(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आदर्श विचार संहिता…“।)
अभी अभी # 349 ⇒ आदर्श विचार संहिता… श्री प्रदीप शर्मा
विचार का संबंध सोचने से होता है, और आचार का संबंध आचरण से। आहार विहार की तरह ही एक व्यक्ति का आचार विचार भी महत्वपूर्ण होता है। सामाजिक मापदंड के अनुसार हमारे आचरण को हम आचार विचार के रूप में परिभाषित कर सकते हैं।
चुनाव के मौसम में अचानक आचार संहिता लागू हो जाती है, जिसका संबंध सिर्फ राजनीतिक प्रचार के कोड ऑफ कंडक्ट से होता है। किसी व्यक्ति, दल (पार्टी) या संगठन के लिये निर्धारित सामाजिक व्यवहार, नियम एवं उत्तरदायित्वों के समूह को आचरण संहिता कहते हैं। कथनी और करनी अर्थात् व्यवहार और सिद्धांत में अंतर देखना हो तो जरा लकीर के फकीर बनकर आचार संहिता पर गौर कीजिए ;
1. सरकार के द्वारा लोक लुभावन घोषणाएँ नहीं करना।
2.चुनाव के दौरान सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग न करना।
3.राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के द्वारा जाति, धर्म व क्षेत्र से संबंधित मुद्दे न उठाना।
4.चुनाव के दौरान धन-बल और बाहु-बल का प्रयोग न करना।
5.आदर्श आचार संहिता लागू होने के बाद किसी भी व्यक्ति को धन का लोभ न देना।
6.आचार संहिता लागू हो जाने के बाद किसी भी योजनाओ को लागू नहीं कर सकते।
इतनी समझ तो एक बच्चे में भी है कि जो करना है, आचार संहिता लागू होने के पहले ही कर लो। कल्लो, अब क्या कर लोगे। पेट्रोल कल से महंगा हो रहा है, आज ही गाड़ी फुल कर लो, लेकिन वहां जाओ, तो पेट्रोल खत्म। तुम डाल डाल, तो हम पात पात। इधर किसी वस्तु के भाव बढ़े, और उधर वह वस्तु बाजार से गायब। गोडाउन सुरक्षा के लिए बनाए जाते हैं, जमाखोरी के लिए नहीं।।
हमारा व्यवहार ही आचरण के दायरे में आता है, हमारी सोच नहीं। हमारे जैसे विचार होंगे, वैसा हमारा आचरण होगा। लाइए कोई कानून, और लगाइए हमारी सोच पर आचार संहिता। मुख में राम हमारा आचरण है, और अब तो कंधे पर धनुष बाण भी है, विपक्षी रावण का वध करने के लिए।
एक आदर्श आचार संहिता वह होती है, जहां हमारी कथनी और करनी में अंतर नहीं होता। जब समाज में नैतिकता और आदर्श का स्थान, साम, दाम, दंड, और भेद ले लेगा, तो जीवन की सहजता समाप्त हो जाएगी। रिश्तों और प्यार में भी सौदेबाजी शुरू हो जाएगी। हमारा असली चेहरा हम ही नहीं पहचान पाएंगे। आचरण की शुद्धता के लिए एक आदर्श विचार संहिता भी जरूरी है, खुद पर खुद का शासन, आत्मानुशासन।।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक आलेख – अमर रहेंगे मोहम्मद रफी साहब ।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 278 ☆
आलेख – अमर रहेंगे मोहम्मद रफी साहब
अच्छे से अच्छे गीतकार के शब्द तब तक बेमानी होते हैं जब तक उन्हें कोई संगीतकार मर्म स्पर्शी संगीत नही दे देता और जब तक कोई गायक उन्हें अपने गायन से श्रोता के कानो से होते हुये उसके हृदय में नही उतार देता. फिल्म बैजू बावरा का एक भजन है मन तड़पत हरि दर्शन को आज, इस अमर गीत के संगीतकार नौशाद और गीतकार शकील बदायूंनी हैं, इस गीत के गायक मो रफी हैं.रफी साहब की बोलचाल की भाषा पंजाबी और उर्दू थी, अतः इस भजन के तत्सम शब्दो का सही उच्चारण वे सही सही नही कर पा रहे थे. नौशाद साहब ने बनारस से संस्कृत के एक विद्वान को बुलाया, ताकि उच्चारण शुद्ध हो. रफी साहब ने समर्पित होकर पूरी तन्मयता से हर शब्द को अपने जेहन में उतर जाने तक रियाज किया और अंततोगत्वा यह भजन ऐसा तैयार हुआ कि आज भी मंदिरों में उसके सुर गूंजते हैं, और सीधे लोगो के हृदय को स्पंदित कर देते हैं.
मोहम्मद रफ़ी जी का जन्म 24 दिसंबर 1924 को हुआ था. उन्होने अपनी गायकी की बारीकियो से हिन्दी सिनेमा के श्रेष्ठतम पार्श्व गायकों में अपना स्थान युगो युगो के लिये सुरक्षित कर लिया. एल पी, एस पी, कैसेट, सीडी, डी वी डी से पेन ड्राईव का डीजिटल सफर बदलता रहेगा पर रफी हर युग में अपनी आवाज के कारण अमर रहेंगे. उनके समकालीन गायकों के बीच रफी साहब आवाज की मधुरता से विशिष्ट पहचान बना सके. उन्हें शहंशाह-ए-तरन्नुम भी कहा जाने लगा. 1940 के दशक में रफी मात्र अठारह बीस बरस के थे, पर तब से ही वे व्यवसायिक गायक के रूप में पहचान बनाने लगे थे, 1980 में 31 जुलाई को वे हमें छोड़ गये पर इन लगभग ४० वर्षो की गायकी के सफर में उन्होने 26,000 से अधिक गाने गाए. जिनमें मुख्यतः हिन्दी फिल्मी गानों के अतिरिक्त ग़ज़ल, मेरे मन में हैं राम मेरे तन में हैं राम, सुख के सब साथी दुख में न कोई, ईश्वर अल्लाह तेरो नाम, बड़ी देर भई नंदलाला जैसे भजन,सूफी,सुनो सुनो ऐ दुनिया वालों बापू की ये अमर कहानी..जैसे देशभक्ति गीत, नन्हें मुन्ने बच्चे तेरी मुठ्ठी में क्या है, जैसे बाल गीत, क़व्वाली तथा अन्य भाषाओं में गाए गाने भी शामिल हैं. उन्होने गुरु दत्त, दिलीप कुमार, देव आनंद, भारत भूषण, जॉनी वॉकर, जॉय मुखर्जी, शम्मी कपूर, राजेन्द्र कुमार, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन, धर्मेन्द्र, जीतेन्द्र तथा ऋषि कपूर के अलावे स्वयं गायक अभिनेता किशोर कुमार के लिये भी फिल्मी पर्दे पर अपनी रोमांचक आवाज दी.
