते आसामची राजधानी गुवाहाटी येथील प्रवास विमानाने केला. उज्ज्वलने (माझा जावई) मेघालयच्या संपूर्ण प्रवासासाठी कॅब बुक केली होती. विमानतळावर आसामचा एका ड्रायव्हर अजय आमच्या स्वागताला हजर होता. त्याच्या सोबत आम्ही नंतरचे १० दिवस अतिशय आनंदाने प्रवास केला. कधी धो धो पावसाचे आक्रमण, कधी धुक्याची रजई, कधी अरुंद गल्ल्या, कधी वेडीवाकडी घाटाची वळणे, तर कधी आमची दिरंगाई, हे सर्व अत्यंत धीराने सहन करत अजय अविरत गाडी चालवत होता, वाहतुकीचे सर्व नियम कडकपणे पाळीत! आमच्याशी प्रेमाने संवाद साधत कुठे काय बघण्यासाखे आहे, या बाबत तो सूचना आणि मार्गदर्शन देखील करीत होता. मला तर तो कुठलेही प्रेक्षणीय स्थळ आले की “नानी आप ये कर सकता है/ नहीं कर सकता” अशी प्रेमळ ताकीदच द्यायचा. संपूर्ण प्रवासात आम्ही नादमधुर अशी गाणी (बंगाली आणि आसामी) ऐकत गेलो. त्यातीलच एक गाणे होते भूपेन हजारिका यांचे अत्यंत गोड आणि श्रवणीय असे “ओ गंगा”! आम्हा सर्वांना आवडलेल्या या गाण्याची ध्वनिफीत शेवटी दिलेली आहे. आम्ही गुवाहाटी ते शिलॉन्गला जाता जाता भूपेन हजारिका यांचे सुंदर स्मारक बघितले. 

 शिलॉन्ग ही भारताच्या मेघालय राज्याची राजधानी आणि तेथील सर्वात मोठे शहर आहे. याशिवाय शिलॉन्ग पूर्व खासी हिल्स जिल्ह्याचे प्रशासकीय केंद्र आहे. १९६९ पर्यंत हे शहर संयुक्त आसाम प्रांताची राजधानी होते. १९७२ साली मेघालय हे स्वतंत्र राज्य म्हणून प्रस्थापित झाल्यावर हेच शहर मेघालयच्या राजधानीचे शहर बनले व आसामची राजधानी गुवाहाटीमधील एक उपनगर दिसपूर येथे हलवण्यात आली. आज शिलॉन्ग मेघालयची आर्थिक, सांस्कृतिक व वाणिज्य राजधानी आहे. २०२४ मध्ये या शहराची लोकसंख्या आहे सुमारे ५०८०००. हीच लोकसंख्या २०११ साली सुमारे १४३००० इतकी होती. येथील सुमारे ४७ टक्के रहिवासी ख्रिश्चन धर्मीय तर ४२ टक्के लोक हिंदू आहेत. इंग्लिश ही येथील अधिकृत भाषा असून खासी, जैंतिया व गारो ह्या स्थानिक भाषांना राजकीय दर्जा देण्यात आला आहे. खासी व जैंतिया हिल्स हा भूभाग पारंपारिक काळापासून चेरापुंजी येथे राजधानी असलेल्या खासी जमातीच्या अखत्यारीखाली होता, परंतु सिल्हेट ते आसाम दरम्यान रस्ता बांधण्यासाठी ईस्ट इंडिया कंपनीला येथील जमिनीची आवश्यकता भासू लागली. ह्यावरून झालेल्या युद्धात ब्रिटिशांची सरशी झाली व १८३३ साली हा भूभाग ब्रिटिशांनी जिंकला. परंतु चेरापुंजी हे ठिकाण सोयीचे नसल्यामुळे ब्रिटिशांनी १८६० च्या दशकात शिलॉन्ग शहराची स्थापना केली. १८७४ मध्ये ब्रिटिश राजवटीने नवनिर्वाचित आसाम प्रांताची स्थापना केली व शिलॉन्ग आसामची राजधानीचे शहर बनले.

या भागाला निसर्गाचा बहुमोल वारसा लाभलेला आहे. येथील डोंगराळ भाग व सौम्य हवामानामुळे ब्रिटीशांना हे शहर पूर्वेकडील स्कॉटलँडसारखे निसर्गसंपन्न आणि सुंदर वाटायचे. मात्र एक लोकप्रिय पर्यटनस्थळ असून देखील येथे रस्ते व रेल्वेमार्गांचा विकास होऊ शकला नाही, म्हणून शिलॉन्गची प्रगती संथ गतीने होत राहिली. १८ व्या शतकामध्ये येथे आलेल्या ख्रिश्चन मिशनऱ्यांनी या भागात ख्रिश्चन धर्माचा प्रसार केला व मुलांच्या शिक्षणासाठी शाळा सुरू केल्या. ब्रिटीश वसाहतवादाचा वारसा सांगणारी घरांची रचना, हॉटेल व कॅफे मध्ये वाजवले जाणारे संगीत ही या शहराची वेगळी वैशिष्टये आहेत. पर्यटनाच्या दृष्टीने ठायी ठायी निसर्गाची लयलूट असलेला अत्यंत संपन्न असा हा प्रदूषणमुक्त प्रदेश आहे. शिलॉन्ग हे डोंगर उतारावर वसलेले आहे. येथील शिलॉन्ग व्यू पॉइंट वरून आपण संपूर्ण शिलॉन्ग शहर पाहू शकतो. आकाशात पसरलेले प्रचंड धुके आणि त्या धुक्यात हरवलेले शिलॉन्ग हे शहर वेगळीच अनुभूती देऊन जाते. (आम्ही हा पॉईंट बघू शकलो नाही कारण तेव्हां तो बंद करण्यात आला होता) 

शिलॉन्ग विमानतळ शहराच्या ३० किलोमीटर उत्तरेस स्थित आहे. येथून दिल्ली, कोलकाता तसेच ईशान्येकडील दिमापूर, गुवाहाटी, सिलचर, इम्फाल, आगरताळा इत्यादी प्रमुख शहरांसाठी थेट विमानसेवा उपलब्ध आहे. राष्ट्रीय महामार्ग क्रमांक ६ शिलॉन्गला गुवाहाटी तसेच इतर महत्वाच्या शहरांसोबत जोडतो. दुर्दैवाने आजही शिलॉन्ग भारतीय रेल्वेच्या नकाशावर नाही. मात्र भविष्यात गुवाहाटी ते मेघालय रेल्वेमार्ग बांधला जाईल अशी आशा आहे. आजच्या घडीला गुवाहाटी रेल्वे स्टेशन शिलॉन्ग पासून १०५ किलोमीटर दूर आहे. 

मित्रांनो, आता आपण शिल्लोन्ग येथील (अर्थातच आम्ही बघितलेली) प्रेक्षणीय स्थळे बघू या!

उमियम सरोवर (Umiam lake)

आम्ही शिलॉन्गच्या वाटेवर असतांना एक अतीव लावण्यमय, जणू काही चित्रप्रतिमेप्रमाणे निगुतीने घडवलेले असे उमियम सरोवर बघितले. मानवनिर्मित असूनही त्याचे नैसर्गिक सरोवरासारखेच भासमान होणारे सौंदर्य अगदी विनासायास सिनेमास्कोपिक अन फोटोजेनिक असे! कुठंही कॅमेरा फिक्स करा अन क्लिक करा, त्या चित्राची मोहिनी मन मोहणारच! या वेड लावणाऱ्या सरोवराला वेढलंय हिरव्यागार वनश्री अन विशाल पूर्व खासी पर्वतशृंखलांनी! शिलॉन्गच्या मध्यबिंदू पासून हे स्थळ १६ किलोमीटर अंतरावर आहे. उमियम नदीला बांध घालून हे विशाल आणि विलक्षण मानवनिर्मित आरस्पानी सरोवर बघताच आम्ही त्यावर लुब्ध झालो. स्थानिक लोक याला “बडापानी” म्हणतात. सहलीसाठी गावाबाहेर जायचंय ना, मग त्यासाठी हे ठिकाण एकदम सही! म्हणूनच इथे पर्यटकांची धो धो गर्दी असते, खास करून सुट्टीच्या दिवशी! इथला सूर्यास्त नयनाभिराम नारिंगी, गुलाबी अन लाल रंगांची उधळण करीत रंगावली रेखितच रात्रीच्या कुशीत विराम पावतो! पावसानंतरचे विहंगम इंद्रधनुषी रंग बघावे ते इथेच, कारण हे सर्व रंग या सरोवरात स्वतःचे राजस रुपडे न्याहाळत असतात!

 

आम्ही जेव्हा इथे पोचलो तेव्हा बघितले की, हिरव्याकंच पाचूंच्या माळेत नीलम गुंफला जावा तसे हिरव्यागार वनश्रीत हे सरोवर चमकत होते. आकाशाचे बदलते रंग या जलाशयाच्या जलाचे रंग देखील बदलत होते. कधी धवल, कधी नीलकांती, तर कधी मेघवर्णम शुभांगम! हरखून गेले मी या परिसरात. मित्रांनो, तुम्ही सुद्धा असेच हरवून जाल इथे! इथले नौकानयन म्हणजे या जलाच्या निळाईचे सौंदर्य जवळून पाहण्याची सुवर्णसंधी, अर्थातच हे अपरिहार्य! नौकानयन करतांना आमची नौका(मोटरबोट) इवलाल्या शंकूच्या आकाराच्या पाचूंच्या बेटांना वेढा घालीत विहार करीत होती. आमचे नशीब जोरावर होते, कारण आम्हाला नेणाऱ्या नौकेचे इंधन मधेच संपले आणि ते येईपर्यंत बोनस मिळावा तसे आम्ही भोवतालचे सृष्टी सौंदर्य न्याहाळीत बसलो. ते येऊ नये असे वाटत असतांनाच आले! या सरोवरात वॉटर स्पोर्ट्सची सुविधा देखील आहे (kayaking, boating, water cycling, scooting, canoeing इत्यादी). अर्थात यासाठी आभाळ व सरोवर शांत अन सौम्य असणे आवश्यक! आपल्याला यापैकी काहीच करायचे नसेल तर मजेत फेरफटका मारत या रम्य परिसराचं नुसतंच आनंददायी निरीक्षण करीत राहा! आपणास शक्य असल्यास या सरोवराजवळील हॉटेलमध्येच मुक्काम करा, अन निसर्ग शोभेचा मनसोक्त अनुभव घ्या.

पुढील भागात शिलॉन्गमध्ये आणि त्याच्या आसपास फेरफटका मारू या!

तोवर जरा दम धरा मंडळी! आत्तापुरते आवरते!

खुबलेई! (khublei) म्हणजेच खास खासी भाषेत धन्यवाद!)

टीप – *लेखात दिलेली माहिती लेखिकेचे अनुभव आणि इंटरनेट वर उपलब्ध माहिती यांच्यावर आधारित आहे. इथले फोटो व्यक्तिगत आहेत

©  डॉ. मीना श्रीवास्तव

ठाणे 

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मी प्रवासिनी ☆ “चला बालीला…” – भाग – २ ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

☆ “चला बालीला…” – भाग – २ ☆ सौ राधिका भांडारकर 

२९/११/२३

तसं पाहिलं तर आम्ही सारेच ८० च्या उंबरठ्यावरचे. आयुष्यात या आधीही आम्ही अनेक प्रवास केले होते, अनेक पर्यटन स्थळांना धावून धावून, अत्यंत उत्सुकतेने, जग पाहण्याच्या दृष्टीने भेटी दिल्या होत्या.  पण कालचा सूर्यास्त पाहताना जाणवत होती ती आमच्या आयुष्यातील संध्याकाळ. 

या सहलीला येण्याचा एकच हेतू होता निवांतपणा  अनुभवावा. पृथ्वीवरच्या एका वेगळ्याच परिसराचा, तिथल्या निसर्गाचा, मानवी जीवनाचा, आनंददायी, निराळा अनुभव घ्यायचा होता आम्हाला.  मनातली हिरवळ जपत, वयाला न नाकारता निसर्ग आणि निराळ्या संस्कृतीत वावरण्याचा एक मजेदार अनुभव घेत स्वतःला रिफ्रेश्ड, तजेलदार करायचे होते. आज भी हम जवान है असे निदान एकमेकांना बजावायचं होतं.  आलेल्या अनेक पर्यटकांमध्ये ९०% माणसं तरुण वर्गातली असली तरी दहा टक्के आमच्यासारखेच तरुण तुर्क म्हातारे अर्क होतेच की! आणि ही सारी तरुण माणसं आमच्याबरोबर कौतुकाने सेल्फी काढत होते, म्हणत होते,” आमचंही म्हातारपण असच तुमच्यासारखं टवटवीत असावं”

तेव्हा या टवटवीत सहा जणांचा आजचा  पहिला स्थलदर्शनाचा दिवस.

सकाळीच मस्त complimentary नाश्ता घेतला. बालिअन पद्धतीचा नाश्ता होता.  वेगळ्या चवीची पुडिंग्ज, खीर, काही भाज्या, सॅलड्स, ब्रेड, भात, फळे,, फळांचा रस वगैरे भरपूर होते. नाश्ता छान आरोग्यदायी आणि चविष्ट होतात आम्हाला फिरायला घेऊन जाण्यासाठी दारातच टॅक्सी उभी होती.  जवळजवळ दिवसभराची आठ तासांची दूर होती.  खर्च रुपये तेरा लाख  इंडोनेशियन रुपीज.  प्रत्येक वेळी या लाखांची गोष्ट अनुभवत होतो आम्ही.  पण हे इंडियन नसून इंडोनेशियन रुपीज आहेत या विचाराने भानावरही येत होतो.