कभी कभी किस तरह छोटी सी घटना जीवन में बड़ा मोड़ ले आती है यह मोहम्मद रफ़ी के पहले स्टेज प्रोग्राम से समझ आता है. उनका जन्म अमृतसर, के पास कोटला सुल्तान सिंह में हुआ था। उनके बचपन में ही उनका परिवार लाहौर से अमृतसर आ गया. जब रफी मात्र सात साल के थे तो वे अपने बड़े भाई की नाई की दुकान में बैठा करते थे. उधर से रोज गुजरने वाला एक फकीर मधुर स्वर में गाता हुआ निकलता था. नन्हे रफी उस फकीर का पीछा किया करते और उसके जैसा ही गाने का प्रयत्न करते.शायद वह अनाम फकीर ही उनका प्रथम संगीत गुरू था. उनकी गायकी की नकल के स्वर भी लोगों को पसन्द आते. लोग नन्हें से रफी के गाने की प्रसंशा करने लगे. रफी के बड़े भाई मोहम्मद हमीद ने संगीत के प्रति उनकी रुचि को देख उन्हें उस्ताद अब्दुल वाहिद खान के पास संगीत शिक्षा लेने को भेजा और इस तरह रफी को विधिवत संगीत की कुछ तालीम मिली. एक बार ऑल इंडिया रेडियो लाहौर में उस समय के प्रख्यात गायक व अभिनेता कुन्दन लाल सहगल कार्यक्रम देने आए थे, श्रोताओ में रफ़ी और उनके बड़े भाई भी थे. अचानक बिजली गुल हो गई, जिससे श्रोता बेचैन होने लगे,रफ़ी के बड़े भाई ने आयोजकों से निवेदन किया की भीड़ को शांत करने के लिए मोहम्मद रफ़ी को गाने का मौका दिया जाय, उनको अनुमति मिल गई और बिना बिजली बिना माईक 13 वर्ष की आयु में मोहम्मद रफ़ी का यह पहला सार्वजनिक गायन था. उस समय के प्रसिद्ध संगीतकार श्याम सुन्दर भी वहां उपस्थित थे उन्होने जब नन्हें रफी को सुना तो उन्होने रफी की आवाज के हुनर को पहचाना, और उन्होने मोहम्मद रफ़ी को गाने का न्यौता दिया. इस तरह मोहम्मद रफ़ी का प्रथम गीत एक पंजाबी फ़िल्म गुल बलोच के लिए रिकार्ड हुआ था जिसे उन्होने श्याम सुंदर के निर्देशन में 1944 में गाया था. मुम्बई तब भी फिल्म नगरी थी, देश आजादी की लड़ाई लड़ रहा था, ऐसे समय में युवा रफी ने फिल्मो में पार्श्व गायन को व्यवसाय के रूप में अपनाने का फैसला लिया और 1946 में वे बम्बई आ गये. जाति के आधार पर पाकिस्तान बनने के बाद भी उन्होने भारत के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को ही चुना. उन्होने जाने कितने हृदय स्पर्शी भजनो को स्वर देकर यह बता दिया कि भावना, स्वर और संगीत धर्म की सीमाओ से परे नैसर्गिक वृत्तियां हैं.
संगीतकार नौशाद जी ने “पहले आप” नाम की फ़िल्म में उन्हें गाने का अवसर दिया. और उनका फिल्मो में गायन का सफर चल निकला. नौशाद द्वारा संगीत बद्ध गीत तेरा खिलौना टूटा, फ़िल्म अनमोल घड़ी, 1946 से रफ़ी को हिन्दी फिल्म जगत में प्रसिद्धि मिली. इसके बाद शहीद, मेला तथा दुलारी फिल्मो में भी रफ़ी ने गाने गाए जो पसंद किये गये. 1951 में जब नौशाद फ़िल्म बैजू बावरा के लिए गाने बना रहे थे तो उन्होने तलत महमूद के स्वर में रिकार्डिंग करने की सोचा पर कहा जाता है कि नौशाद जी ने एक बार तलत महमूद को धूम्रपान करते देखकर अपना मन बदल लिया और रफ़ी से ही गाने को कहा. बैजू बावरा के गानों ने रफ़ी को मुख्यधारा गायक के रूप में स्थापित कर दिया. इसके बाद नौशाद ने रफ़ी को अपने निर्देशन में लगातार कई गीत गाने को दिए. शंकर-जयकिशन की जोड़ी को भी उनकी आवाज पसंद आयी और उन्होंने भी रफ़ी से गाने गवाना आरंभ कर दिया। शंकर जयकिशन उस समय राज कपूर के पसंदीदा संगीतकार थे, पर राज कपूर अपने लिए सिर्फ मुकेश की आवाज पसन्द करते थे किन्तु शंकर जयकिशन की सिफारिश पर रफी साहब की आवाज पर भी राजकपूर ने अभिनय किया. शंकर जयकिशन की जोड़ी ने उनके कम्पोज किये गये लगभग सभी गानो के पुरुष स्वर के लिये रफ़ी साहब को ही मौका दिया. अपनी आवाज के बल पर रफ़ी साहब संगीतकार सचिन देव बर्मन, ओ पी नैय्यर,रवि, मदन मोहन, गुलाम हैदर, जयदेव, सलिल चौधरी इत्यादि संगीतकारों की पहली पसंद बन गए.