आमचा पहिला थांबा होता नुसा डुआ  बीच. अतिशय विस्तीर्ण असा रम्य सभोवताल.   तशी फारशी गर्दी जाणवत नव्हती.   आम्ही एका शटलने किनाऱ्यापर्यंत आलो.  लांबलचक पांढऱ्या वाळूचा किनारा, त्याला लागूनच नारळाची, तसेच नारळ जातीतल्या वृक्षांची रांग, काही पपनसाचे वृक्ष ही तिथे आम्ही पाहिले.  किनाऱ्याचे जणू काही ही वृक्षवल्ली संरक्षणाच करत होती.  समुद्राचे पाणी निळसर होते. पर्यटकांसाठी हे एक बाली इंडोनेशिया येथील अत्यंत आकर्षक स्थळ आहे. देशोदेशीचे पर्यटक येथे विखुरले होते आणि समोर पसरलेल्या महासागराच्या दर्शनाने थक्क होत होते.  माझ्या मनात नेहमी एक प्रश्न येतो की जगातला कुठलाही सागर हा त्या त्या वेळी अथवा प्रत्येक वेळी सौंदर्यातली विविधता घेऊनच आपल्यासमोर का येतो?  प्रत्येक किनारा आपण तितक्याच नवलाईने का पाहतो?  कदाचित याचं एकच उत्तर असेल हीच त्या किमयागाराची किमया!

इथे आसपास अनेक रेस्टॉरंट्सही  होती. अनेक साहसी सागरी क्रीडा होत्या. सांगितिक कार्यक्रमही होते. दरवर्षी मार्च महिन्यात येथे जाॅयलँड फेस्टिवल साजरा केला जातो. जी20 ची परिषद इथे भरली होती.  अनेक सांगितिक क्षेत्रातल्या कलाकारांसाठी नुसा डुवा हे एक उत्तम व्यासपीठ आहे. 

जितकं निसर्ग सौंदर्य डोळ्यात साठवता येईल तितकं साठवण्याचा आम्ही अक्षरशः प्रयत्न करत होतो. त्या विस्तीर्ण परिसरात असलेली राम, सीता, लक्ष्मण यांची सुरेख शिल्पं आमच्या कॅमेराला आकर्षित करीत होती. उन्हाचा तडका जसा जाणवत होता तसाच समुद्रावरून वाहत येणारा वाराही मनाला सुखावत होता.

बाली येथे दरवर्षी जवळजवळ देशोदेशीचे पाच मिलियन पर्यटक भेट देतात.  इथल्या अनेक आकर्षणांपैकी एक प्रमुख आकर्षण म्हणजे गरुड विष्णू कल्चरल पार्क.(GWK).

या येथे गरुडावर बसलेल्या विष्णूचा ७५ मीटर उंच असा अत्यंत कलात्मक वास्तुकलेच्या आणि शिल्पकलेच्या दृष्टीने ही थक्क करणारा असा पुतळा आहे. तो एका सिमेंटच्या उंच पायावर बसवलेला आहे आणि हे सगळं बांधकाम पुन्हा एका तीन मजली इमारतीवर लॉन्च केलेलं आहे. त्यामुळे या पुतळ्याची संपूर्ण उंची जवळजवळ 121 मीटर होते. जगातले हे तिसऱ्या क्रमांकाचे उंच असे शिल्प गणले जाते. बालीमध्ये फिरत असताना ते अनेक ठिकाणाहून दिसते. आमचं विमान डेन्सपार विमानतळावर उतरत असतानाही आम्हाला सर्वप्रथम मोकळ्या आकाशात या गरुड विष्णूचे दर्शन झाले आणि आम्ही मनोमन आनंदलो.

बालीमध्ये हिंदू धर्माचे अधिक वर्चस्व आहे. विष्णू ही संरक्षक देवता मानली जाते.  या पुतळ्यातील विष्णूच्या हातातही कमलपुष्प, शंख आणि राजदंड आहे. बाली येथील उंगासान  बारुंग येथे एका उंच डोंगरावर या संपूर्ण शिल्पाची उभारणी केलेली आहे. जणू काही गरुडावरचा हा विष्णू उंचावरून बाली या बेटावर आपली संरक्षक नजर ठेवून आहे.

न्याओमन नुआरर्ता या वास्तुशास्त्रज्ञाने याची रचना केलेली आहे आणि या वास्तूचे उद्घाटन सप्टेंबर २०१८साली झाले आहे.  म्हणजे बाली येथील हे पर्यटन स्थळ तसे नवीन, अलीकडचेच आहे. प्रवेशासाठी येथे प्रत्येकी ५० हजार इंडोनेशियन रुपीज ची दोन तिकिटे काढावी लागतात .म्हणजे आम्हाला सहा जणांसाठी सहा लाख IDR लागले. पुतळ्यापर्यंत जाण्यासाठी येथे विनामूल्य शटल सर्विस आहे. हे मात्र आमच्यासाठी दिलासा देणारे होते. परिसर खूपच भव्य आणि विस्तीर्ण आहे आणि जागोजागी रामायणातील, पुराणातील कथा सांगणारी विशेष व्यक्तींची अतिशय दिलखेचक आणि उंच मोठी शिल्पे उभारलेली आहेत.  त्यात अगदी रावण, शूर्पणखा पण आहेत. ऋषि कश्यप, विनिता यांचे पुतळे आहेत. गरुडाची आई विनिता म्हणूनच गरुडाला वैनतेय असेही म्हणतात.

गरुडावर आरुढ झालेल्या विष्णूची एक कथा येथे सांगतात.  गरुडाला त्याच्या आईला गुलामगिरीतून मुक्त करायचे होते आणि त्यासाठी त्याला समुद्रमंथनातून निर्माण झालेले अमृत हवे होते.

“मी तुला माझ्या पंखावर घेतो आणि तू मला ते अमृत दे” असा गरुड आणि विष्णु मध्ये करार होतो.  विष्णूचे वाहन गरुड असल्या मागची ही  एक दंतकथा आहे.

पक्षी श्रेष्ठ गरुडाचे पसरलेले पंख आणि त्यावरचा रुबाबदार सुंदर विष्णू पाहताना अक्षरशः डोळ्याचे पारणे फिटते.  हे शिल्प कॉपर, ब्रास आणि सिमेंटच्या मिश्रणातूनच बनवलेले आहे. पण पाहताना मात्र ते दगडी असल्याचा भास होतो. १९९३ ला या बांधकामाची सुरुवात झाली आणि २०१८ साली त्याचे उद्घाटन झाले. २१७ फूट रुंद आणि चारशे फूट उंच असलेलं हे भव्य सौंदर्य पहायला बालीत आलेले देशोदेशीचे पर्यटक गर्दी करतात. थक्क होतात, तृप्त होतात.

शिवाय इथे अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रम जसे की संगीत, नृत्य, बालीअन सादर करतात. लोक परंपरा जपण्याच्या भावनेतून  झालेले हे कार्यक्रम मनोरंजक वाटतात. असा आनंददायी  अनुभव घेत, तीस हजाराचं(IDR) आईस्क्रीम खाऊन आणि बालीनीज कन्ये बरोबर छायाचित्र खेचून आम्ही तेथून तृप्त मनाने परतलो.  घेता किती घेशील आणि सांगू किती सांगशील अशीच आमची अवस्था झाली होती.

क्रमश: भाग दुसरा  

© सौ. राधिका भांडारकर

ई ८०५ रोहन तरंग, वाकड पुणे ४११०५७

मो. ९४२१५२३६६९

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ पर्यटक की डायरी से – मनोवेधक मेघालय – भाग-९ ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

☆ पर्यटक की डायरी से – मनोवेधक मेघालय – भाग-८ ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

(डेव्हिड स्कॉट ट्रेल (David Scott Trail))

प्रिय पाठकगण,

आपको हर बार की तरह आज भी विनम्र होकर कुमनो! (मेघालय की खास भाषामें नमस्कार, हॅलो!)

फी लॉन्ग कुमनो! (कैसे हैं आप?)

एक शक (पिछले भाग का और इस भाग का भी) 

यह सब तो ठीक ही है, यह मावफ्लांग का घना जंगल, यहाँ मेरी ही कोई शिकार करे तो? (यहाँ के जानवरों ने ये नियम थोड़े न पढ़े होंगे!) मित्रों, इसीलिये अपना साथ निभाने वाला, यहाँ के एक-एक पदचिन्ह को पहचानने वाला स्थानीय गाइड जरुरी है, उसका अनुसरण करते जाइये, सीधी      ( हो या ना हो) पगडण्डी मत छोड़िये, घनघोर जंगल में घुस कर संकट को आमंत्रित करने वाली जरुरत से ज्यादा हिम्मत मत कीजिये! आप बाघ की तलाश मत कीजिये, वह भी जानबूजकर आपको तलाशते हुए नहीं आएगा!!! ईमानदारी से बताती हूँ, ईश्वर की इस अनाहत निर्मिति ने हमें इतना अभिभूत कर दिया था कि, इस रमणीय जंगल में हमारे मन में एक बार भी ऐसे वैसे विचारों ने झाँकने की हिम्मत तक नहीं दिखाई|  मित्रों, यह जंगल अवश्य देखिए, चार एक घंटों की मोहलत रहने दीजिये! गाईड के भरोसे पर निश्चिन्त हो जाइये, उसके पास बंदूक वग़ैरा नहीं होती, मात्र होती है असीम श्रद्धा! आप अगर सच्चे प्रकृतिप्रेमी हैं, तो यह वनवैभव नहीं बल्कि, साक्षात् वनदेवता अपने विशाल हरित बाहुपाश में आपको बद्ध करने के लिए सिद्ध है!

डेव्हिड स्कॉट ट्रेल (David Scott Trail):

मेघालय का यह सबसे पुराना पादचारी रास्ता है| डेविड स्कॉट नामक ब्रिटिश प्रशासक ने भारत के उत्तर पूर्व भाग में करीबन ३० वर्ष (१८०२-१८३२) कार्य किया| उसने संपूर्ण खासी पर्वतश्रृंखला की पैदल यात्रा की| उस समय आसाम से सिल्हट(अभी का बांग्लादेश) का अंतर करीबन १०० किलोमीटर था! इस मार्ग पर घोडा-गाड़ियां ले जाने योग्य रास्तों की खोज की गई! इसे माल ढुलाई के लिए इस्तेमाल किया जाना था!यहीं है वह पूर्व खासी पर्वतश्रृंखलाओं में से जाने वाला ट्रेल, इसे डेविड स्कॉट का ही नाम दिया गया है! मूलतः १०० किलोमीटर का अति दुर्गम और कठिनतम मार्ग, परन्तु अब पर्यटकों की सुविधा के लिए छोटे छोटे हिस्सों में विभाजित किया गया है| समुद्र तल से ४८९२ फीट की ऊंचाई पर इस प्राकृतिक सौंदर्य से सजी पगडण्डी पर मार्गक्रमण करते हुए आपको नजर आएंगे छोटे-छोटे शांत गांव, प्राचीन पवित्र वनसम्पदा, विविध औषधी वनस्पतियां, ऑर्किड, मॅग्नोलिया जैसे फूलों की बहार, रबर के पेड़, ब्लॅकबेरी तथा गूसबेरी जैसे ताज़े फल, विस्तीर्ण हरे-भरे चरागाह के मैदान, छोटी-बड़ी जलधाराएँ, जलप्रपात, छोटी-बड़ी झीलें, एकाश्म, पथरीले पुल इत्यादी इत्यादी| कृत्रिमता का जरासा भी स्पर्श नहीं, यहीं है इस मार्ग का बिलकुल सच्चा प्राकृतिक लावण्य! इसका मुख्य कारण है यहाँ मानव का आवागमन बहुत ही कम है!

साहसी ट्रेकर्स यह संपूर्ण मार्ग (१०० किलोमीटर)४-५ दिनों में (गांव में रैनबसेरा करते हुए) चलते हुए पूरा करते हैं | परन्तु इससे अधिक व्यावहारिक और लोकप्रिय ऐसा एक दिन का (करीबन ४ से ६ घंटों में पूरा कर सकते हैं) १६ किलोमीटर का मार्ग उपलब्ध है| मावफ्लांग (Mawphlang) से लाड मावफ्लांग (Lad Mawphlang) ऐसा यह मार्ग है|

इस ट्रेल की शुरवात करने के लिए पहले शिलाँग से २५ किलोमीटर दूर मावफ्लांग गांव में पहुंचना जरुरी है, फिर इस गांव से यात्रा शुरू करते हुए मार्गक्रमण करते रहना है, जब तक लाड मावफ्लांग तक आप पहुँच न जाएँ! इस दीर्घ मार्गिका में क्या नहीं है यह पूछिए! प्रकृति का मुक्त संचार, हरीतिमा से परिपूर्ण पर्वत, खाइयां तो हैं ही, साथ ही जिसका हमें दर्शन अत्यंत दुर्लभ हो वह संपूर्ण तल एकदम स्वच्छ और अच्छे से नज़र आए ऐसा निर्मल जल, सब कुछ सिनेमास्कोपिक चलचित्र के समान! एक छोटी सरिता तरंगिणी अपने रुपहले जल की मचलती लहरों का नादस्वर लेकर लगातार हमारा साथ देते रहती है| इस राह में बीच बीच में उमियम नदी हमें दर्शन देती है| मित्रों, उमियम यानि “अश्रुपात की बाढ़”| इस नाम के उत्त्पत्ति की दिल को छू लेने वाली कहानी बताती हूँ! दो बहनें स्वर्ग से पृथ्वी पर आ रही थी, उस दौरान, बीच राह में एक बहन खो गई, और उसे खोजने वाली दूसरी बहन के अश्रुपात से इस उमियम नदी का निर्माण हुआ!

मेरी बेटी आरती, जमाई उज्ज्वल और पोती अनुभूती ने यह ट्रेक पूरा किया| आरती का अनुभव उसीके शब्दों में नीचे दे रही हूँ!