31 जुलाई 1980 को जब अचानक हृदयगति रुक जाने के कारण उनका देहान्त हुआ तो उनके गीतो से जागने और सोने वाले उनके प्रसंशको के लिये इस सत्य को स्वीकार करना बेहद दुष्कर था. उनकी असाधारण संगीत साधना के लिये उन्हें भारत सरकार से पद्मश्री सहित, अनेक बार फिल्मफेयर अवार्ड आदि अनेकानेक सम्मान समय समय पर मिले. इन सम्मानो को प्रदान कर स्वयं सम्मान देने वाले ही उनसे सम्मानित हुये क्योकि रफी साहब का वास्तविक सम्मान तो यह ही है कि उनके इस दुनिया से बिदा हो जाने के वर्षो बाद भी हम उन्हें भुला नही सकते. वे धार्मिक नही मानवीय मूल्यो के प्रतीक थे.वे सहज सरल और अपने कार्य के प्रति समर्पित अनुकरणीय व्यक्तित्व थे. वे संगीत के पुजारी मात्र नही उसके प्रतिष्ठाता थे.
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक कुल 148 मौलिक कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक “बाल कहानी – मोना जाग गई”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 167 ☆
☆ बाल कहानी – मोना जाग गई ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
मोना चकित थी। जिस सुंदर पक्षी को उसने देखा था वह बोल भी रहा था। एक पक्षी को मानव की भाषा बोलता देखकर मोना बहुत खुश हो गई।
उसी पक्षी ने मोना को सुबह-सवेरे यही कहा था,
“चिड़िया चहक उठी
उठ जाओ मोना।
चलो सैर को तुम
समय व्यर्थ ना खोना।।”
यह सुनकर मोना उठ बैठी। पक्षी ने अपने नीले-नीले पंख आपस में जोड़ दिए। मोना अपने को रोक न सकी। इसी के साथ वह हाथ जोड़ते हुए बोली, “नमस्ते।”
पक्षी ने भी अपने अंदाज में ‘नमस्ते’ कहा। फिर बोला,
“मंजन कर लो
कुल्ला कर लो।
जूता पहन के
उत्साह धर लो।।”
यह सुनकर मोना झटपट उठी। ब्रश लिया। मंजन किया। झट से कपड़े व जूते पहने। तब तक पक्षी उड़ता हुआ उसके आगे-आगे चलने लगा।
मोना का उत्साह जाग गया था। उसे एक अच्छा मित्र मिल गया था। वह झट से उसके पीछे चलने लगी। तभी पक्षी ने कहा,
“मेरे संग तुम दौडों
बिल्कुल धीरे सोना।
जा रहे वे दादाजी
जा रही है मोना।।”
“ओह! ये भी हमारे साथ सैर को जा रहे हैं,” मोना ने चाहते हुए कहा। फिर इधर-उधर देखा। कई लोग सैर को जा रहे थे। गाय जंगल चरने जा रही थी।
पक्षी आकाश में कलरव कर रहे थे। पूर्व दिशा में लालिमा छाने लगी थी। पहाड़ों के सुंदर दिख रहे थे। तभी पक्षी ने कहा,
“सुबह-सवेरे की
इनसे करो नमस्ते।
प्रसन्नचित हो ये
आशीष देंगे हंसते।।”
यह सुनते ही मोना जोर से बोल पड़ी, “नमस्ते दादा जी!”
तभी उधर से भी आवाज आई, “नमस्ते मोना! सदा खुश रहो।”
यह सुनकर मोना चौंक उठी। उसने आंखें मल कर देखा। वह बिस्तर पर थी। सामने दादा जी खड़े थे। वे मुस्कुरा रहे थे, “हमारी मोना जाग गई!”
“हां दादा जी,” कहते हुए मोना झट से बिस्तर से उठी, “दादा जी, मैं भी आपके साथ सैर को चलूंगी,” कह कर वह मंजन करके तैयार होने लगी।
(पूर्वसूत्र – “नाही वहिनी. आम्ही आणि डॉक्टरांनी काहीच केलेले नाही. आम्ही फक्त निमित्त होतो. बाळ वाचलंच नाहीय फक्त तर ते ‘वर’ जाऊन परत आलंय.” लेले काका सांगत होते,”आत्ता पहाटे आम्ही इथे आलो ते मनावर दगड ठेवून पुढचं सगळं अभद्र निस्तरण्याच्या तयारीनेच आणि इथे येऊन पहातो तर हे आक्रित! दादा, तुम्हा दोघांच्या महाराजांवरील अतूट श्रद्धेमुळेच या चमत्कार घडलाय.बाळ परत आलंय.”
या आणि अशा अनेक अनुभवांचे मनावर उमटलेले अमिट ठसे बरोबर घेऊनच मी लहानाचा मोठा झालोय.सोबत ‘तो’ होताच…!)
पुढे तीन वर्षांनी बाबांची कुरुंदवाडहून किर्लोस्करवाडीला बदली झाली ते १९५९ साल होतं. कुरुंदवाड सोडण्यापूर्वी आई न् बाबा दोघेही नृसिंहवाडीला दर्शनासाठी गेले.आता नित्य दर्शनाला येणं यापुढे जमणार नाही याची रुखरुख दोघांच्याही मनात होतीच. आईने दर पौर्णिमेला वाडीला दर्शनाला येण्याचा संकल्प मनोमन सोडून ‘माझ्या हातून सेवा घडू दे’ अशी प्रार्थना केली आणि प्रस्थान ठेवलं!