“मेघालय ट्रिप के अंतिम दिन हमने किया हुआ यह ट्रेक बहुत ही इंटरेस्टिंग था| हमारे गाईड (दालम) के साथ हमने सुबह ९ बजे इस १६ किलोमीटर लम्बे  प्रवास की शुरवात की| प्राकृतिक वातावरण के निकट समय बिताने का अनूठा अनुभव लेने के लिए हम बहुत ही  उत्सुक थे| हमारा गाइड बीच बीच में ताजी रसदार बेरी तोड़ कर दे रहा था| वहां के पानी के प्रवाह और सुंदर निर्झरों का जल अत्यंत स्वच्छ और शीतल था| सीधे प्रवाह और निर्झरों से यह जल पीना यह तो हम शहरवासियों के लिए एक अनोखा ही अनुभव था| चलने के तनाव और परिश्रम से मुक्ति पाने के लिए हम हर निर्झर में मुँह और हाथ पाँव धो रहे थे, उससे श्रमपरिहार तो हो ही रहा था, परन्तु हमारा मन भी प्रसन्न हो उठा था| ट्रेक के आरम्भ में ही एक कुत्ता हमारे साथ हो लिया और पहले ८ किलोमीटर तक लगातार वह हमारे साथ ही था! उसे हमसे अधिक हमारे पास मौजूद चिप्स और अन्य जंक फूड में ज्यादा रस है, ऐसा लग रहा था! चिप्स का पॅकेट खोलने की महज आवाज से वह चौकन्ना हो जाता था और जब तक कि हम उसे थोडासा हिस्सा नहीं देते थे, तबतक, हमें उससे छुटकारा नहीं मिलता था! (हमारे एक फोटो में वह भी दिखाई दे रहा है) दालम ने हमें एक मनोरंजक कथा बतलाई| प्राचीनकाल में मानव बहुत मजबूत शरीर का धनी होता था| एक ही आदमी एक बड़ा (पाषाण) एकाश्म आराम से उठा लेता था, परन्तु उसे उठाने के पहले वह इस एकाश्मश से सुन्दर संवाद साधता था और उसकी अनुमति भी लेता था| यद्यपि पाषाण उससे बात नहीं कर सकता था, फिर भी यह कहा जाता है कि, उस आदमी को उस पाषाण के स्पंदन सुनाई देते थे!मानव से ऐसी प्यार भरी गुहार सुनने के पश्चात् वह पाषाण नरम हो उठता था!  मित्रों, कहानी में ही क्यों न हो, प्रकृति से संवाद साधने वाले ये वन्य जीव!  हमें उनकी भावनाओं का आदर करना ही चाहिए, सच कहूं तो, प्रकृति का रक्षण करने के लिए अब प्रकृति से अभिन्न रूप से जुड़े मानव की ही नितांत आवश्यकता है!

हमने एक गांव में दोपहर का खाना मॅगी और नीम्बू पर निपटाया| कुछ स्कूली बच्चों से मिलने के बाद यह ज्ञात हुआ कि वे स्कूल पहुँचने के लिए इसी कठिन मार्ग पर रोज आना जाना करते हैं, चाहे मौसम कितना ही ख़राब क्यों न हो! कुछ स्थानीय स्त्रियां उनके शिशुओं को पीठ पर बांध कर जाते हुए इसी रास्ते पर मिलीं!(इन बहादुर बच्चों को और स्त्रियों को हमारा अर्थात साष्टांग कुमनो!)यहाँ कोई भी वाहन नहीं हैं, कोई भी नेटवर्क चलता नहीं है | एक बार आपने ट्रेक का आरम्भ किया तो फिर उसे समाप्त करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता! हमारा यह प्रकृति के संग किया सुन्दर प्रवास सायंकाल ४ बजे समाप्त हुआ| यह ट्रेक हमें जिंदगी भर याद रहेगा!हमारे गाईड दालम ने (DalamLynti Dympep, आयु केवल २२ वर्ष, मु.पो. मावफलांग, फोन क्र ८८३७०४०९५८) हमें अत्यंत उत्तम मार्गदर्शन किया और संपूर्ण प्रवास में हमारी सर्वतोपरी मदद की| हम दिल से उसके बहुत बहुत आभारी हैं! हमारी सलाह है कि, इस प्रवास में साथ निभाने के लिए गाईड लेना बिलकुल  जरुरी है! दालम जैसा गाइड हो तो कितने ही संकट क्यों न आएं, उन पर विजय पाना आसान होगा, इसमें कोई शक नहीं! नीचे के फोटो में तीन एकाश्म (मोनोलिथ्स) और उनके साथ नजर आ रहा है दालम!”

प्रिय पाठकगण, यह प्रवास अब शिलाँग तक आ चुका है! अगले मेघालय दर्शन के भाग में आपको मैं ले चलूंगी, शिलाँग, अर्थात मेघालय की राजधानी में और उसके आसपास के अद्भुत प्रवास के लिए!

तो अभी के लिए खुबलेई! (khublei) यानि खास खासी भाषा में धन्यवाद!)

टिप्पणी

*लेख में दी जानकारी लेखिका के अनुभव और इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी पर आधारित है| यहाँ की तसवीरें व्यक्तिगत हैं!  

डेविड स्कॉट ट्रेल के कुछ व्हिडिओ यू ट्यूब पर उपलब्ध हैं|    

©  डॉ. मीना श्रीवास्तव

ठाणे 

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय

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मराठी साहित्य – मी प्रवासिनी ☆ मनोवेधक मेघालय…भाग -७ ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

? मी प्रवासिनी ?

☆ मनोवेधक  मेघालय…भाग -७ ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆

डेव्हिड स्कॉट ट्रेल (David Scott Trail)

प्रिय वाचकांनो,

आपल्याला दर वेळी प्रमाणे आजही लवून कुमनो! (मेघालयच्या खासी या खास भाषेत नमस्कार, हॅलो!)

फी लॉन्ग कुमनो! (कसे आहात आपण?)

एक शंका (मागची अन पुढची देखील )

हे असे मावफ्लांगचे घनदाट जंगल, तिथेच माझी शिकार होणार कां? (तिथल्या जनावरांनी कुठले वाचलेत हे नियम!) मित्रांनो, म्हणूनच आपली सोबत करणारा, इथल्या पावलापावलाचे ठसे ओळखणारा स्थानिक वाटाड्या हवा, त्याचे अनुसरण करत चला. सरळ (असो का नसो) पायवाट सोडायची नाही, घनघोर जंगलात घुसायची ज्यादा अवलक्षणी हिंमत करायची नाय!तुम्ही वाघाला शोधू नका, तो पण तुम्हाला मुद्दाम शोधत येणार नाही!!! प्रामाणिकपणे सांगते, ईश्वराच्या या अनाहत निर्मितीने आम्ही इतके भारावलो होतो की, या रमणीय जंगलात आमच्या मनात एकदाही असे भलते सलते विचार यायला धजावले देखील नाहीत. मित्रांनो हे जंगल अवश्य बघा, चार एक तासांची बेगमी असू द्या! गाईडच्या भरवश्यावर निश्चिन्त असा, त्याच्याजवळ बंदूक वगैरे नसते, मात्र असते ती अपार श्रद्धा! तुम्ही निसर्गप्रेमी असाल तर ही वनराई नव्हे तर, साक्षात देवराई आपले विशाल हरित बाहू पसरून तुम्हाला कवेत घ्यायला सिद्ध आहे! 

डेव्हिड स्कॉट ट्रेल (David Scott Trail):

मंडळी, मागील भागात मी वायदा केला होता, त्याला अनुसरून आज या दुर्गम प्रदेशाच्या एका अत्यंत दुष्कर आणि दुष्प्राप्य ट्रेलची! ही वाट दूर जाते…….. संपण्याचे नाव नको, अशी ही ताज्यातवान्या विशेषज्ञ ट्रेकर्सला भारी पडणारी अन भूल पाडणारी ट्रेल (पायवाट), चला तर मग!     

मेघालयातील ही सर्वात जुनी पायवाट. डेविड स्कॉट या ब्रिटिश प्रशासकाने भारताच्या उत्तर पूर्व भागात जवळपास ३० वर्षे (१८०२-१८३२) कार्य केलं. त्याने संपूर्ण खासी पर्वतरांगा आपल्या पायाखालून घातल्या. या काळात आसाम ते सिल्हट(आत्ताचे बांगलादेश), हे अंतर जवळपास १०० किलोमीटर होते! या मार्गावर घोडागाड्या नेता येतील अशा योग्य वाटांचा शोध घेण्यात आला! मालवाहतुकीसाठी याचा उपयोग होणार होता! हाच तो पूर्व खासी पर्वत रांगांतून जाणारा ट्रेल, त्याला डेविड स्कॉट यांचंच नाव दिल्या गेलंय! मूळ १०० किलोमीटरचा अति दुर्गम आणि खडतर मार्ग, आता मात्र पर्यटकांच्या सोयीसाठी लहान लहान भागात विभागला गेलेला! समुद्रसपाटी पासून ४८९२ फुटांवरील या निसर्गरम्य पायवाटेवरून मार्गक्रमण करतांना दिसतील लहान लहान शांत खेडी, प्राचीन पवित्र वनराई, विविध औषधी वनस्पती, ऑर्किड, मॅग्नोलिया सारख्या फुलांचा बहर, रबराची झाडे, ब्लॅकबेरी तथा गूसबेरी सारखी ताजी फळे, विस्तीर्ण हिरवीगार कुरणे, लहान मोठे ओढे, जलप्रपात, लहान मोठे तलाव, एकाश्म, दगडी पूल इत्यादी इत्यादी. कृत्रिमतेचा जराही स्पर्श नाही हेच या मार्गाचं खरंखुरं प्राकृतिक लावण्य! याचे मुख्य कारण काय तर माणसांची तुरळक ये जा!

साहसी ट्रेकर्स हा संपूर्ण मार्ग (१०० किलोमीटर) ४-५ दिवसात (रात्री गावात मुक्काम करून) चालत जाऊन पुरा करतात. मात्र यापेक्षा जास्त व्यावहारिक आणि लोकप्रिय असा एक दिवसाचा (साधारण ४ ते ६ तासात पूर्ण करता येईल असा) १६ किलोमीटरचा मार्ग  उपलब्ध आहे. मावफ्लांग (Mawphlang) ते लाड मावफ्लांग (Lad Mawphlang) असा हा मार्ग आहे.

या ट्रेलची सुरवात करायला आधी शिलाँग पासून २५ किलोमीटर दूर मावफ्लांग गावात पोचावे लागते, मग या गावापासून प्रवास सुरु करीत मार्गक्रमण करीत राहा, लाड मावफ्लांग ला पोचेस्तोवर! या दीर्घ मार्गिकेत काय नाही ते विचारा! निसर्गाची मुक्त उधळण, हिरवेगार पर्वत, दऱ्या वगैरे आहेतच पण आपल्याला ज्याचे दर्शन देखील दुर्मिळ असलेले संपूर्ण तळ स्वच्छपणे दिसेल असे नितळ पाणी, सारे काही सिनेमास्कोपिक चलचित्रासमान! एक छोटी सरिता तरंगिणी आपल्या चंदेरी जलाच्या उसळत्या लहरींचा नादस्वर घेऊन सतत आपली सोबत करीत असते. या वाटेवर मधून मधून उमियम नदी आपल्याला दर्शन देते. मित्रांनो, उमियम म्हणजे “अश्रूंचा महापूर”. या नावाच्या उगमाची हृदयद्रावक कथा सांगते! दोन बहिणी स्वर्गातून पृथ्वीवर येत असता, वाटेत एक बहीण हरवली अन तिला शोधणाऱ्या दुसऱ्या बहिणीच्या अश्रूपाताने ही उमियम नदी तयार झाली!

माझी मुलगी आरती, जावई  उज्ज्वल अन नात अनुभूती यांनी हा ट्रेक पूर्ण केला. आरतीचा अनुभव तिच्याच शब्दात खाली दिलाय! 

मेघालय ट्रिपच्या शेवटच्या दिवशी आम्ही केलेला हा ट्रेक फार इंटरेस्टिंग होता. आमच्या गाईड (दालम) बरोबर आम्ही सकाळी ९ वाजता या १६ किलोमीटर लांब प्रवासाची सुरवात केली. नैसर्गिक वातावरणात रमण्याचा अनन्यसाधारण अनुभव घेण्यास आम्ही फार उत्सुक होतो.आमचा गाईड मध्ये मध्ये ताजी रसदार बेरी तोडून देत होता. तेथील ओहळांचे आणि सुंदर निर्झरांचे पाणी अतिशय स्वच्छ आणि शीतल होते. थेट ओढ्यांमधून आणि निर्झरांमधून हे पाणी पिणे हा आम्हा शहरवासियांसाठी एक अनोखाच अनुभव होता. चालण्याच्या ताणतणावातून मुक्त होण्यासाठी आम्ही प्रत्येक निर्झरात तोंड आणि हात पाय धूत होतो, त्यामुळे श्रमपरिहार होतच होता, पण आमचे मन देखील प्रसन्न राहत होते. ट्रेकच्या सुरवातीलाच एक कुत्रा आमच्या सोबत आला आणि पहिल्या ८ किलोमीटरपर्यंत तो आमच्या सतत सहवासात होता!  त्याला आमच्यापेक्षा आमच्याजवळ असलेल्या चिप्स आणि तत्सम जंक फूड मध्ये जास्त रस असावा! चिप्सचे पॅकेट उघडण्याच्या निव्वळ आवाजानेच तो सजग व्हायचा अन आम्ही त्यातील थोडा भाग त्याला देईपर्यंत आमची सुटका नसायची! (आमच्या एका फोटोत तो बी हाये!) दालमने आम्हाला एक मनोरंजक कथा सांगितली. प्राचीन काळी मानव खूप मजबूत बांध्याचा होता. एकच माणूस एक मोठा (पाषाण) एकाश्म आरामात उचलत असे, मात्र त्याला उचलण्याधी तो या एकाश्मशी छान संवाद साधत असे  व त्याची परवानगी देखील घेत असे. पाषाण जरी याच्याशी बोलत नसला तरी याला मात्र पाषाणची स्पंदने ऐकू यायची म्हणे! माणसाकडून अशी प्रेमाची गुजगोष्ट ऐकली की तो पाषाण नरमाईने वागत असे! मित्रांनो, गोष्टीत का होईना, निसर्गाशी संवाद साधणारे हे वन्य जीव!  त्यांच्या भावनांचा आपण आदर करायलाच हवा, खरे पाहिले तर निसर्गाचे रक्षण करायला अशा या निसर्गाशी तादात्म्य पावलेल्या माणसांचीच आता नितांत आवश्यकता आहे!  

आम्ही एका गावात दुपारचं जेवण मॅगी आणि लिंबू यावर आटोपले. काही शाळेत जाणाऱ्या मुलांना भेटल्यावर कळले की ते शाळेत पोचायला रोज याच कठीण मार्गावर ये  जा करतात, हवामान कितीही वाईट असो! काही स्थानिक स्त्रिया त्यांच्या छकुल्यांना पाठीशी घेऊन याच रस्त्याने जातांना भेटल्या! (या बहाद्दर  मुलांना आणि स्त्रियांना आमचा अर्थातच साष्टांग कुमनो!) इथे कुठलीही वाहने नाहीत, कुठलेही नेटवर्क नाही. एकदा का तुम्ही ट्रेक सुरु केली की ती संपवण्यावाचून अन्य पर्याय नसतो! आमचा हा निसर्गाच्या संगतीत केलेला सुंदर प्रवास संध्याकाळी ४ वाजता संपला. हा ट्रेक आमच्या आयुष्यभर लक्षात राहील! आमच्या गाईड दालमने (DalamLynti Dympep,  वय केवळ २२ वर्षे, मु. पो. मावफलांग,  फोन क्र ८८३७०४०९५८) आम्हाला अतिशय चांगले मार्गदर्शन केले आणि संपूर्ण प्रवासात आम्हाला सर्वतोपरी मदत केली. त्याचे  मनापासून खूप खूप आभार! आमचा सल्ला आहे की या प्रवासात सोबतीला गाईड घ्यायलाच हवा. दालमसारखा वाटाड्या असेल तर कितीही संकटे का येईनात, त्यांच्यावर मात करणे सुकर होईल यात कुठलीच शंका नाही! एका फोटोत तीन एकाश्म (मोनोलिथ्स) अन त्यांच्यासोबत दिसतोय तो दालम!

प्रिय वाचकहो हा प्रवास आता शिलाँगपर्यंत आलाय! पुढच्या मेघालय दर्शनच्या भागात तुम्हाला मी नेणार आहे शिलाँग या मेघालयाच्या राजधानीत आणि तिच्या जवळच्या एका अद्भुत प्रवासासाठी!

तर आतापुरते खुबलेई! (khublei) म्हणजेच खास खासी भाषेत धन्यवाद!)

टीप – 

*लेखात दिलेली माहिती लेखिकेचे अनुभव आणि इंटरनेट वर उपलब्ध माहिती यांच्यावर आधारित आहे. इथले फोटो व्यक्तिगत आहेत!

डेविड स्कॉट ट्रेलचे काही व्हिडिओ यू ट्यूब वर उपलब्ध आहेत.

©  डॉ. मीना श्रीवास्तव

ठाणे 

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मी प्रवासिनी ☆ “चला बालीला…” – भाग – १ ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

☆ “चला बालीला…” – भाग – १ ☆ सौ राधिका भांडारकर 

२७/११/२३

बाली इंडोनेशियातील एक बेट.  जावा बेटाच्या पूर्वेकडचे हे बेट.  वास्तविक जावा, सुमित्रा, या हिंदी महासागरातल्या बेटांबद्दल शालेय जीवनात भूगोलातून अभ्यास केला होताच. बाली हेही याच बेटांपैकी असलेलं एक सुप्रसिद्ध पर्यटन स्थळ.  कला, संगीत,  नृत्य,समुद्र किनारे आणि मंदिरे यासाठी प्रसिद्ध असलेलं एक नितांत सुंदर बेट आणि मित्र परिवारांच्या समवेत या बेटास प्रत्यक्ष भेट देण्याचे माझे एक बकेट लिस्ट मधले स्वप्न पूर्ण होण्याची संधी मला मिळाली.  जीवनातल्या अनेक भाग्य क्षणांच्या संग्रहात याही अनमोल क्षणाची भर पडली.

दिनांक २७ नोव्हेंबर २०२३ रोजी आम्ही चक्क सिंगापूर एअरलाइन्सच्या एस क्यू 423 या फ्लाईटने *मुंबई ते सिंगापूर (चांगी विमानतळ) ते डेन पसार (न्गुराह राय विमानतळ) असा प्रवास करून बाली या बेटावर येऊन पोहोचलो. आम्ही बुक केलेले रिसाॉर्ट कर्मा चांडीसार हे विमानतळापासून जवळजवळ दोन तासाच्या अंतरावर होते. पण ड्राईव्ह अतिशय रमणीय होता.  सुंदर रस्ते,सभोवती अथांग सागर, झाडी, डोंगर आणि चौकाचौकातले उंच, कलात्मक, रामायणातली कॅरेक्टर्स शिल्पे! भव्य बांधकाम असलेली प्रवेशद्वारे. कोणती कोणती छायाचित्रे टिपावीत हेच कळेनासं झालं होतं.  मग ठरवलं आजचा तर पहिलाच दिवस आहे. छायाचित्रे टिपायला आपल्याजवळ अजून पुढचे सहा दिवस आहेतच की.

पण डेनपसार शहरात प्रवेश करता क्षणीच जाणवले होते ते इथली हिंदू धर्मीय जीवन पद्धती.  रामायण या पवित्र ग्रंथांशी त्यांचं असलेलं जन्मजात खोल नातं.  कसं असतं ना माणसाचं ? धर्म, संस्कृती, कला यांचं एकात्म्य हे क्षणात आपल्याला आपुलकीच्या नाते बंधनात जोडतं. मग वातावरणातल्या बदलाशी आपण नकळत तुलनात्मक रित्या बांधले जातो.

मी पटकन म्हणाले,” मला तर इथे आल्यापासून गोव्यात आल्यासारखंच वाटतंय!  इथल्या बोगन वेली, जास्वंदी, चाफा, कर्दळ, शिवाय नारळ, केळी, बांबू हे तर सारं कोकण —केरळ यांचीच आठवण करून देत होतं.  भारत आणि इंडोनेशियाचं हे मनातल्या मनात केलेलं एकत्रीकरण अर्थातच खूप गंमतीदार होतं.

आमचा सहा जणांचा ग्रुप.  मी, विलास, सतीश, साधना, सुमन आणि प्रमोद.  सतीश चे कर्मा ग्रुपचे सदस्यत्व असल्यामुळे आम्हाला कर्मा चांडीसार या प्राॅपर्टी मध्ये एक सुंदर ऐसपैस बंगला मिळाला होता.  तोही अगदी समुद्रकिनाऱ्याला लागूनच.  हिंदी महासागराचं जवळून  झालेलं ते नयनरम्य दर्शन केवळ अप्रतिम! आमचा सहा जणांचा ग्रुप एकदम आनंदला.

आम्ही सारे पंच्याहत्तरी  पार केलेले, खूप वर्षांपासून मैत्रीच्या घट्ट बंधनात बांधलेले. क्षणात अक्षरशः केवढे तरी तरुण झालो आणि या सहलीत आपण काय काय साहसे करू शकतो याविषयीचे बेत आखू लागलो. चालू ,चढू, पोहू करू की सारं…!! अंतर्मन म्हणायचं,” वय विसरू नका.” पण निसर्गाच्या सानिध्यात माणूस वय विसरतो हे मात्र खरं.

२८/११/२३ 

बालीत (इंडोनेशिया) प्रवेश केल्यावर हवाई अड्ड्यावरच आपण एकदम मिलियाॅनिअर झाल्याचा भास का असेना पण सुखद अनुभव आला. 

पोहोचल्याबरोबरच आम्ही प्रथम व्हिसाची प्रक्रिया पूर्ण केली. इथे व्हिसा ऑन अरायव्हल असतो. व्हिसासाठी आम्हाला प्रत्येकी ३३ डॉलर भरावे लागले. नंतर मनी चेंजरकडून इंडोनेशियन रुपयाची (आयडीआर) करन्सी घेतली आणि काय सांगू अक्षरशः पैशांचा पाऊसच पडला. केवळ ५० हजारा.चे जवळजवळ ८८ लाख इंडोनेशियन रुपये हातात आले. एकेक लाखाच्या, पन्नास हजारांच्या, वीस हजारांच्या च्या भरपूर नोटा.  पर्समध्ये मावेनात. क्षणात खूप श्रीमंत झाल्याचा एक मजेशीर अनुभव मात्र घेतला.

पहिल्या दिवशी टॅक्सीने आम्ही आमच्या आरक्षित बंगल्यावर जेव्हा आलो तेव्हा टॅक्सीचे बिल साडेनऊ लाख इंडोनेशीयन  रुपये झाले होते, त्याचीही गंमत वाटली.

तसे आम्ही दुपारीच पोहोचलो होतो.  विमानात खाणे झालेच होते तरीही थोडे ताजेतवाने होत बरोबर आणलेल्या खाद्यपदार्थांचा आम्ही समाचार घेतला.  सोबत सॉफ्ट ड्रिंक्स, रेड वाइन वगैरे होतंच. 

आमचा बंगला अगदी वेल फर्निश्ड आणि सर्व सुविधायुक्त होता. सुरेख सजवलेले अद्ययावत किचनही  होते.

पहिल्या दिवशी थोडा आरामच करायचे ठरवले. बंगल्याजवळच स्विमिंग पूल होता व तेथे असणार्‍या रेस्टॉरंट पलीकडे अथांग पसरलेला शांत. गूढ, हिंदी महासागर. या सागरात ठिकठिकाणी मोठ मोठी  जहाजे दिसत होती.   काही व्यापारीही असतील कारण बाली हे सुप्रसिद्ध व्यापारी बेट आहे. काही पर्यटन बोटीही असतील तर काही मच्छीमारांच्या बोटी होत्या.  मच्छीमारी हा इथला महत्त्वाचा व्यवसाय आहे.बालीचं हे प्राथमिक दर्शन मनभावन होतं.

हळूहळू सूर्य क्षितिजा पलीकडे गेला. सोनेरी किरणांनी आकाश रंगले आणि मग त्यातूनच अंधाराची वाट पसरत गेली. मात्र मानवनिर्मित रोषणाईने संपूर्ण सागर किनारा चमकू लागला. परिसरातील संमीश्र शांतता, गुढता अनुभवत आम्ही परतलो.  सतीशने दुसऱ्या दिवशीचा साईट सीईंगचा कार्यक्रम आखलेला होताच.

– क्रमश: भाग पहिला 

© सौ. राधिका भांडारकर

ई ८०५ रोहन तरंग, वाकड पुणे ४११०५७

मो. ९४२१५२३६६९

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ पर्यटक की डायरी से – मनोवेधक मेघालय – भाग-८ ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

☆ पर्यटक की डायरी से – मनोवेधक मेघालय – भाग-८ ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

(मावफ्लांग का पवित्र जंगल)

लेखक-डॉ. मीना श्रीवास्तव

प्रिय पाठकगण,

आपको हर बार की तरह आज भी कुमनो! (मेघालय की खास भाषामें नमस्कार, हॅलो!)

फी लॉन्ग कुमनो! (कैसे हैं आप?)

पिछले भाग में मैंने वादा किया था कि, हम चलेंगे मावफ्लांग (Mawphlang) के सेक्रेड ग्रोव्हज/ सेक्रेड वूड्स/ सेक्रेड फॉरेस्ट्स में! आइये तैयार हो जाइये एक रोमांचक और अद्भुत प्रवास के लिए! सेक्रेड ग्रोव्हज/ सेक्रेड वूड्स/ सेक्रेड फॉरेस्ट्स अर्थात पवित्र जंगलों या उपवनों को कुछ विशिष्ट संस्कृतियों में विशेष धार्मिक महत्व प्राप्त है| पूरे विश्व की विविध संस्कृतियों में ये पवित्र उपवन उनके विशेषताओं समेत आज भी अपनी गहन हरीतिमा से भरपूर वैभव के साथ अस्तित्व में हैं| हालाँकि हमें वे सुंदर लॅण्डस्केप्स (सिर्फ देखने योग्य या चित्र या फोटो खींचने के पर्यटन के मात्र सुन्दर साधन) के रूप में दिखते हों, लेकिन कुछ पंथियों या धर्मियों के लिए इन सबसे परे वे बहुत ही महत्वपूर्ण पवित्र स्थल हैं| इसमें भी खासमखास कुछ विशिष्ट वृक्ष तो अत्यंत पवित्र माने जाते हैं| इस समुदाय के लोग इस वनदेवी को प्राणों से भी बढ़कर जतन करते हैं| इसी देखभाल के कारण यहाँ की वृक्षलताएँ हजारों वर्ष पुरातन होकर भी सुरक्षित हैं|

इस पर्वतीय राज्य के वनवैभव में कुछ महत्वपूर्ण सांस्कृतिक परम्पराओं की उत्पत्ति है| खासी समाज को अतिप्रिय इस मावफ्लांग के पवित्र जंगल ने प्राचीन गुह्य इतिहास, रहस्यमय दंतकथाएं और विद्याओंको को अपनी विस्तीर्ण हरितिमा में छुपाकर रखा है| यहाँ की ऊँची नीची प्राकृतिक सीढ़ियां और पगडंडियां, छोटे बड़े वृक्ष-समूह, उनके बाहुपाश में घिरकर लिपटी लताएं, चित्रविचित्र पुष्पभार, पेड़ों पर और उनके नीचे फैले हुए फल,  विस्तीर्ण पर्णराशी, जगह जगह बिखरे पाषाण (एकाश्म/ मोनोलिथ), बीच में ही विविध सप्तकों में कूजन से वन की शांति भंग करने वाले पंछी, यहाँ वहां स्वछंद हो उड़ने वाली रंग-बिरंगी तितलियाँ, यत्र तत्र तथा सर्वत्र जल के प्रवाही प्रवाह, हर कोई जैसे किसी रहस्यमयी उपन्यास के पात्र के समान, मानों प्रत्येक पात्र कहना चाहता हो, “मुझे कुछ कहना है”! यहाँ के आदिवासियों का सारा जीवन इन्हीं जंगलों में निहित है, इनका रक्षक और इन्हें भयभीत करने वाला जंगल एक ही है!