किर्लोस्करवाडीला पोस्टातल्या कामाचं ओझं कुरुंदवाडपेक्षाही कितीतरी पटीने जास्त होतं.पूर्वी घरोघरी फोन नसायचे.त्यामुळे ‘फोन’ व ‘तार’ सेवा पोस्टखात्यामार्फत २४ तास पुरवली जायची.त्यासाठी पोस्टलस्टाफला दैनंदिन कामांव्यतिरिक्त जादा
रात्रपाळीच्या ड्युटीजनाही जावे लागायचे. त्याचे किरकोळ कां असेनात पण जास्तीचे पैसे मिळायचे खरे, पण ती बिले पास होऊन पैसे हातात पडायला मधे तीन-चार महिने तरी जायचेच. इथे येऊन बाबा अशा प्रचंड कामाच्या दुष्टचक्रात अडकून पडले.त्यांना शांतपणे वेळेवर दोन घास खाण्याइतकीही उसंत नसायची. दर पौर्णिमेला नृसिंहवाडीला दत्तदर्शनासाठी जायचा आईचा नेम प्रत्येकवेळी तिची कसोटी बघत सुरू राहिला होता एवढंच काय ते समाधान. पण तरीही मनोमन जुळलेलं अनुसंधान अशा व्यस्ततेतही बाबांनी त्यांच्यापध्दतीने मनापासून जपलं होतं. किर्लोस्करवाडीजवळच असलेल्या रामानंदनगरच्या आपटे मळ्यातल्या दत्तमंदिरातले नित्य दर्शन आणि सततचे नामस्मरण हा त्यांचा नित्यनेम.कधीकधी घरी परत यायला कितीही उशीर झाला तरी त्यांनी यात कधीही खंड पडून दिला नव्हता!
मात्र बाबांच्या व्यस्ततेमुळे घरची देवपूजा मात्र रोज आईच करायची. माझा धाकटा भाऊ अजून लहान असला तरी त्याच्यावरच्या आम्हा दोन्ही मोठ्या भावांच्या मुंजी नुकत्याच झालेल्या होत्या. पण तरीही आईने पूजाअर्चा वगैरे बाबीत आम्हा मुलांना अडकवलेलं नव्हतं. या पार्श्वभूमीवरचा एक प्रसंग…
पोस्टलस्टाफला किर्लोस्कर कॉलनीत रहायला क्वार्टर्स असायच्या. आमचं घर बैठं,कौलारू व सर्व सोयींनी युक्त असं होतं. मागंपुढं अंगण, फुलाफळांची भरपूर झाडं, असं खऱ्या ऐश्वर्यानं परिपूर्ण! आम्ही तिथे रहायला गेलो तेव्हा घरात अर्थातच साधी जमिनच होती. पण कंपनीतर्फे अशा सर्वच घरांमधे शहाबादी फरशा बसवायचं काम लवकरच सुरू होणार होतं. त्यानुसार आमच्याही अंगणात भिंतीना टेकवून शहाबादी फरशांच्या रांगा रचल्या गेल्या.
त्याच दिवशी देवपूजा करताना आईच्या लक्षात आलं की आज पूजेत नेहमीच्या दत्ताच्या पादुका दिसत नाहीत. देवघरात बोटांच्या पेराएवढ्या दोन चांदीच्या पादुका होत्या आणि आज त्या अशा अचानक गायब झालेल्या!आई चरकली.अशा जातील कुठ़ न् कशा?तिला कांहीं सुचेचना.ती अस्वस्थ झाली. तिने कशीबशी पूजा आवरली. पुढची स्वयंपाकाची सगळी कामंही सवयीने करीत राहिली पण त्या कुठल्याच कामात तिचं मन नव्हतंच. मनात विचार होते फक्त हरवलेल्या पादुकांचे!
खरंतर घरी इतक्या आतपर्यंत बाहेरच्या कुणाची कधीच ये-जा नसायची. पूर्वीच्या सामान्य कुटुंबात कामाला बायका कुठून असणार?
धुण्याभांड्यांसकट सगळीच कामं आईच करायची. त्यामुळे बाहेरचं कुणी घरात आतपर्यंत यायचा प्रश्नच नव्हता. आईने इथं तिथं खूप शोधलं पण पादुका मिळाल्याच नाहीत.
बाबा पोस्टातून दुपारी घरी जेवायला आले. त्यांचं जेवण पूर्ण होईपर्यंत आई गप्पगप्पच होती. नंतर मात्र तिने लगेच ही गोष्ट बाबांच्या कानावर घातली.ऐकून बाबांनाही आश्चर्य वाटलं.
“अशा कशा हरवतील?”
“तेच तर”
“सगळीकडे नीट शोधलंस का?”
“हो..पण नाही मिळाल्या”
आई रडवेली होऊन गेली.
“नशीब, अजून फरशा बसवायला गवंडीमाणसं आलेली नाहीत.”
“त्यांचं काय..?”
“एरवी त्या गरीब माणसांवरही आपल्या मनात कां होईना पण आपण संशय घेतलाच असता..”
त्या अस्वस्थ मनस्थितीतही बाबांच्या मनात हा विचार यावा याचं त्या बालवयात मला काहीच वाटलं नव्हतं,पण आज मात्र या गोष्टीचं खूप अप्रूप वाटतंय!
नेमके त्याच दिवशी गवंडी आणि मजूर घरी आले. पूर्वतयारी म्हणून त्यांनी जमीन उकरायला सुरुवात केली. त्यानिमित्ताने घरातले सगळे कानेकोपरेही उकलले गेले. पण तिथेही कुठेच पादुका सापडल्या नाहीत. पूजा झाल्यानंतर आई ताम्हणातलं तीर्थ रोज समोरच्या अंगणातल्या फुलझाडांना घालायची. ताम्हणात चुकून राहिल्या असतील तर त्या पादुका त्या पाण्याबरोबर झाडात गेल्या असायची शक्यता गृहीत धरून त्या फुलझाडांच्या भोवतालची माती खोलवर उकरून तिथेही शोध घेतला गेला पण पादुका मिळाल्याच नाहीत.
मग मात्र आईसारखेच बाबाही अस्वस्थ झाले. नेहमीप्रमाणं रोजचं रुटीन सुरू झालं तरी बाबांच्या मनाला स्वस्थता नव्हतीच.कुणाकडूनतरी बाबांना समजलं की जवळच असणाऱ्या पलूस या गावातील सावकार परांजपे यांच्या कुटु़ंबातले एक गृहस्थ आहेत जे पूर्णपणे दृष्टीहीन आहेत.ते केवळ अंत:प्रेरणेने हरवलेल्या वस्तूंचा माग अचूक सांगतात अशी त्यांची ख्याती आहे म्हणे.बाबांच्या दृष्टीने हा एकमेव आशेचा किरण होता! बाबा स्वत: त्यांनाही जाऊन भेटले. आपलं गाऱ्हाणं आणि मनातली रूखरूख त्यांच्या कानावर घातली. त्यांनीही आपुलकीने सगळं ऐकून घेतलं. काहीवेळ अंतर्मुख होऊन बसून राहिले.तोवरच्या त्यांच्या चेहऱ्यावरच्या शांतपणाची जागा हळूहळू काहीशा अस्वस्थपणानं घेतलीय असं बाबांना जाणवलं. त्यांची अंध,अधूदृष्टी क्षणभर समोर शून्यात स्थिरावली आणि ते अचानक बोलू लागले.बोलले मोजकेच पण अगदी नेमके शब्द!
“घरी देवपूजा कोण करतं?” त्यांनी विचारलं.
“आमची मंडळीच करतात”
बाबांनी खरं ते सांगून टाकलं.
” तरीच..”
“म्हणजे?”
” संन्याशाची पाद्यपूजा स्त्रियांनी करून कसं चालेल?”
“हो पण.., म्हणून..”
” हे पहा ” त्यांनी बाबांना मधेच थांबवलं.” मनी विषाद नको, आणि यापुढे हरवलेल्या त्या पादुकांचा शोधही नको. त्या कधीच परत मिळणार नाहीत.”
” म्हणजे..?”
” त्या हरवलेल्या नाहीयत. त्या गाणगापूरच्या पादुकांमध्ये विलीन झालेल्या आहेत.”
बाबांच्या मनातली अस्वस्थता अधिकच वाढली.कामात मनच लागेना ‘घडलेल्या अपराधाची एवढी मोठी शिक्षा नको’ असं आई-बाबा हात जोडून रोज प्रार्थना करीत विनवत राहिले.भोवतालच्या मिट्ट काळोखातही मनातला श्रध्देचा धागा बाबांनी घट्ट धरुन ठेवला होता. कांहीही करून हरवलेल्या त्या पादुका घरी परत याव्यात एवढीच त्यांची इच्छा होती पण ती फरुद्रूप होण्यासाठी कांहीतरी चमत्कार होणं आवश्यक होतं!आणि एक दिवस अचानक……?
☆ महाभोजन तेराव्याचे… – भाग-१ ☆ श्री प्रदीप केळूसकर ☆
पाठीमागच्या घरातून खूपच आरडा ओरड ऐकू येऊ लागला, म्हणून मी बायकोला विचारले “काय चालले आहें शेजारी, तिन्ही संजेला एवढा आवाज?’
“हे नेहेमीचे आहें, तुम्ही या वेळेला घरी नसता, आज घरी आहात म्हणून नवीन, आपा रोज दारू पिऊन येतो आणि मग म्हाताऱ्या म्हातारी बरोबर भांडण, शिव्या, मारझोड.. नेहेमीचंच.’
“पण काय घाणेरड्या शिव्या देतो हा आपा, आपल्याच आईला आणि बाबाला?
“कर्मभोग आहेत म्हाताऱ्यांचे, आणि काय?
एवढ्यात आपाची म्हातारी आई लंगडत लंगडत आमच्या घराच्या मागच्या बाजूला आली आणि मला हाका मारू लागली
“काकानू, तुमी तरी तेका सांगा कायतरी, कोयतो घेऊन मारुक इलोवा बापाशिक,खून चढलोवा तेच्या अंगात, कोयतो घेऊन मागसून धावता, काय तरी तेका सांगा ‘ अस म्हणून ती रडू लागली.
माझ्या बायकोने तिला घरात घेतले आणि पाणी आणून दिले.
मी बाहेर आलो आणि आपाच्या आईला म्हणालो ” काय कशासाठी कोयतो दाखवता?’
“काय सांगा काकानू, होयती दहा गुंठे जमीन आसा, ती आपल्या नावावर करून द्या, म्हणून भांडता..’.
मधेच माझी पत्नी बोलली “आपाच्या आई, जमीन तेच्या नावावर करून देव नको हा,तेचा नावावर जमीन केलास की तो विकतालो आणि पैसे दारूत उडवातलो.’
“होय गे बाये, म्हणूनच काय झाला तरी हेच्या नावावर जमीन करू नकात आसा हेन्का सांगलंय, म्हणून हो गाळी घालता आणि मारुक येता, आत आमी म्हातारी झालेव मा. काकानू, तुमी तेका जरा दम देवा, तुमका तो भियता ‘.
सर्वाना शिव्या देणारा आणि कोयता दाखवणारा आपा मला मात्र घाबरून असायचा, एक तर माझ्या शिक्षणाला तो घाबरत असायचा किंवा मी पोलीस डिपार्टमेंट मध्ये नोकरीस असल्याने आणि माझी गाडी रोज पोलीसस्टेशन बाहेर उभी असते, हे त्याला माहित असल्याने असेल, पण माझ्या शब्दावर तो उत्तर दयायचा नाही.
मी आपाच्या आई पाठोपाठ बाहेर आलो आणि एक मोठी काठी घेऊन त्याच्या घराकडे आलो..
मी त्याच्या घराजवळ येऊन “कोणाची गडबड सुरु असा रे ‘ अस म्हणून काठी जमिनीवर आपटल्यावर घरातला आवाज बंद झाला. मी त्याच्यसमोर उभा राहिलो आणि त्याला बजावले ” पुन्हा जर कोयतो दाखवलंस तर पोलिसाक बोलावून लोकअप मध्ये टाकतालाय लक्षात ठेव,’.
असा मी दम भरताच आपा मागील दराने गुल झाला.
मी आपाच्या घरात आलो आणि आपाच्या बाबा म्हणजे गणपती समोर येऊन बसलो. गण्या मला पहाताच रडू लागला. “काकानू, काय हो माजा नशीब, नवसान झील झालो तो असो दारुडो, रोज रातिचो दारू पिऊन तयार. गवंडी काम करता ते सगळे सोऱ्यात. पाच पैशे घरात देना नाय. मी तरी खायसून हेका जेवूक घालू. आत धा गुंठे जागा तुमी घेऊन दिलात, ती आपल्या नावावर करून देऊक सांगता.’