शिलॉंग शहर से केवल २६ किलोमीटर दूर है मावफ्लांग का सॅक्रेड ग्रूव्ह! हमारी उपवन /जंगल की  कल्पना यानि मजबूत पथरीली, काँक्रीट या संगमरमर की सीढ़ियां, रास्ते, बैठने के लिए बेंच, कृत्रिम फव्वारे, स्विमिंग पूल, रेस्तरां, इत्यादी इत्यादी! प्यारे पाठकों, यहाँ ऐसा कुछ भी नहीं| जंगल जैसे का वैसा! नीचे की पर्णसम्पदा भी अस्पर्श, यहाँ की किसी भी चीज को मानव का स्पर्श वर्जित है! अर्थात हमारे वन में चलने के कारण हुए उसके बेमर्जी से हो उतना ही! मित्रों, यहीं है वह अनामिक, अभूतपूर्व, अप्रतिम, अलौकिक, अनुपम, अनाहत, अनोखा और अस्पर्शित सौंदर्य! हमें हमारे गाईड ने (उम्र २१ वर्ष) इस जंगल का ह्रदयस्पर्शी  विलक्षण ऐसा संदेश बतलाया, “यहाँ आइये, यहाँ की प्राकृतिक सम्पदा का वैभव अपने नेत्रों में जी भर कर समाहित कर लीजिये (परन्तु कुछ भी लूटने की कोशिश कदापि मत कीजिये!), यहाँ से लेकर जाना चाहते हैं, तो इस सौंदर्य की स्मृतियाँ ले जाइये और उन्हें जतन कीजिये, हृदय में या अधिक से अधिक कैमरे में! यहाँ से एक सूखी पत्ती तो छोड़िये, एक तिनका भी उठाकर मत ले जाइये! मित्रों, ऐसी सख्ती रहने के उपरांत ‘वनों की कटाई’ जैसे शब्दों का हम सपने में भी स्मरण नहीं करेंगे! पेड़ों की क्या हम ऐसी परवाह करते हैं? पत्तों और फूलों को तोड़ने और पेड़ों को घायल करने का उद्योग इतना सरेआम होता है कि क्या कहें! (हमारे लिए हर महीना सावन होता है, पूजा को पत्ते या फूल नहीं चाहिए क्या!!!)

सेक्रेड ग्रोव्हस में इनके लिये कोई जगह नहीं, उल्टा “ऐसा करोगे तो मृत्यु हो सकती है, से लेकर कुछ कुछ होता है”, यहीं शिक्षा इन जनजातियोंको की पीढ़ी दर पीढ़ी को दी गई है| यहाँ स्थानीय लोग एक सीदे सादे नियम का पालन करते हैं (हमें भी यह करना होगा!), “इस जंगल से कुछ भी बाहर नहीं जाता”| अगर आप मृत लकड़ी या मृत पत्ती चुराते हैं तो क्या होगा, यह प्रश्न आप करेंगे! दंत कथाएं बताती हैं, “जो कोई भी जंगल से कुछ भी ले जाने की हिम्मत करता है, वह रहस्यमय तरीके से बीमार पड़ता है, कभी कभी तो प्राण पखेरू उड़ जाने  तक की नौबत आ जाती है|” इसीलिये यहाँ कुछ वृक्ष १००० वर्षों से भी अधिक जीवित हैं, प्राकृतिक ऊर्जा, जल, खाद सब कुछ है उनके पास, सौभाग्य से एक ही चीज़ नहीं, मानव की भूखी और क्रूर नज़र!!!

यह वनसंपदा धार्मिक कारणों से ही सही, सुरक्षित रखी है यहाँ की तीनों जनजातियोंने! यहाँ जैवविविधता उत्तम प्रकार से जतन की गई है, वनस्पती तथा पेड़ों की प्रजातियों की विस्तृत श्रेणियां (यह ध्यान रहे कि, इनमें दुर्लभ प्रजातियां भी शामिल हैं) फल फूल रही हैं, निर्भय हो कर जी रही हैं! मंत्रमुग्ध करने वाला यह हराभरा पर्जन्य-वन-वैभव इतना कैसे निखरता है? इसका कारण है, इसकी उष्णकटिबंधीय उत्पत्ति, यहाँ बरसात में पवन और पानी दोनों ही दीवाने हो जाते हैं, हर्ष और मोद की मानों बाढ़ आ जाती है! तूफानी हवा का बवण्डर और आसमान से घनघोर घटाओं से बरसती घमासान जलधाराओं का नृत्यविलास! इसी अर्थ का एक मराठी गीत है, “घन घन माला नभी दाटल्या कोसळती धारा!”

प्रिय मित्रों, यहाँ टाइम का ध्यान रखना अत्यावश्यक है (सुबह ९ से शाम ४.३०). देरी से जंगल में जाने वाले और जंगल में से देरी से लौटने वाले को माफ नहीं किया जाता! हमें ऐसे जंगल की आदत नहीं है, इसलिए यहाँ भटकना ठीक नहीं| देखने लायक बहुत कुछ रहकर भी यकीनन आप की आँखें वह देख नहीं पाएगी| यहीं के प्रशिक्षित स्थानिक मार्गदर्शक/ गाईड का कोई विकल्प नहीं| आपका यह गाईड यहाँ की महज समृद्ध वनसंपदा ही नहीं दिखाएगा, परन्तु यह ध्यान रहे कि, वह यहाँ का वनरक्षक और सांस्कृतिक वारिस भी है! यह पथप्रदर्शक रोमहर्षक प्रकार से इस जंगल का राज़ सुलझाकर बताएगा, साथ ही, खासी जनजाति की धार्मिक और सांस्कृतिक श्रद्धा तथा इस जंगल का संबंध विस्तारपूर्वक बतलाएगा! प्रिय पाठकों, वह यहाँ की एक एक पत्ती को देखते हुए यहीं बड़ा हुआ है! यहाँ की दंतकथाएं उसीके प्रभावपूर्ण निवेदन में सुनिएगा मित्रों| मजे की बात यह है कि सभी गाइड एक ही जबानी बोलते हैं (समान प्रशिक्षण!), हमारा युवा गाइड एकदम धाराप्रवाह अंग्रेजी बोल रहा था| उसने हमें खासी भाषा के बारे में भी कुछ ज्ञान दिया।

अब इस वनसम्पदा की नयनाभिराम और विस्मयकारक चीजें देखते हैं! 

नयनरम्य जंगल की पगडंडी (फॉरेस्ट ट्रेल)

यहाँ की टेढ़ी मेढ़ी राहें पर्यटकों को अगोचर लगेगी ऐसी ही हैं! यहाँ पर टहलते हुए वृक्षलताओं के अनायास सजे हुए मंडप या छत के नीचे से जाते जाइये| यह सदाहरित घनतिमिर बन आप के ऊपर अपनी प्रेमभरी छत्रछाया का आँचल फैलाते हुए सूर्यकिरणों का स्पर्श तक होने नहीं देगा! यहाँ की पतझड़ की सुन्दर और अद्भुत रंगावली हरे और हल्दी जैसे पीत वर्ण से सजी होती है! यह घना वनवैभव निरंतर हवा के झोकों के संगीत पर दोलायमान होकर झूमते और लहराते रहता है! ये पगडंडियां हमें लेकर जाती हैं यहाँ की सांस्कृतिक परंपरा के विश्व में!

वर्षा ऋतु में अगर मूसलाधार बारिश हो रही हो तो, यह यात्रा कई गुना दुर्गम हो जाती है! यहीं सुगम्य राहें अब फिसलन और काई से भर जाती हैं! (हमारे अनुभव के बोल हैं ये!) हम लोगों ने आधे से भी अधिक बन देखा, परन्तु बाद में पगडण्डी पर भी चलना कठिन हुआ, अलावा इसके कि, नदी को लांघकर ही आगे जाना होगा, वापसी का और कोई रास्ता नहीं, ऐसी जानकारी गाइड ने दी और फिर हम वापस आए| प्रिय पाठकों, सितम्बर- अक्टूबर के महीनों में इस परिसर को भेंट देना उत्तम रहेगा!

एकाश्म/ मोनोलिथ्स

इस बन का रहस्य वर्धित करनेवाले अनाकलनीय स्थानोंपर एकाश्म/मोनोलिथ्स (monoliths) स्थित हैं| मोनोलिथ यानि एक खड़ा विशाल पाषाण या एकाश्म/ एकल शिला! गाईडने बतलाया कि, एकाश्म खासी लोगों के पूजास्थान हैं| वे इनका उपयोग पशु बलि देने के लिए करते हैं| हम जिस सहजता से मंदिर में जाकर घण्टी बजाते हैं उसी प्रकार ये लोग पशु बलि देते हैं| यहाँ पर एक मोनोलिथ फेस्टिव्हल (उत्सव) भी होता है, आदिवासियों की सांस्कृतिक विरासत तथा वैभव के दर्शन करने का यह उत्तम अवसर होता है| उस समय ऐसा प्रतीत होता है, मानों यह सकल जंगल जीवंत हो अपनी कहानी खुद बखान कर रहा हो!

खासी हेरिटेज गांव

गांव के लोगों की हस्तकला का दर्शन और उनकी झुग्गी झोपड़ियों से बना यह गांव प्रदर्शन हेतु तैयार किया जा रहा है! इसका काम विविध स्तरों पर जारी है ऐसा गांववालों ने बताया|

लबासा, जंगलकी देवता

लबासा, यह है शक्तिशाली देवता, इसी जंगल में संचार करनेवाली, इस प्रदेश के सकल लोगों का उद्धार करनेवाली और उनका श्रद्धास्थान! इसीलिये देखिये न इसकी कृपा से गांव वालों की समस्त उपजीविका जंगल के इर्द गिर्द घूम रही है| बीमारी हो, नसीब का फेरा हो या रोजमर्रा की कोई भी परेशानी हो, यह देवता उनके विश्वास का प्रमुख आधार हैं। किंवदंती है कि, आदिवासी लोगों की रक्षा के लिए यह देवता बाघ या तेंदुए का रूप ले सकती है। देवता को प्रसन्न करने हेतु मुर्गे या बकरे की बलि दी जाती है। इसी जंगल में गांववाले अपने मृतकों को जलाते हैं|

अगले भाग में चलेंगे एक अत्यंत कठिन ट्रेल पर!

तो अभी के लिए खुबलेई! (khublei) यानि खास खासी भाषा में धन्यवाद!)

डॉ. मीना श्रीवास्तव             

टिप्पणी

*लेख में दी जानकारी लेखिका के अनुभव और इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी पर आधारित है| यहाँ की तसवीरें और वीडियो (कुछ को छोड़) व्यक्तिगत हैं!

*गाने और विडिओ की लिंक साथ में जोड़ रही हूँ|

https://photos.app.goo.gl/nbRv3RzAUpaEY12V7

सेक्रेड ग्रूव्हस- प्रवास का आरम्भ हमारे गाईड के साथ!

“घन घन माला नभी दाटल्या” चित्रपट -“वरदक्षिणा”

गायक मन्ना डे, गीत ग दि माडगूळकर, संगीत वसंत पवार

© डॉ. मीना श्रीवास्तव

८ जून २०२२     

ठाणे 

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मी प्रवासिनी ☆ धीर समीरे सरयू तीरे ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

? मी प्रवासिनी ?

धीर समीरे सरयू तीरे ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆

राम राम वाचकहो!

२०२२ च्या रामनवमीचा पावन दिन, ठाण्यातील ‘राम गणेश गडकरी सभागृहात’ गीत रामायणाचे आवर्तन सुरु होते.  श्रीधर फडके यांचे स्वर! गाणे होते आपले सर्वांचे कंठस्थ अन हृदयस्थ, ‘सरयू तीरा वरी अयोध्या, मनू निर्मित नगरी’! देहभान हरपून गाणे हृदयात सामावून घेण्याची माझी ही पहिली वेळ नव्हे!

‘सामवेदसे बाळ बोलती, सर्गामागुन सर्ग चालती,

सचीव, मुनिजन, स्त्रिया डोलती, आंसवे गाली ओघळती

कुश लव रामायण गाती’

अशी अवस्था प्रत्येक वेळी प्रेक्षकांची होते, तशीच त्या दिनी होती. मात्र तशातच (होऊ नये असे वाटत असतांना नेमके) मध्यांतर झाले. या मध्यंतरात अचानक एखादी ‘देववाणी’ कानी पडावी तसे श्रीधरजींचे भावपूर्ण शब्द कानी पडले. “मी अयोध्येत गीत रामायण सादर करणार आहे जुलै २०२२ ला! शरयू किनारी, तेव्हाही कोरस मध्ये अशीच साथ द्यायला या मला!” तेव्हां मी अंतर्बाह्य मोहरून गेले! स्वप्नात, गाण्यात अन पुस्तकात कल्पिलेली अयोध्या, रामाच्या वास्तव्याने जिचा कण कण पुनीत झाला आहे, ज्या सरयू नामक सरितेच्या किनारी प्रत्यक्ष मनू (प्रथम मानव) ने निर्माण केलेली ती भव्य दिव्य नगरी, जिथे रामाचे आदर्श ‘रामराज्य’ प्रत्यक्ष साकारले ती अयोध्या! याची देही, याची डोळा अन याची हृदया बघायला मिळेल. डोळ्यात प्राण आणून ही नगरी बघावी, अन कानात जीव ओतून श्रीधरजींच्या मुखातून गीत रामायण ऐकावे, यालाच मणी कांचन योग म्हणावे! या अमृतमय योगायोगात अजूनच माधुर्य यायचे होते. त्याच अवधीत जेष्ठ गायक आणि कीर्तनकार श्री चारुदत्त आफळे रामकीर्तनरंगाने अयोध्येचे आसमंत उजळून टाकणार होते. आणखी काय हवे! सर्व कांही मनासारखे घडत असतांना मी अचानक आजारी पडले, माझी कोरोना टेस्ट पॉझीटीव्ह होती! मात्र डॉक्टरांचा उचित सल्ला घेतल्यावर लक्षात आले की, गाडी सुटण्याच्या आदल्या दिवशी माझ्या कोरोनाचा ‘एकांतवास’ संपणार होता. मनातल्या मनात रामनामाचा गजर सुरु होता. सोबत असलेल्या अशक्तपणावर हेच ‘रामबाण’ औषध होते.