अस म्हणून गण्या रडू लागला.मी त्याला पोलिसाला पाठवून दम देण्यास सांगतो, अस म्हणून घरी आलो.
माझ्या डोळ्यासमोर पंचवीस वर्षांपूर्वीचा गण्या आला. आमच्या पोलीस डिपार्टमेंट च्या समोर छोट्याश्या चहा हॉटेल मध्ये भजी, वडे तळणारा. अतिशय प्रामाणिक. आमच्या ऑफिस मध्ये चहा दयायला मालक यालाच पाठवायचा. कधीमधी त्याची नवीन लग्न झालेली बायको पण हॉटेल मध्ये दिसायची. त्याच शहरात छोटी खोली घेऊन राहत होते. हॉटेल मालकाने दुसरीकडे मोठे हॉटेल काढले आणि हे हॉटेल तो बंद करणार होता, आम्ही सर्व डिपार्टमेंट मधील लोकांनी मध्यस्थी केली आणि हॉटेल गण्या ला चालवायला सांगितले.
मग गण्या आणि त्याच्या बायकोने चहा भजी सोबत जेवण करायला सुरवात केली आणि आमच्या सारख्या बॅचलर लोकांची सोय झाली. त्याची बायको म्हणजे सुगरण होती, ती माशाचे कालवण खासच बनवायची शिवाय अधूनमधून कोंबडीवडे पण.
आमच्या डिपार्टमेंट च्या पार्ट्या असायच्या, त्याची जेवणं मला त्यांना मिळू लागली.
त्याच काळात माझं लग्न झाल आणि मी रोज गावाहून स्कूटर ने येऊ जाऊ लागलो.
आत गण्या कडे थोडे पैसे जमा झाले, त्यामुळे त्याला थोडी जमीन घेऊन घर बांधायची ईच्छा झाली. तो मला कुठे जागा असेल तर सांगा, लहानस झोपड बांधतो, अस म्हणु लागला.आमच्या घरात सण समारंभ असेल त्यावेळी गण्याची बायको माझ्या आईला आणि बायकोला मदत करायला येत असे, त्यामुळे त्या दोघींची पण जवळीक होती.
माझ्या काकांची दहा गुंठे जमीन पडून होती, त्यावर काही लागवड नव्हती, काका कायम मुंबईत, त्याना पण ती विकून टाकायची होती, काकांना सांगून कमी किमतीत ती दहा गुंठे जमीन गण्याला विकत दयायला सांगितली.
गण्याने आणि त्याच्या बायकोने मेहनत करून करून छोटेसे घर बांधले आणि मग सरकारी मदत घेऊन मोठं घर केल, मग मुलगा झाला, त्याच नाव त्याच्या आजोबाच म्हणजे सहदेव आणि म्हणायला आपा.
माझी मुलगी अर्पिता आपा पेक्षा दोन वर्षांनी मोठी. लहानपणी अर्पिता अभ्यासाला बसली की आपा त्याच्या शेजारी येऊन बसायचा. तिची पाटी धुवून दयायचा, अभ्यास झाला की तीच दप्तर भरून ठेवायचा, कायम तिच्या मागे मागे असायचा.
अर्पिता त्याचा अभ्यास घयायची, पण अभ्यासाचे नाव काढले की तो पळून जायचा. तो नाईलाजाने शाळेत जायचा पण त्याचे अभ्यासात लक्ष नसायचे.
गण्याचे आणि त्याच्या बायको चें पण त्याच्या शिक्षणाकडे लक्ष नसायचे, ती दोघ शहरातील हॉटेल मध्ये. मुलगा शाळेत कधी जायचा कधी नाही, अर्पिता आणि माझी बायको त्याच्याकडे लक्ष द्यायची पण त्याने अभ्यास केलाच नाही आणि त्याने सातवी तुन शाळा सोडली.
शाळा सोडल्यावर त्याला सर्वच मोकळे, मग ती उनाड व्यसनी मुलांच्या संगतीत गेला आणि तेरा चवदा वर्षाचा होता, त्यावेळी पासून विड्या ओढू लागला, मटका खेळू लागला आणि दारू पिऊ लागला.
माझी बायको गण्याच्या बायकोला त्याच्या व्यसनाची कल्पना देत होती पण त्याच्या आईचे आणि बाबाचे पण तो ऐकेना.
आपा वीस वर्षाचा झाला आणि रिकामा राहू लागला आणि पैसे मिळाले तर चोरून दारू पिऊ लागला. माझ्या ओळखीच्या एका गवंडी होता, मी त्याला सांगून आपाला त्याच्याकडे कामाला पाठविले, तेथे तो चिरे उचलणे, चिरे तासणे आदि कामे करू लागला.
गण्याने त्याला आपल्या हॉटेलात नेऊन पाहिले, पण आपा पैसे लंपास करू लागला,गिर्हाईक बरोबर हुज्जत घालू लागला.
‘तदेव लग्नं सुदिनं तदेव । ताराबलं चंद्रबलं तदेव ।’ ……. म्हटल्याबरोबर माझं घर दुरावलं . मी परकी झाले . पाहुणी झाले . आयुष्याच्या या वळणावरील ही डिटॅचमेंट मला खूप हळवी करणारी होती .पण दुरावलेल्या या माया बंधनांची हुरहुर मनी असली तरी नवीन नात्यांची गुंफणही मनाला दिलासा देत होती .सून , वहिनी , जाऊ , पत्नी या नात्यांनी तर समृद्ध केलंच होतं पण एक सर्वोच्च नातं माझ्या कुशीत आलं होतं .मला मातृत्व पद बहाल केलं होतं.माझी छकुली , माझी सावली , माझा काळीज तुकडा , त्रिभुवनाचं सुख मला यापुढे थिटं वाटू लागलं आणि मुली माहेर सोडून सासरी का येतात या प्रश्नाचं गमक मला कळालं.
निसर्गकन्या बहिणाबाईंनी आपल्या योगी आणि सासुरवाशीण कवितेत हेच तर मांडलं.
” देरे देरे योग्या ध्यान
ऐक काय मी सांगते
लेकीच्या माहेरासाठी
माय सासरी नांदते “
या डिटॅममेंटला अशी ही गोड अँटॅचमेंट होती .
पुढे आयुष्यात असेही वळण आले आणि एकएक करत आई बाबांनी इहलोकीची यात्रा संपविली . हा माझ्यावर कुठाराघात होता .माझी मायेची माणसं , माझं हळवंपण जाणणारी आई , माझ्यावर अतोनात प्रेम करणारे बाबा निघून गेले , मला पोरकं करुन गेले . उत्तरकार्य संपल्यावर मी माझ्या घरी निघाले तेव्हा माझा भाऊ गळ्यात पडून रडला होता . ” ताई , आई बाबा गेले म्हणजे माहेर संपलं असं समजू नकोस . हा तुझा भाऊ आहे अजून , केव्हाही हक्काने येऊन राहात जा .मला भेटत जा . आईनंतर आता तूच माझी आई आहेस ग . तुझ्या मायेची पखरण होऊ देत जा माझ्यावरही .आणि लाभू दे तुझ्या प्रेमाची श्रीमंती मलाही .” या डिॅचमेंटलाही किती सुंदर अँटॅचमेंट होती . ” आई , तू रडत आहेस ” माझी छकुली मला विचारत होती , ” नाही बाळा “, मी तिला कुशीत घेतलं . आई गेल्याचं दुःख तर होतंच पण मी सुद्धा कोणाची आई आहे हे विसरुन चालणारं नव्हतं .
छकुली आणि तिच्यानंतर आलेला चिंटू . चौकोनी कुटुंबात विसावलेली मी . मुलांचं संगोपन शाळा , शिक्षण , काळ द्रुतगतीनं कधी पुढे सरकला कळलेही नाही . मुलांना पंख फुटले , भरारी घेण्यास सज्ज झाले ,आणि माझे मन कातर झाले .छकुलीचं कन्यादान करतांना मला माझं लग्न आठवलं आणि आयुष्यातलं एक वर्तुळ आज पूर्ण झालं होतं .
चिंटूने खूप प्रगती केली व एका बहुराष्ट्रीय कंपनीच्या द्वारे अमेरिकेला गेला आणि पुढे तिथलाच झाला . ” चिंटूसाठी मी स्थळं शोधू लागले . निदान मुलगी भारतीय असावी , आपले संस्कार येणार्या पिढीवर व्हावे ही माझी भोळी आशा . मी चिंटूला म्हणाले पुढच्या महिन्यात येतोच आहेस तर मुलगी पाहाण्याचा कार्यक्रम उरकवून टाकू या “.
” आई तुला हा त्रास कशाला , मी शोधलीय तुझी सून . नॅन्सी खूप गुणी मुलगी आहे .”
माझं स्वप्न भंगलं , पण मुलाच्या स्वप्नाला महत्व देणं गरजेचं असल्यानं मी हा दुःखावेगही सोसला .
मुलं घरट्यात विसावली , उरलो आम्ही दोघेच.सुधीरची साथ असल्याने मला जीवन जगणं सोप झालं .
” अगं , सुनीता जेवायचं नाही काय आज ?. चल मलाही वाढून दे आणि तुझंही वाढून घे . चल लवकर , जाम भूक लागलीय मला ” ” होय चला , जेवण करून घेऊ या . “
सुनीता रिलॅक्स , अगं वाटेल दोन चार दिवस मनाला रुखरुख , रोजचं जीवनचक्र बदललं कि होतो हा त्रास. सेवानिवृत्त झालं म्हणजे आपण निकामी झालो असं नाही . उलट आता आपला हा वेळ स्वतः साठी ठेवायचा .स्वतःसाठी जगायचं .आपल्या इच्छा पूर्ण करायच्या , आपले छंद जोपासायचे “Life begins at sixty my dear “.
दुपारच्या वामकुक्षीसाठी मी विसावले . झोप येत नव्हती म्हणून टी. व्ही . लावला . कोणत्यातरी चॅनेलवर आध्यात्मिक प्रवचन सुरू होते ” हा संसार मोह मायेने व्यापलेला आहे .या मायाजालातच माणूस फसत जातो व हे माझं , हे माझं ची वीण घट्ट होत जाते . माणसानं प्रेम करावं किंबहुना हे जग प्रेमानंच जिंकता येतं पण प्रसंगी कठोर निर्णयही घ्यावे लागतात . जवळकीतूनच दुरावा निर्माण होतो . म्हणून कोठे थांबायचं हा निर्णय घेता आला पाहिजे . साधं पक्ष्यांचंच उदाहरण बघा ना , पिल्लं मोठी झाली , भरारी घेतली कि स्वतंत्र होतात .तसंच माणसांचंही आहे . वानप्रस्थाश्रम ही संकल्पना हेच तर सुचविते .
नवीन पिढीला त्यांचं स्वातंत्र्य मिळायलाच हवं . वृद्धांनीही आपली मते त्यांना द्यावीत पण लादू नयेत.नवीन बदल , नवीन विचारांना संमती आनंदाने द्यावी.निसर्गाचं चक्रही हेच सांगतं . शिशिरात पानगळ होणारचं . जर पानगळ झालीच नाही तर नवपल्लवी फुटणार कशी ? माणूसही यापेक्षा वेगळा नाही .वृद्ध , जर्जर शरीर जीर्ण पानासारखं गळून पडणारचं. पंच तत्वानं भरलेलं हे शरीर शेवटी पंचतत्वात सामावून मोक्षाला जाणारचं .वेळीच ही अलिप्तता ज्याला कळली तो भाग्यवानच ,.कारण मायेच्या , मोहाच्या जाळ्याला त्यानं भेदलेलं असतं .सर्व येथे सोडून वैकुंठागमन करणं सोपं होतं मग “
“होय आता आपणही अलिप्त झालं पाहिजे .निरोगी तनाबरोबरच निरोगी मनासाठी हलकासा व्यायाम , निसर्गात रमणं , आपले छंद जोपासणं आणि संवाद साधत माणसं जोडणं कितीतरी गोष्टी आहेत करण्यासारख्या या जगात .” नकळत माझ्या ओठांवर हास्य आलं होतं . आरशात डोकावले तर चेहरा प्रफुल्लित झाला होता . चित्तवृत्ती फुलल्या होत्या .