मंडळी, यात्रेच्या निर्धारित कार्यक्रमानुसार  मध्यरात्री जवळपास १२ च्या सुमारास आम्ही अयोध्येत पाऊल ठेवले. तीर्थक्षेत्राला अनुरूप अशा ‘जानकी महल’ या बऱ्यापैकी मोठ्या वास्तूतील आम्ही आरक्षित केलेल्या खोल्यांमध्ये प्रवेश मिळाला. सक्काळी सक्काळी तेथील भित्त्तिचित्रांतील रामाच्या जीवनातील विविध प्रसंग दर्शवणारे सुंदर रंगकाम, राम सीता, लक्ष्मण, तसेच हनुमान यांची प्रेक्षणीय देवालये बघून रात्रीचा थकवा कुठल्याकुठे पळून गेला. सकाळी सात्विक अल्पाहार, नंतर लगेच चारुदत्तजींचे कीर्तन अन संध्याकाळी श्रीधरजींचे गीत रामायण याप्रमाणे बहुपेडी रामसंकीर्तन, भजन, नामस्मरण अन गायन असा भरगच्च सत्संग कार्यक्रम होता.

‘अशनि राम पाणि राम, वदनि राम, नयनी राम

ध्यानी मनी एक राम, वृत्ती राम जाणिल काय

रामचंद्र मन मोहन नेत्र भरून पाहिन काय!’

हे माणिक बाईंचे भक्तिरसाने ओथंबलेले शब्द मनात गुंजायमान होत होते.! सकाळ संध्याकाळचे राम नाम संकीर्तनाचे तास वगळून, मी आणि माझ्या मैत्रिणीने अयोध्या दर्शनाचा जमेल तसा अन जमेल तितका लाभ घेण्याचे ठरवले.    

सर्वप्रथम श्रीराम जन्मभूमी बघण्याची ओढ होती, मात्र मी गेले तेव्हा भाविकांसाठी त्या स्थळी एक तात्पुरते छोटेसे राम मंदिर बघायला मिळाले. त्याच मंदिराचे मनोभावे दर्शन घेता घेता रामजन्म भूमीचा विस्तीर्ण परिसर बघितला. मजबूत लोखंडी जाळ्यांच्या आडून मंदिराचे निर्माणकार्य वेगात सुरु असलेले दृष्टिपथास पडत होते.  शेकडो कारागिरांकडून अहोरात्र हस्त शिल्पे साकारण्यात येत होती. मंडळी, आजच्या या माहिती तंत्रज्ञानाच्या युगात आपणासाठी अयोध्येत कोणते सामान कुठून आले, रामाची मूर्ती कुणी बनवली या आणि इतर गोष्टी लहान मोठ्या पडद्यांवर उपलब्ध आहेत. मात्र ‘स्थानमाहात्म्य’ लक्षात घेतले तर, ज्या रजकणांना रामाच्या चरणांचा स्पर्श झाला आहे, तेच कण आपल्यासाठी श्रद्धासुमने आहेत. होय ना!   

हनुमानगढी, दशरथ महल, कौशल्या महल, इत्यादी मंदिरे बघण्याचे आम्हाला अहोभाग्य लाभले. ‘हनुमान गढी’ नावाच्या टेकाडावर हनुमानाचे दहाव्या शतकातील प्राचीन मंदिर आहे. व्यवस्थित बांधलेल्या पायऱ्या चढून गेल्यावर हनुमानाचे मंदिर नजरेस पडते. 

आमच्यापैकी बरीच मंडळी रोज पहाटे उठून सरयू किनाऱ्यावर पायीच जात स्नानाचा लाभ घेत असत. तिथे ‘राम की पौडी’ नावाने प्रसिद्ध असलेले घाट आणि कपडे बदलण्यासाठी (महिला आणि पुरुष यांचे वेगळे) आडोसे आहेत.  आम्ही जुलै २०२२ च्या पहिल्या आठवड्यात गेलो तेव्हा उन्हाळा सुरूच होता. क्वचित दोन वेळी पाऊस झाला. अशा तप्त वातावरणात प्रभातकाळीं सरयूच्या तीरावर चालत जातांना हलकेच स्पर्श करणाऱ्या आनंदी वायुलहरी अति सुखद आणि शीतल प्रतीत होत होत्या. हा सरयू किनारीचा संपूर्ण परिसर श्री रामचंद्राच्या वास्तव्याने पुनीत झालेला असल्याने अधिकच भक्तिमय झाला होता. सरयू किनारी लक्ष्मण मंदिर (तिथेच स्थित लक्ष्मण घाट आहे. रामाच्या त्यागाने दुःखसागरात बुडालेल्या लक्ष्मणाने आपला पार्थिव देह इथेच सरयू नदीत अर्पण केला) आणि जवळच रामचंद्र घाट आहे. इथे रामाने आपला देह सरयूत विसर्जित केला. त्यापाठोपाठ त्याचे बंधू बांधव आणि प्रजाजन या सर्वांनी देखील जलसमाधी घेतली! मित्रांनो, सरयू नदीत नौकानयन उपलब्ध आहे, त्या दरम्यान हे दोन घाट बघितले! 

सरयू नदीच्या पावन जलात नौकानयन करतांना तीराच्या लगत असलेली मंदिरे अत्यंत रमणीय दिसतात. नौकेत बसल्यावर ‘ धीर समीरे सरयू तीरे ‘ चा अनुभव अमृतसम होता. मन गुंतले होते श्रीराम प्रभूच्या चिंतनात! त्या तरंगिणीची प्रत्येक लहर जणू रामनामाचा गजर करीत नौकेवर आदळत होती. त्या प्रभात समयी सरयूच्या पावन स्पर्शाने धन्य झाले. मंडळी, नदीकिनारी आढळले एक अतिशय सुबक, सुंदर मंदिर, काळारामाचे! हुबेहूब नाशिकच्या काळाराम मंदिरासारखेच, एका अखंड काळ्याभोर शिळेत कोरलेल्या राम, सीता आणि रामबंधूंचे! तिथे नाशिकहून (स्वप्नात श्रीरामप्रभूंनी दिलेल्या आज्ञेनुसार) इथे सरयू तीरी राममंदिर निर्माण करणाऱ्या मराठी पुजाऱ्यांचे वंशज, भिंतींवर मराठी भाषेत लिहिलेली माहिती, इत्यादी बघून मन अभिमानाने भरून आले.

या प्राचीन मंदिरांच्या मांदियाळीत एक आगळेवेगळे मंदिर खूपच भावले. ते म्हणजे मनात संचित करून ठेवलेले अयोध्येतील लक्षवेधी वाल्मिकी मंदिर! तेथे आद्यकवी वाल्मिकी आणि त्यांचे शिष्य कुश लव यांच्या कोरीव, सुरेख देखण्या शुभ्र धवल मूर्ती तर आहेतच, पण विस्तीर्ण मंदिराच्या संगमरवरी भिंतींवर कोरलेले संपूर्ण वाल्मिकी रामायण आणि त्या त्या प्रसंगांना अनुरूप चितारलेली भित्तिचित्रे. बघता क्षणी भान हरपावे अशी कलाकुसर! मंडळी हे मंदिर बघून अतीव समाधान लाभले. अयोध्येतील गुरु-शिष्यांचे हे अलौकिक स्मारक प्रेक्षणीय आणि अविस्मरणीय, पुरातन मंदिर नसूनही!

आणखी किती देवालये, अन किती आठवणी स्मराव्यात परमपवित्र तीर्थक्षेत्र अयोध्येच्या! सप्तपुरीतील एक पुरी अयोध्येतील ते मंतरलेले दिवस, तिथला एक एक क्षण आयुष्याला समृद्ध करून गेला.  

जानकी महालाच्याच परिसरात असलेल्या शामियान्यात रामसंकीर्तन आयोजित केले गेले होते. सकाळी चारुदत्त आफळेजींच्या कीर्तनादरम्यान रामकथेतील मुख्य कथाबीज ऐकतांना आणि त्यांच्या मुखातून भक्तिरसात न्ह्यायलेली गाणी आणि अभंग ऐकतांना किती म्हणून समरस झालोत. त्यांच्या आवाजाला शास्त्रीय संगीताची बैठक असल्याने ही गाणी उत्कृष्ट संगीताची मेजवानीच असायची. कीर्तनात भक्तिरंगासोबतच हास्यरंग भरीत चारुदत्तजी यांनी आपल्या आख्यानात कित्येक सुंदर कथा सांगितल्या आणि त्यांचे निरूपण केले. तसेच त्यांच्या सोबत संपूर्ण भक्त समूहाने समर्पित होऊन साथ देत

गायलेले ‘नादातुनी या नाद निर्मितो, श्रीराम जय राम जय जय राम’ हे मधुरतम राम संकीर्तन आणि ताल मृदूंगासमवेत गायलेल्या समूह आरत्या, भक्तीच्या पराकाष्ठेची अनुभूती देत असत. 

संध्या समयी श्रीधरजींचे गीत रामायण सादर होत असे! कांही दिवशी श्रीधरजींनी रामचंद्रांची भक्तिगीते देखील सादर केली.  अयोध्येच्या रम्य परिसरात ‘सरयू तीरावरी अयोध्या’ हे अयोध्येचे चित्रवत वर्णन करणारे गाणे आणि ‘राम जन्मला ग सखी’ हे राम जन्माचे अजरामर गाणे अक्षरशः कृतकृत्य करून गेले! (आयोजकांनी कल्पकता दाखवीत या गाण्याच्या जोडीला प्रशिक्षित कथक नृत्यांगनांचे समर्पक नृत्य ही सादर केले) श्रीधरजींसोबत कोरसमध्ये गातांना एक अनवट ऊर्जा अंगात संचारली होती. मनाला भिडणारी सर्वात सुंदर गोष्ट म्हणजे दोघांचा सुरस समन्वय, त्यामुळे आम्हा भक्तगणांना रामकथेचे कीर्तनरंग आणि गीतरंग या दोहोंचा उत्कृष्टरित्या आस्वाद घेता आला. एकंदरीत या कार्यक्रमात मला आलेला असा भावानुभव विरळा. त्याकरता आफळे गुरुजी आणि श्रीधरजी या द्वयीला सादर वंदन आणि त्यांचे अमाप आभार!    

हे रघुकुलभूषण श्रीराघवेंद्रा! या शब्दांकुरांच्या अंती आता तुलाच साकडे घालायचे राहिले! हे कृपासिंधू रामराया, परत एकवार अयोध्येत तुझ्या चरण सेवेशी रुजू व्हायचे आहे. पूर्णत्वास गेलेले राममंदिर अन तिथे अधिष्ठित झालेली तुझी साजिरी गोजिरी मूर्ती नजरेत भरून घ्यायची आहे! संपूर्ण मंदिर क्रमाक्रमाने नयनांच्या ज्योतीत आणि हृदयाच्या गर्भगृहात दाखल करून घ्यायचे आहे. तवरीक परत एकदा ज. के. उपाध्ये यांचे अमृताहुनी गोड असे माणिकबाईंच्या भक्तिमय स्वरांतील शब्द फिरफिरुनि स्मरते!

‘रामचंद्र मनमोहन नेत्र भरून पाहिन काय!

सतत रमवि जे मनास, ज्यात सकल सुखनिवास

सुधाधवल विमल हास, अनुभवास येईल काय?

जाऊ तरी कुणास शरण, करील कोण दुःख हरण

मजवरि होऊन करूण, प्रभुचं चरण दावील काय?’

अयोध्यापती श्रीरामाच्या दर्शनाच्या अनिवार इच्छेसमवेत ही शब्दकुसुमांजली त्याच्याच चरणकमली रुजू करते! जय श्रीराम!

© डॉ. मीना श्रीवास्तव

ठाणे 

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ पर्यटक की डायरी से – धीर समीरे सरयू तीरे ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

☆ धीर समीरे सरयू तीरे ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

राम राम पाठकगण!

२०२२ के राम नवमी के शुभ दिन पर ठाणे के ‘राम गणेश गडकरी सभागार’ में ‘गीत रामायण’ का आवर्तन जारी था। ‘आधुनिक वाल्मिकी’ के नाम से नवाजे जाने वाले ग. दि. माडगूळकर अर्थात ग दि मा के कालजयी शब्द, स्वरतीर्थ सुधीर फडके अर्थात बाबूजी का स्वर्गीय संगीत और उनकी गीत-संगीत की सुरीली विरासत को आगे बढ़ाने वाले उनके सुपुत्र श्रीधर फडके के स्वर! हम सभी के कंठ और हृदय में समाहित यहीं गीत था, ‘सरयू तीरावरी अयोध्या, मनूनिर्मित नगरी’! अर्थात ‘सरयू तट पर बसी अयोध्या, मनु निर्मित नगरी” (प्रिय पाठकों, मराठी के प्रसिद्ध गीतकाव्य गीत रामायण के समस्त ५६ गीतों का शब्द-अर्थ और भाव समेत सुन्दर अनुवाद किया है गीत रामायण के हिंदी संस्करण में श्री दत्तप्रसाद द जोग ने! इस हिंदी संस्करण की मैं जितनी भी तारीफ करूँ कम है क्योंकि, सारे गीतों के बोल ऐसे रचे गए हैं कि, बाबूजी द्वारा संगीतबद्ध किये हुए मराठी गानों की तरह ये हिंदी गीत भी वैसे ही हूबहू गाये जा सकते हैं! कवी जोगजी के इस महनीय कार्य को मेरा विनम्र अभिवादन) मित्रों, यह पहली बार नहीं था कि, मैंने इस गीत को तन्मयता से सुनकर मैंने अपने हृदय में समाहित कर लिया!

‘सामवेदसे बाळ बोलती,

सर्गामागुन सर्ग चालती

सचीव, मुनिजन, स्त्रिया डोलती,

आंसवे गाली ओघळती’

कुश लव रामायण गाती’

(‘साम-वेद-से बोले बालक, सर्ग-सर्ग से कहें कथानक सचीव, मुनिजन, श्रोता भावुक, समूचे बिसरे हैं भवभान कुश लव रामायण गीत-गान)

हर बार दर्शकों की जैसे यह अवस्था होती है, वैसे ही उस दिन भी थी| लेकिन तभी (जब ऐसा लग रहा था कि, यह ना हो) मध्यांतर हो गया| इसी अंतराल में श्रीधरजी के भावुक शब्द अचानक किसी ‘दिव्य वाणी’ की तरह कानों में गूंजने लगे, “मैं जुलाई २०२२ में अयोध्या में गीत रामायण प्रस्तुत करूंगा! सरयू तट पर आप लोग आइये और मेरा साथ दीजिये कोरस में!” यह सुनकर मैं तो अंतर्बाह्य रोमांचित हो उठी| स्वप्न में, गीतों में और पुस्तकों में मैंने कल्पना की हुई अयोध्या, जिसका कण-कण राम के वास्तव्य से पुनीत हुआ है, सरयू नामक सरिता के तट पर मनु (प्रथम मानव) द्वारा बनाई गई वह भव्य दिव्य नगरी अयोध्या, जहां राम का आदर्श ‘रामराज्य’ वास्तव में साकार हुआ था! तन मन और ह्रदय में यह छबि संजोकर रखने का अनोखा अवसर मिलेगा, आंखों में सम्पूर्ण प्राणज्योति को प्रज्वलित कर इस नगरी का दर्शन करुँगी और श्रीधरजी के मुख से कानों में अमृत रस घोलने वाला ‘गीत रामायण’ सुनूंगी। इसे तो मणि कंचन योग ही कहना चाहिए! लेकिन मित्रों, इस अमृतमय संयोग में और भी मिठास घुलने वाली थी। इसी अवधि के दौरान, वरिष्ठ गायक और कीर्तनकार श्री चारुदत्त आफळे अपने रामकीर्तन से अयोध्या के अवकाश को भक्तिमय करने वाले थे। अब और क्या चाहिए था! जब सब कुछ मन माफिक चल रहा था, तब अचानक मेरी तबीयत खराब हो गई, मेरा कोरोना टेस्ट पॉजिटिव आया! अब तो मेरे होश उड़ गए| लेकिन डॉक्टर से सलाह लेने के बाद मुझे एहसास हुआ कि, ट्रेन छूटने के एक दिन पहले ही मेरा कोरोना का ‘एकान्तवास’ ख़त्म होने वाला था| मन ही मन में मैं रामनाम का जाप कर रही थी| कोरोना ने भेंट की हुई कमजोरी के लिए यहीं एक ‘रामबाण’ औषधि थी।

पाठकों, यात्रा के निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार नैमिषारण्य, प्रयागराज और काशी की हमारी यात्रा सफलतापूर्वक सम्पन्न हुई, रात करीबन १२ बजे हमने अयोध्या में कदम रखा। तीर्थ स्थल के अनुरूप एक काफी बडी संरचना ‘जानकी महल’ में हमें हमारे आरक्षित कमरों में प्रवेश दिया गया| सुबह-सुबह वहाँ की  भित्तिचित्रों पर चित्रित राम के जीवन के विभिन्न दृश्यों तथा राम सीता, लक्ष्मण और हनुमान के नयनाभिराम मंदिरों को देखकर रात की थकान कहीं दूर भाग गई। धीरे-धीरे यात्रा का टाइम टेबल समझ में आने लगा । सुबह सात्विक अल्पाहार, उसके तुरन्त बाद, चारुदत्तजी द्वारा कीर्तन और संध्या समय को श्रीधरजी द्वारा गीत रामायण जैसे बहुआयामी रामसंकीर्तन, भजन, नाम स्मरण और गायन ऐसा कसा हुआ भव्य सत्संग कार्यक्रम था।

जय रघुनंदन जय सियाराम, हे दुखभंजन तुम्हें प्रणाम ||

भ्रात भ्रात को हे परमेश्वर, स्नेह तुन्ही सिखलाते |

नर नारी के प्रेम की ज्योति, जग मे तुम्ही जलाते |

ओ नैया के खेवन हारे, जपूं मै तुम्हरो नाम |१ |

मोहम्मद रफ़ी एवं आशा भोसले के भक्तिरस में डूबे हुए ये शब्द मन में गुंजायमान हो रहे थे! राम नाम संकीर्तन के सुबह और शाम के घंटों को छोड़कर, मैंने और मेरी सहेली ने जितना संभव हो, उतना अयोध्या दर्शन का लाभ उठाने का फैसला किया। इधर जानकी महल के प्रवेश द्वार पर तैनात सुरक्षा गार्ड प्रभु की तरह मददगार सिद्ध हुआ  उसके द्वारा दी गई जानकारी के आधार पर मंदिरों और सरयू की यात्रा का दौर प्रारम्भ हुआ। आयोजकों ने कुछ स्थानों के निःशुल्क दर्शन भी करवाए। पाठकों, लगभग छह दिनों तक वहाँ रहकर कुछ देखा और कुछ रह गया (मुख्यतः नंदीग्राम)। लेकिन संतुष्टि इस बात की थी कि, हम अयोध्या में थे ! सर्वप्रथम तो श्रीराम जन्मभूमि देखने का आकर्षण बना हुआ था, लेकिन जब मैं वहाँ पर गई तो, भक्तों के लिए एक अस्थायी छोटा राम मंदिर देखने को मिला। उसी मंदिर के सकल भक्तिभाव से दर्शन करते समय मुझे राम जन्मभूमि का विस्तीर्ण क्षेत्र दिखाई दिया। लोहे की मजबूत जालियों के पीछे से तेज गति से चलता हुआ मंदिर का निर्माण कार्य देखा जा सकता था। उसके निकट ही एक फैक्ट्री में हो रहे निर्माण कार्य को देखने की अनुमति दी गई थी| सैकड़ों कारीगर अनवरत हस्तशिल्प बनाने में लगे थे| दोस्तों, आज के सूचना प्रौद्योगिकी के इस युग में, अयोध्या में क्या चीजें कहां से आईं, राम की मूर्ति किसने बनाई और तत्सम सभी चीजें हमारे लिए बड़े और छोटे पर्दे पर उपलब्ध होतीं रहीं हैं। परन्तु अगर हम ‘स्थानमहात्म्य’ पर विचार करें, तो जिन भूमिकणों को राम के चरणों ने छुआ है, वहीं धूलिकण हमारे लिए श्रद्धासुमन हैं!

हमें हनुमानगढ़ी, दशरथ महल, कौशल्या महल आदि मंदिरों को देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। ‘हनुमान गढ़ी’ नामक पहाड़ी पर १० वीं शताब्दी में बना हुआ एक प्राचीन हनुमान मंदिर है। सुघड रूप से निर्मित सीढ़ियाँ चढ़ने के उपरान्त, हनुमान मंदिर दिखाई देता है।

जानकी महल, अर्थात हमारा आवास सरयू नदी से लगभग 3 किमी दूर था। हममें से कई यात्री रोज बड़े सवेरे पैदल जाकर सरयू नदी में स्नान करने जाते थे| वहाँ ‘राम की पौडी’ नामक घाट है| पुरुषों और महिलाओं के लिए कपडे बदलने की (अलग-अलग) सुविधा उपलब्ध है। इन घाटों पर स्नान के लिए श्रद्धालुओं की सदैव भीड़ लगी रहती है। जब हम जुलाई २०२२ के पहले सप्ताह में गए, तब भी गर्मी का मौसम जारी था। शायद ही कभी कभार दो बार बारिश हुई हो| ऐसे तपिश भरे वातावरण में भोर के समय सरयू के तट पर चलते हुए, हलके से स्पर्श करने वाली प्रसन्न वायु की लहरें बहुत सुखद एवं शीतल प्रतीत हो रही थीं। सरयू तट का संपूर्ण क्षेत्र श्री रामचन्द्र के निवास से पुण्यशील होने के कारण भक्तिमय हो उठा था| सरयू  के तट पर लक्ष्मण मंदिर (लक्ष्मण घाट यहीं स्थित है,राम के द्वारा त्यागे जाने पर दुःख के सागर में डूबे लक्ष्मण ने अपना नश्वर शरीर यहीं सरयू नदी में प्रवाहित किया था) तथा वहाँ से निकट ही रामचन्द्र घाट है। यहां राम ने अपने शरीर को सरयू के जल में विसर्जित किया था । उनके बाद उनके बंधु-बांधव और प्रजाजनों ने भी जल समाधि ले ली| मित्रों, शरयू नदी में नौकायन (बोटिंग) की सुविधा उपलब्ध है, इस दौरान ही हमने ये दो घाट देखे!

सरयू नदी के पवित्र जल में नौकायन करते समय किनारे के मंदिर अत्यंत रमणीय लगते हैं। नौका में बैठने के बाद ‘धीर समीरे सरयू तीरे’ का अनुभव अमृतसम था। मन श्री राम प्रभु के चिंतन में लीन था| उस तरंगिणी की हर लहर मानों राम नाम की धुन के साथ नौका से टकरा रही थी। उस प्रभात बेला में सुबह सरयू के पवित्र स्पर्श से धन्य हो गई। प्रिय पाठकों, नदी के तट पर हूबहू नासिक के काळाराम मंदिर की तरह राम, सीता और रामबंधुओं का, एक अखंड काली शिला में निर्मित एक बहुत सुंदर बारीकी से तराशा हुआ काळाराम मंदिर देखने को मिला! वहाँ नासिक से आकर यहाँ सरयू के किनारे (श्रीरामप्रभु द्वारा स्वप्न में दिए गए आदेश के अनुसार) यहाँ राम मंदिर का निर्माण करने वाले मराठी पुजारियों के वंशज, दीवारों पर मराठी भाषा में लिखी जानकारी, आदि देखकर मेरा मन गर्व से अभिभूत हो उठा।   

इन प्राचीन मंदिरों के जमघट में बिलकुल अलग प्रकार का एक मंदिर बहुत ही भाया| यह अयोध्या में निर्मित आकर्षक वाल्मिकी मंदिर है, जिसे मन की गहराई में मैंने बड़ी ही सावधानी से  समाहित कर रखा है| यहां न केवल आद्य कवि वाल्मिकी और उनके शिष्य कुश लव की सुंदर, मनमोहक शुभ्र धवल मूर्तियाँ हैं, बल्कि विशाल मंदिर की सफेद संगमरमर की दीवारों पर उकेरी गई सकल वाल्मिकी रामायण और उस उस वर्णित प्रसंग के अनुरूप भित्तिचित्रों का मनमोहक शिल्प कौशल देखते ही बनता है|  मित्रों, यह मंदिर देखकर अति प्रसन्नता का अनुभव हुआ| अयोध्या में गुरु-शिष्यों का यह अलौकिक स्मारक भव्य और अविस्मरणीय है, भले ही यह प्राचीन मंदिर न हो! मंदिर परिसर में देखने लायक अन्य छोटे मंदिर भी हैं। 

और कितने ही मंदिर और अयोध्या के परम पवित्र तीर्थ स्थल की कितनी यादें सँजोकर रखूं! सप्तपुरी में एक पुरी, अयोध्या में बिताए वे मंत्रमुग्ध करने वाले दिन! उनके एक एक क्षण ने जीवन को समृद्ध किया। वहाँ के ऑटो चलाने वाले मुझे बहुत निराले और भले लगे| चाहे यात्री कोई भी हो और वह कहीं भी जा रहा हो, एकाध अपवाद को छोड़कर, उनका शुल्क मात्र प्रति व्यक्ति १० रुपये बताया जाता| उसमें अधिकतम इजाफा होता तो बस १५ रुपये तक! 

जानकी महल परिसर में स्थित शामियाने में राम संकीर्तन का आयोजन किया गया था। सुबह चारुदत्त आफळेजी के कीर्तन में रामकथा की मुख्य कथा सुनकर और उनके मुख से भक्ति गीत और अभंगों का श्रवण कर असीम आनंद का अनुभव हुआ। शास्त्रीय संगीत से सजे सँवरे उनके स्वरों में वे गीत किसी उत्कृष्ट संगीत महोत्सव में उपस्थित रहने की अनुभूति देते थे| कीर्तन में भक्तिरस के साथ ही हास्यरंग का अद्भुत मिलाप करते हुए चारुदत्तजी ने अपने कीर्तन में अनेक सुंदर कथाएँ साझा कीं और उनका गहन अर्थ भी समझाया। साथ ही उपस्थित संपूर्ण भक्त मंडली द्वारा भक्ति भाव से गाए गए ‘नादातुनि या नाद निर्मितो, श्रीराम जय राम जय जय राम’ इस मधुरतम राम संकीर्तन और ताल मृदुंग के साथ गाए जाने वाली सामूहिक आरती भक्ति की पराकाष्ठा का अहसास देती थीं।