☆ पालकांचा गृहपाठ — संकलन : श्री भार्गव पवार ☆ श्री सुनील देशपांडे ☆
** आपली मुले चांगली घडावीत ही सर्वांचीच इच्छा असते. पण काय करावे हे उमजत नाही. चला तर त्या साठी शाळेने पालकांना एक गृहपाठ दिला आहे *****
(सूज्ञ पालकांकडून याची अपेक्षा आपल्या आपल्यासाठीच बर का !)
चेन्नईतील एका शाळेने आपल्या मुलांना दिलेली सुट्टी जगभर व्हायरल होत आहे.
याचे कारण इतकेच आहे की त्याची रचना अतिशय विचारपूर्वक केली गेली आहे. हे वाचून लक्षात येते की आपण प्रत्यक्षात कुठे पोहोचलो आहोत आणि आपण आपल्या मुलांना काय देत आहोत? अन्नाई व्हायलेट मॅट्रिक्युलेशन आणि उच्च माध्यमिक विद्यालयाने मुलांसाठी नाही तर पालकांसाठी गृहपाठ दिला आहे,जो प्रत्येक पालकाने वाचला पाहिजे.
त्यांनी लिहिले-
गेल्या 10 महिन्यांपासून तुमच्या मुलांची काळजी घेण्यात आम्हाला आनंद झाला. त्यांना शाळेत यायला आवडते हे तुमच्या लक्षात आलेच असेल. पुढील दोन महिने त्यांच्या नैसर्गिकह संरक्षक म्हणजेच तुमच्यासोबत घालवले जातील. आम्ही तुम्हाला काही टिप्स देत आहोत जेणेकरून हा काळ त्यांच्यासाठी उपयुक्त आणि आनंदी ठरेल.
– मुलांसोबत किमान दोन वेळा जेवण करा. त्यांना शेतकऱ्यांचे महत्त्व आणि त्यांच्या मेहनतीबद्दल सांगा. आणि त्यांना अन्न वाया घालवू नका असे सांगा.
– जेवल्यानंतर त्यांना स्वतःची ताटं धुवू द्या. अशा कामांतून मुलांना मेहनतीची किंमत कळेल.
– त्यांना तुमच्याबरोबर स्वयंपाक करण्यासाठी मदत करू द्या. त्यांना भाज्या किंवा सॅलड तयार करू द्या.
– तीन शेजाऱ्यांच्या घरी जा. त्यांच्याबद्दल अधिक जाणून घ्या आणि जवळ व्हा.
– आजी-आजोबांच्या घरी जा आणि त्यांना मुलांमध्ये मिसळू द्या. त्यांचे प्रेम आणि भावनिक आधार तुमच्या मुलांसाठी खूप महत्त्वाचा आहे. त्यांच्यासोबत फोटो काढा.
– त्यांना तुमच्या कामाच्या ठिकाणी घेऊन जा जेणेकरून तुम्ही कुटुंबासाठी किती मेहनत करता हे त्यांना समजेल.
– कोणताही स्थानिक सण किंवा स्थानिक बाजारपेठ चुकवू नका.
– किचन गार्डन तयार करण्यासाठी तुमच्या मुलांना बिया पेरण्यास प्रवृत्त करा. आपल्या मुलाच्या विकासासाठी झाडे आणि वनस्पतींबद्दल जाणून घेणे देखील महत्त्वाचे आहे.
– मुलांना तुमचे बालपण आणि कौटुंबिक इतिहास सांगा.
– तुमच्या मुलांना बाहेर जाऊन खेळू द्या, त्यांना दुखापत होऊ द्या, त्यांना घाण होऊ द्या. अधूनमधून पडणे आणि वेदना सहन करणे त्यांच्यासाठी चांगले आहे. सोफा कुशनसारखे आरामदायी जीवन तुमच्या मुलांना आळशी बनवेल.
– त्यांना कुत्रा, मांजर, पक्षी किंवा मासे असे कोणतेही पाळीव प्राणी ठेवू द्या.
– त्यांना काही लोकगीते वाजवा.
– तुमच्या मुलांसाठी रंगीबेरंगी चित्रांसह काही कथा पुस्तके आणा.
– तुमच्या मुलांना टीव्ही, मोबाईल फोन, कॉम्प्युटर आणि इलेक्ट्रॉनिक गॅजेट्सपासून दूर ठेवा. या सगळ्यासाठी त्यांनी संपूर्ण आयुष्य वेचले आहे.
– त्यांना चॉकलेट, जेली, क्रीम केक, चिप्स, एरेटेड पेये आणि बेकरी उत्पादने जसे पफह आणि तळलेले पदार्थ जसे समोसे देणे टाळा.
– तुमच्या मुलांच्याह डोळ्यात पहा आणि तुम्हाला अशी अद्भुत भेट दिल्याबद्दल निसर्गाचे आभार माना. आतापासून येत्या काही वर्षांत, ते नवीन उंचीवर असतील.
पालक म्हणून तुम्ही तुमचा वेळ तुमच्या मुलांना देणे महत्त्वाचे आहे.
तुम्ही पालक असाल तर हे वाचून तुमचे डोळे नक्कीच ओलावले असतील. आणि जर तुमचे डोळे ओले असतील तर कारण स्पष्ट आहे की तुमची मुले खरोखरच या सर्व गोष्टींपासून दूर आहेत. या असाइनमेंटमध्ये लिहिलेला प्रत्येक शब्द आपल्याला सांगतो की जेव्हा आपण लहान होतो तेव्हा या सर्व गोष्टी आपल्या जीवनशैलीचा एक भाग होत्या ज्याने आपण मोठे झालो, परंतु आज आपली मुले या सर्व गोष्टींपासून दूर आहेत…!