संध्या की बेला में श्रीधरजी का गीत रामायण प्रस्तुत होता था! कुछ दिन श्रीधरजी ने रामचन्द्र के भक्ति गीत भी प्रस्तुत किये। साथ ही अपनी संगीत यात्रा के कुछ दिलचस्प किस्से भी साझा किए। अयोध्या के सुरम्य परिवेश में, अयोध्या का चित्रवत वर्णन करने वाला गीत ‘सरयू तीरावरी अयोध्या’ (‘सरयू तट पर बसी अयोध्या),और राम जन्म का अमर  गीत ‘राम जन्मला ग सखी’ (ठाठ देख सखी राम जन्म का) को सुनकर मेरी यात्रा अक्षरशः सम्पूर्ण रूप से सफल हो गई| (आयोजकों ने रचनात्मक अनूठेपन का दर्शन करते हुए इस गीत के साथ प्रशिक्षित कथक नर्तकों द्वारा एक उपयुक्त नृत्य भी प्रस्तुत किया।) श्रीधरजी के साथ कोरस में गाने से तन मन में एक अलग ही ऊर्जा प्रविष्ट हो जाती थी| मन को लुभाने वाली सबसे सुंदर बात थी, दोनों का सुरीला सामंजस्य, जिससे हम भक्तगण रामकथा के कीर्तनरंग और गीतरंग दोनों का पूर्ण आनंद ले सके। कुल मिलाकर इस कार्यक्रम में मुझे जो अनुभूति हुई वह दुर्लभ ही थी। उसके लिए आफळे गुरुजी और श्रीधरजी को सादर प्रणाम और उन्हें कोटि-कोटि धन्यवाद! इस उत्कृष्ट स्वर-तीर्थ-यात्रा के आयोजक, नैमिषारण्य के कालीपीठ के संस्थापक एवं कालीपीठाधीश गोपालजी शास्त्री को मेरा व्यक्तिगत धन्यवाद देती हूँ एवं उनका अभिनंदन करती हूँ! दुर्भाग्यवश कार्यक्रम के दौरान उनकी माताजी का निधन हो गया। परन्तु मातृत्व पीड़ा को स्वयं तक सीमित रख गोपालजी ने इस भव्य कार्यक्रम का सफल संचालन किया।

हे रघुकुलभूषण श्रीराघवेन्द्र! इन शब्दांकुरों के अंत में, अब आपकी प्रार्थना करनी रह गई है! हे कृपासिंधु रामप्रभु, मैं एक बार फिर अयोध्या में आपकी सेवा में शामिल होना चाहती हूँ| सम्पूर्ण रूप से तैयार राम मंदिर और वहाँ प्रस्थापित आपकी सांवली सलोनी मूर्ति को नजर में समा लेना चाहती हूँ! संपूर्ण मंदिर को क्रमशः आंखों की ज्योति में और हृदय के गर्भगृह में उतारना है। तब तक तुलसीदासजी के अमृत से भी मधुर भक्तिमय शब्दों का बारम्बार स्मरण करती हूँ| 

“श्री राम चंद्र कृपालु भजमन हरण भाव भय दारुणम्।

नवकंज लोचन कंज मुखकर, कंज पद कन्जारुणम्।।

इति वदति तुलसीदास शंकर शेष मुनि मन रंजनम्।

मम ह्रदय कुंज निवास कुरु कामादी खल दल गंजनम्।।“

अयोध्यापति श्री राम के चरणों के दर्शन की अदम्य इच्छा समेत यह शब्दकुसुमांजलि उन्हींके चरणकमलों पर अर्पण करती हूँ|  जय श्रीराम!

© डॉ. मीना श्रीवास्तव

ठाणे 

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ पर्यटक की डायरी से – मनोवेधक मेघालय – भाग-७ ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

☆ पर्यटक की डायरी से – मनोवेधक मेघालय – भाग-७ ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

(चेरापुंजी की गुफायें और बहुत कुछ कुछ!)

प्रिय पाठकगण,

आपको बारम्बार कुमनो! (मेघालय की खास भाषामें नमस्कार, हॅलो!)

फी लॉन्ग कुमनो! (कैसे हैं आप?)

अब हम चेरापूंजी तक आए हैं, तो पहले यहाँ के गुह्य स्थानों के अन्वेषण करने चलें! यहाँ हैं कई रहस्यमयी गुंफायें! चलिए अंदर, देखें और ढूंढें अंदर के अँधेरे में आखिरकार क्या छुपा है!      

मावसमई गुफा (Mawsmai Cave)

मेघालय की एक खासियत यानि भूमिगत गुफाओं का विस्तीर्ण मायाजाल, कुछ तो अभीतक मिली ही नहीं, तो कुछ में चक्रव्यूह की रचना, अंदर चले जाओ, लेकिन बाहर आने की कोई गैरंटी नहीं! कुछेक की राहें एकदम ख़ास, सिर्फ ख़ासियोंके बस की! अब तो सुना है एक ३५ किलोमीटर लम्बी गुफा की खोज हुई है! हम बस सुनते रहें ये फ़साने, मित्रों! मावसमई गुहा सोहरा (चेरापुंजी) से पत्थर फेंक अंतर पर (स्टोन्स थ्रो) और इसी नाम के छोटेसे गांव में है (शिलाँग से ५७ किलोमीटर)| यह गुम्फा कभी सुंदर, आश्चर्यचकित करनेवाली, कभी भयंकर, कभी भयचकित करनेवाली, ऐसा कुछ जो मैंने बस एक बार ही देखा, रोमांचकारी तथा रोमहर्षक! यहाँ हम गए तब (मेरे भाग अच्छे थे इसलिए) यात्रियों का जमघट था, फायदा यह कि वापस जाना मुश्किल, और उसमें गुफा के अंदर का सफर केवल २० मिनट का|  अब तक मेरा साथ निभानेवाले ट्रेकर्स शूज, बाहर ही रखे| नंगे पैर और खाली दिमाग से जाने का फैसला किया| मोबाइल का कोई उपयोग नहीं था, क्योंकि यहाँ खुद को ही सम्हालना बड़ा कठिन था| छोटे बड़े पाषाण, कहीं पानी, शैवाल, कीचड़, अत्यंत टेढ़ी मेढ़ी राह, कभी संकरी, कभी एकदम बंद होने की कगार पर, कभी तो एकदम झुककर जाओ, नहीं तो माथे पर पाषाणों का भीषण प्रहार झेलना पक्का! कुछ जगहों पर अंदर के दियों का प्रकाश, तो कुछ जगहों पर हमने (टॉर्च) का थोडासा प्रकाश डालना चाहिए, इसलिए एकदम अँधेरे में डूबी हुईं! मैं ट्रेकर नहीं हूँ, परन्तु इस गुफा का यह संपूर्ण अंतर मैंने कैसे पार किया, यह मैं अबतक खुद भी समझ नहीं पा रही हूँ! (पाठकों, इस लेख के अंत में गुफा के सौंदर्य का (!) किसी एक ने यू ट्यूब पर डाला विडिओ जरूर देखिये!)

मात्र वहां जिन जिन का स्मरण कर सकती थी उन्हीं भगवानों का नाम लेते लेते, मेरी सहायता करने दौड़ी आयी दो लड़कियां (हैद्राबाद की)! उनसे मेरी जान न पहचान, मेरी फॅमिली पीछे थी,  इन लड़कियों और उनकी माताओंने जैसे मेरा पूरा भार अपने ऊपर वहन कर लिया! एक छोटीसी बच्ची को जैसे हाथ पकड़ कर चलना सिखाया जाता है, उससे भी अधिक ममता दिखाते हुए उन्होंने मुझे अक्षरशः चलाया, उतारा और चढ़ाया| जैसे मैं वहां अकेली थी और ये दोनों बिलकुल राम लक्ष्मण के जैसे एक आगे और एक पीछे, ऐसा मेरा साथ निभा रही थीं! मित्रों, बाहर आकर मेरे आँखोमें गंगाजमनी जल भरा था, ऐसी भावुक हो उठी थी मैं! मेरी फॅमिलीने उनके प्रति आभार प्रकट किये, हमारा हमेशा का सेलेब्रेशन खाने के इर्द-गिर्द घूमता है, इसलिए मैंने उन्हें गुफा से बाहर आते ही कहा “चलो कुछ खाते हैं!” उन्होंने इतना सुन्दर उत्तर दिया, “नानी, आप बस हमें blessings दीजिये!” १४-१५ साल की ये लड़कियां, ये उनके संस्कार बोल रहे थे! (ग्रुप फोटो में बैठी हुईं दाहिने तारफ की दोनों)! उन्हें कहाँ ज्ञान था कि गुफा के संपूर्ण गहन, गहरे गर्भगृह में मैं उन्हीं को मन ही मन ईश्वर मान कर चल रही थी, आशीर्वाद देनेकी मेरी औकात कहाँ थी? मित्रों, आपकी कभी यात्रा के दौरान में ऐसे ईश्वरों से भेंट हुई है? इस वक्त यह लिखते हुए भी उन दोनों बड़ी ही प्यारीसी खिलती कलियों जैसी अनजान बच्चियों को मैं भावभीने ह्रदय से जी भर कर बहुत सारे blessings दे रही हूँ!!! जियो!!!  

आरवाह गुहा (Arwah Cave)

चेरापुंजी बस स्थानक से ३ किलोमीटर अंतर पर है आरवाह गुफा, यह बड़ी गुफा Khliehshnong इस क्षेत्र में है| इसमें खास देखने लायक है चूना पत्थर (लाइमस्टोन) की रचनाएँ और जीवाश्म, अत्यंत घनतम जंगल से घिरी हुई, साहसी ट्रेकर्स तथा पुरातत्व तत्वों पर प्रेम करने वालों के लिए तो बेशकीमत खजाना ही समझिये! यह गुफा मावसमई गुफा से बड़ी है, लेकिन उसका थोड़ासाही हिस्सा पर्यटकोंको देखने के लिए खुला है| ३०० मीटर देखने के लिए २०-३० मिनट लगते हैं| परन्तु यहाँ गाईड जरुरी है, गुफा में गहरे तिमिर का साम्राज्य, तो कहीं कहीं अत्यंत संकरे सुरंग से, कभी फिसलन भरे पथरीले रास्ते से, तो कभी पानी के शीतल प्रवाह के बीच से आगे सरपट सरकते हुए कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है! डरावने माहौल में और टॉर्च के धीमे उजाले में अनेक कक्ष दिखाई देते हैं, उनमें गुम्फा की दीवारों पर, छतपर और पाषाणों पर जीवाश्म (मछलियां, कुत्तेकी खोपड़ी इत्यादी) नजर आते हैं|  यहाँ के चूना पत्थर(लाइमस्टोन) की रचनाएँ और जीवाश्म लाखों वर्षों पूर्व के हो सकते हैं|  प्रिय पाठकों, यह जानकारी मेरे परिवारजनों द्वारा प्रदान की गई है|  गुफा तक ३ किलोमीटर सीढ़ियों का रास्ता, संपूर्ण क्षेत्र में घनी हरितिमा का वनवैभव, मैं गुफा के द्वार के मात्र ५० मीटर अंतर पर ही रुक गई| मुझे गुफा का दर्शन अप्राप्य ही था| इस सिलसिले में वहां का गाइड और हमारे आसामी(ऐसा-वैसा बिलकुल नहीं हाँ!) ड्रायव्हर अजय, इन दोनों की राय बहुत महत्वपूर्ण थी! घर की मंडली गुफा के दर्शन कर आई, तबतक मैं एक व्ह्यू पॉईंट से नयनाभिराम स्फटिकसम शुभ्र जलप्रपात, मलमल के पारदर्शी ओढ़नी जैसा कोहरा, गुलाबदान से छिड़के जाने वाले गुलाबजल के नाजुक छींटे की फुहार जैसी वर्षा की हल्की बूंदा बांदी और मद्धम गुलबदन संध्याकालीन क्षणों का अनुभव ले रही थी! मित्रों, जिनके लिए यह करना मुमकिन है, वे अवश्य इस दुर्गम गुफा का रहस्य जानने की कोशिश करें!

रामकृष्ण मिशन, सोहरा

यहाँ की पहाड़ी की चोटी पर रामकृष्ण मिशन का कार्यालय, मंदिर, संस्था का स्कूल और छात्रावास बहुत ही खूबसूरत हैं। वैसे ही यहाँ उत्तरपूर्व भागोंकी विभिन्न जनजातियों, उनकी विशिष्ट वेशभूषा, उनकी बनाई कलाकृतियों और बांस की कारीगरी से उत्त्पन्न वस्तुओं की जानकारी देनेवाला एक संग्रहालय बहुत सुंदर है| साथ ही मेघालय की तीन प्रमुख जनजातियां, गारो, जैंतिया तथा खासी जनजातियों पर केंद्रित कलाकृतियां, मॉडेल्स और उनकी विस्तृत जानकारी एक कमरे में संग्रहित है, वह भी देखते ही बनती है| रामकृष्ण मिशन के कार्यालय में यहाँ की खास चीजों, अलावा इसके, रामकृष्ण परमहंस, शारदा माता और स्वामी विवेकानंद के फोटो और अन्य वस्तुएं तथा परंपरागत चीजों की बिक्री भी होती है| हमने यहाँ बहुतसी सुन्दर चीज़ें खरीदीं| 

रामकृष्ण परमहंस मंदिर में सम्पन्न हुई सांध्यकालीन आरती हम सब को एक अलग ही भक्तिरस से आलोकित वातावरण में ले गई| हमारे सौभाग्यवश उस आरती की परमपावन बेला मानों हमारे लिए ही संयोग से समाहित थी, अत्यंत प्रसन्नता से हमने इस पवित्र वास्तूका दर्शन किया! कुल मिलाकर देखें तो मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि, यह अत्यंत रमणीय, भावभीना और भक्तिरस से परिपूर्ण स्थान पर्यटकोंने अवश्य देखना चाहिए| (संग्रहालय की समयसारिणी की अग्रिम जानकारी लेना जरुरी है)

मेघालय दर्शन के अगले भाग में आपको मैं ले चलूंगी मावफ्लांग Mawphlang,सेक्रेड ग्रोव्हज/ सेक्रेड वूड्स/ सेक्रेड फॉरेस्ट्स में और उसके आसपास के अद्भुत प्रवास के लिए! तैयार हैं ना आप पाठक मित्रों?

तो अभी के लिए खुबलेई! (khublei) यानि खास खासी भाषा में धन्यवाद!)    

टिप्पणी

*लेख में दी जानकारी लेखिका के अनुभव और इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी पर आधारित है| यहाँ की तसवीरें  और वीडियो (कुछ को छोड़) व्यक्तिगत हैं!    

*गाने और विडिओ की लिंक साथ में जोड़ रही हूँ|

मेघालय, मेघों की मातृभूमि! “सुवर्ण जयंती उत्सव गीत”

(Meghalaya Homeland of the Clouds, “Golden Jubilee Celebration Song”)

मावसमई गुफा (Mawsmai Caves) 

© डॉ. मीना श्रीवास्तव

ठाणे 

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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